बेमेल (भाग 15) – श्वेत कुमार सिन्हा : Moral Stories in Hindi

अब रहने दे भी दे बेटा! मुझे नहीं भाते, ये चापाकल के चोंचले! एक तो इतनी दूर तक आओ और ऊपर से चापाकल चलाओ! इतनी मेहनत कौन करता है भला?” – विजेंद्र की बात को सिरे से नकारती हुई विमला काकी ने कहा।

“पर काकी, तालाब का गंदा पानी पीना जानलेवा भी हो सकता है।”

“अरे बेटा, जीना-मरना तो सब भगवान के हाथ में है! जिसे इस दुनिया से जाना है वो किसी न किसी भांति चला ही जाएगा! जाने वाले को कौन रोक पाया है!”

“पर….” – विजेंद्र अभी कुछ बोलता इससे पहले ही सवालिया निगाहों से उसकी तरफ देखते हुए विमला काकी ही बोल पड़ी। “ऐसा जान पड़ता है कि उन डॉक्टरों ने तुम्हे भी उल्टी-पुल्टी पट्टी पढ़ायी है! मैं तो कहती हूँ, कामचोर हैं वे मेडिकल कैम्प वाले! मुफ्त की रोटियां तोड़ना उनकी आदत लगती है! तभी तो अपना काम हम गांववालों को सौंपना चाहते हैं!”– कहकर विमला काकी अपने घर की तरफ बढ़ने लगी। विजेंद्र को महसूस हुआ कि गांववालो को समझाना इतना आसान काम भी नहीं जितना वह सोच रहा था। बुझे मन से फिर वह गांव के भीतर लौटने लगा। अभी थोड़ी ही दूर चला होगा कि उसके मुर्झाए चेहरे पर रौनक वापस लौट आयी।

“अरे….विजेंद्र बाब्बू!! धन्य भाग हमारे जो दर्शन हुए तोहारे? क्यूं बे, गांव के जमाई क्या बने दोस्तों से नज़रें ही फेर ली! ए साहेब, ई ठीक नाहीं! जरा यार-दोस्तों को भी याद कर लिया करो भई!”  यह रघु था, विजेंद्र का पूराना मित्र जिसने उसे दूर से ही पहचान लिया था और पास आते ही उसकी खींचाई शुरु कर दी। शादी से पूर्व विजेंद्र की इस गांव में यार-दोस्तों की पूरी मंडली हुआ करती थी जिनके साथ वह सारा दिन कभी चौपड़ खेलता तो कभी आते-जाते गांव की लड़कियों और औरतो को निहारा करता। पर जबसे वह इस गांव का जमाई हुआ तबसे इधर आना बिल्कुल बंद ही हो गया।

“ऐसी बात नहीं है रघू! असल में इधर आना कम होता है। इसलिए तुमलोगों से मुलाकात भी नहीं हो पाती! फिर हैजे की वजह से घरवाले इधर आने नहीं देते। वो तो पत्नी का मन खराब लग रहा था तो उसे साथ लेकर आ गया!”- विजेंद्र ने कहा।

“पर भौजाई का मन खराब लग क्यूं रहा था? कोई नया मेहमान आने वाला है क्या! आं…आं??”-  भौवें मटकाते हुए रघू ने पुछा और विजेंद्र के चेहरे पर मुस्कान बिखर पड़ी।

“नहीं मित्र, ऐसी कोई बात नहीं!”

“अच्छा, वो सब छोड़! तू चल मेरे साथ। तूझे सारे दोस्तों से मिलवाता हूँ! तुझसे मिलकर सब बहुत खुश होंगे!”- रघू ने उत्साहित होकर कहा।

“नहीं यार, अभी देर हो रही है। पत्नी राह देखती होगी! जल्दी लौटने को बोलकर निकला था।”

“वाह रे जोरू का गुलाम!! शादी करते ही पाला बदल लिया! खुब समझता हूँ बेटा तेरी बातों को! ऐसे कह न कि बीवी के पल्लू से बंधे रहना तूझे अब सुहाने लगा है!”- विजेंद्र की टांग खींचते हुए रघू ने कहा। और भी न जाने क्या-क्या बड़बड़ाता रहा जिसके आगे अंतत: विजेंद्र को घूटने टेकने ही पड़ी।

“अच्छा बाबा…. ठीक है चल! बोल कहाँ चलना है?”- विजेंद्र ने हामी भरी और रघू के संग गली में आगे बढ़ गया।

अपने पुराने दिनों को याद करते हुए दोनों गली में साथ बढ़ते रहे। उन गलियों में विजेंद्र को कई ऐसे घर दिखे जहाँ कोई न कोई बीमार पड़ा था और भीतर से किसी के खांसने या कराहने की आवाज बाहर तक आ रही थी तो किसी घर से कोई अपनों को खोकर बिलख रहा था।

“यार रघू?”

“ हाँ बोल!”

“यार, हैजे ने समूचे गांव में तबाही मचा रखा है! तूम सब कुछ करते क्यूं नहीं?”

“पर इसमें हमसब कर भी क्या सकते हैं, दोस्त! जो करना है डॉक्टर-वैद्य करेंगे!! नीम-हकीम खतरे जान! इनसे दुरी ही भली।”- कहकर रघू ने अपना पल्ला झाड़ लिया।

“ठीक है, मानता हूँ मरीजों का इलाज नहीं कर सकते! पर कम से कम गांववालो को जागरुक तो कर ही सकते हो कि बीमारी से कैसे बचा जाय! अभी मैं गांव के पनघट पर गया था। वहां देखा कि बहुत सारी औरतें पनघट से गंदे-दुषित जल को मटके में भरकर पीने के लिए घर ले जा रही हैं। तुम्हे पता है, डॉक्टर साब बता रहे थे कि गांववालों के लिए वो जहर है! जागरूकता के अभाव में गांव के लोग रोज वो जहर खुद भी पी रहे हैं और अपने घरवालों को भी पिला रहे हैं। ऐसे में तुमलोगो को आगे आना चाहिए रघू, ताकि इस बारे में सबको बता सको कि क्या करना है और क्या नहीं। ऐसा करने से हैजे पर एक हद तक तो लगाम लगाया ही जा सकता है।” – विजेंद्र ने रघू को बताया जिसके चेहरे पर अब समझ के भाव दिखने लगे थे।

“तेरा कहना तो सही है दोस्त। पर क्या हमारे घरवाले इस खतरनाक काम के लिए हमें बाहर आने देंगे?”

“बाहर तो तू अभी भी है और हम कबसे अपने घरवालों की मानने लगे! हाँ? जरा बता मुझे? दरअसल हम खुद ही नहीं चाहते कि ऐसे किसी पचड़े में पड़ें! हमें आरामपसंद वाली ज़िंदगी और बेपरवाही की आदत जो पड़ चुकी है।” – विजेंद्र ने रघू से कहा। रघू उसकी बातों से सहमत था पर उससे कुछ बोलते न बना।

बात करते-करते वे अपने उसी पुराने अड्डे पर आ गए जहाँ सभी मंडली लगाकर बैठा करते थे। आज भी सभी मित्र वहीं बैठे थे।

“देखो मित्रों, आज मैं किसे साथ लेकर आया हूँ!”- रघू ने कहा और विजेंद्र मुस्कुराता हुआ सबके सामने आया। काफी दिनों बाद उससे मिलकर सभी बहुत खुश थे।   

“क्या बात है!! बिल्कुल सही समय पर आया है तू विजेंद्र! आज हमलोगों की मदिरापान बैठक चल रही है! बस इसी रघू का इंतजार कर रहे थे। अब तू आ गया तो खुब रंग जमेगा! आ बैठ, बहुत दिन हो गए साथ बैठकर पीये हुए!”- मंडली में मौजुद एक साथी ने कहा और सभी ने सहमति में अपने सिर हिलाए।

“नहीं यार…आज नहीं, फिर कभी! आज कुछ जरुरी काम है!”- विजेंद्र ने कहा।

“झूठ बोल रहा है विजेंद्र! सच तो यह है कि अब ये जोरू का गुलाम बन चुका है। घर पर पत्नी इंतजार कर रही है तो फिर यार-दोस्तों को कौन पुछता है भला!!”- रघू ने कहा और सभी मित्र ठहाके लगाकर हंस पड़े।

“अब बिना पीये तो हम तूझे जाने नहीं देंगे! पत्नी की बात तो रोज मानता है आज हम दोस्तों की बात भी तुझे माननी पड़ेगी!” मंडली में बैठे दोस्तों ने सुर में सुर मिलाकर कहा और शराब से भरी गिलास विजेंद्र की तरफ बढ़ा दिया।

अपनी तरफ बढ़े मदिरा के प्याले को कुछ पल निहारते हुए विजेंद्र ने उसे अपने हाथो में ले लिया और अपना गला तर करने लगा। काफी देर तक फिर सभी यार-दोस्त पीते रहे और कैसे घंटों बीत गए पता भी न चला।

थोड़ी देर में लौटने को बोलकर घर से निकले विजेंद्र को अबतक काफी देर हो चुकी थी। दोस्तों से विदा लेकर लड़खड़ाते कदमों से वह घर की तरफ बढ़ने लगा। आंखों के सामने पत्नी का चेहरा घुम रहा था। प्रतीत हो रहा था मानो पत्नी बिस्तर पर पड़ी उसे आवाज लगा रही है – “विजेंद्र, ओ विजेंद्र! आओ न…..कब से मैं तुम्हारा ही इंतजार कर रही हूँ! सुबह भी तुमने मेरी तड़प पूरी नहीं की! विजेंद्र…. जल्दी से आ जाओ! देखो, तुम्हारी ये पत्नी तुम्हारे लौटने का कितनी बेतब्री से इंतज़ार कर रही है विजेंद्र!”

“हं…हाँ हाँ! म म मैं आ रहा हूँ! ब ब बस्स अभी आया!!”- खुद में बड़बड़ाता हुआ विजेंद्र लड़खड़ाते कदमों से घर की तरफ बढ़ता रहा।

शराब की प्रवृत्ति है कि यह पीनेवाले के बनावटी आवरण को उतार फेंकता है जिससे उसका चरित्र निखरकर समाज के समक्ष आता है। आभाशी दुनिया में विचरण करते विजेंद्र के शरीर की ज्वाला अब धधकने लगी थी। घर के भीतर प्रवेश कर नशे में धूत विजेंद्र ने दरवाजे पर कदम रखा तो दूर से ही कमरे में लेटी पत्नी दिख गई। साड़ी के ऊपर से झांकते उसके कटिप्रदेश विजेंद्र के बलशाली शरीर को और बलिष्ठ बना रहे थे।

शाम की धुंधलकी बेला छाने लगी थी और कमरे में रोशनी हल्की ही पड़ रही थी। मदिरा के नशे में लड़खड़ाते कदमों से विजेंद्र ने कमरे में प्रवेश किया और अंधेरे में सोयी पत्नी पर अपने शरीर की सारी बलिष्ठता उड़ेल डाली। यूं अचानक किसी मर्द की अनुभूति पाकर बिस्तर पर सोयी स्त्री ने काफी देर तक उसके स्पर्श का विरोध किया फिर उसकी बलिष्टता के आगे घूटने टेक उस आलींगन में निढाल होती चली गई। मालूम पड़ रहा था जैसे उसका शरीर कामक्रीड़ा के लिए सदियों से भूखा रहा हो और एक बलवान पुरुष ने अपनी बलिष्ठता से उसकी सारी भूख मिटा दी हो। रतिक्रिया में भावनाएं उच्चश्रींखल हो चुकी थी और लीन काया उद्वेलित होकर बल खा रहे थे।

तभी दरवाजे पर किसी की दस्तक हुई। घर के लिए कुछ खरीददारी करने अभिलाषा पंसारी की दुकान पर गयी थी। हाथो में थैले लिए उसने घर के भीतर प्रवेश किया। पिता के कमरे में झांका तो वह गहरी निंद्रा में लीन थे। क़दम फिर आगे बढ़े। अपने कमरे में हलचल पाकर अभिलाषा ने उधर झांका और वहीं जड़ होकर रह गई।…

क्रमशः….

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Written © by Shwet Kumar Sinha

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