.“तू निफिक़्र होकर जा मां! मैं सब देख लुंगी।” – अभिलाषा ने आश्वस्त किया और श्यामा दरवाजे पर खड़े बच्चे संग घर से बाहर निकल गयी।
घर के भीतर कमरे में लेटा मनोहर खुद में ही बड़बड़ा रहा था। आवाज सुन विजेंद्र उसके कमरे में दाखिल हुआ।
“यूं अकेले में क्या बड़बड़ा रहे हैं, बाबूजी?”- विजेंद्र ने पुछा फिर वहीं मनोहर के पास बैठ काफी देर तक बतियाता रहा।
घंटे भर बाद जब अभिलाषा ने उन्हे नाश्ते के लिए आवाज लगाया तब दोनों कमरे से बाहर आए।
“अभिलाषा, मैं थोड़ा गांव के चक्कर लगाकर आता हूँ। बहुत दिन हो गए यार-दोस्तों से मिले हुए!” – विजेंद्र ने कहा और संदूक में खुद के लिए कपड़े तलाशने लगा। थोड़ी ही देर बाद मटके रंग के कुर्ते-पायजामे में खड़ा वह खुब जंच रहा था।
“ह्म्म….इन कपड़ो में देखकर कोई भी कहेगा कि गांव के पाहुना जा रहे हैं! पर जरा ध्यान से जमाई बाबू, पूरे गांव में हैजा फैला हुआ है! सम्भालकर जाना और जल्दी वापस आना!”- विजेंद्र के कुर्ते का बटन बंद करती हुई अभिलाषा बोली और मुस्कुराकर उसके सीने पर अपना सिर रख दिया। जल्दी आने को बोल विजेंद्र घर से बाहर निकल गया।
काफी देर तक विजेंद्र गांव की गलियों में इधर-उधर फिरता रहा। हर तरफ हैजे की विभीषिका ने गांव की रौनक क्षीण कर रखी थी। उन्ही गलियों से होता हुआ वह अपने एक पूराने मित्र के घर पहुंचा तो उसके पैरो तले जमीन ही खिसक गई। चंद रोज हुए उसका मित्र हैजे की बलि चढ़ चुका था। उसकी बेवा ने रो-रोकर उसे सारा हाल बताया कि कैसे हैजे ने उसके पति को अपना ग्रास बना लिया। बुझे मन से वह वहां से आगे बढ़ा। कुछ दूर चलने पर वह गांव की सीमा पर खड़ा था जहाँ उसकी नज़र मेडिकल कैम्प पर पड़ी जो हैजे के मरीजो की इलाज के लिए लगाए गए थे। कुछ सोचकर वह आगे बढ़ा और कैम्प के भीतर प्रवेश कर गया।
“जी कहिए? क्या काम है? किसी से मिलना है?”- कैम्प में मौजुद एक डॉक्टर ने विजेंद्र से पुछा।
“मिलना तो किसी से नहीं है डॉक्टर साब! पर ये सब हो क्या रहा है इस गांव में? एक के बाद एक गांववालों की मौत होती ही जा रही है। किसी के माथे का सिंदूर उजड़ रहा है तो कहीं किसी के घर का चिराग अपनी आंखे मूंद रहा है। आखिर ये सिलसिला थमने का नाम क्यूं नहीं ले रहा?? आपलोग कुछ करते क्यूं नहीं, डॉक्टर साब??” – एक ही सांस में विजेंद्र ने डॉक्टर से कई सवाल कर डाले। वह अभी भी अपने दोस्त के मौत से भावूक था। उसकी निगाहें कैम्प के भीतर हर तरफ हैजे से पिड़ित मरीजों को निहार रही थी जिन्हे देखने से ही जान पड़ता था कि उनकी हालत दयनीय है और जिनकी सेवा में गिनती की कुछ सेविकाएं दिनरात जुटी थी।
“इन सबके जिम्मेदार इस गांव के लोग और आप जैसे नौजवान पुरुष हैं!”- डॉक्टर ने गम्भीर होकर कहा।
“जी!! ये आप क्या कह कर रहे हैं, डॉक्टर साब??”
“बिल्कुल सही कह रहा हूँ! कई बार गांववालो को समझाने का प्रयास किया कि अगर वे चाहें तो हैजे की रोकथाम पूरी तरीके से सम्भव है। पर गांव के लोग अपनी बुरी आदतों के गुलाम बनकर रहे गए हैं! मेरी बात सुनने और मानने को कोई तैयार नहीं!”
“बुरी आदतें? कौन सी बुरी आदतें?”
“दूषित जल पीने, गंदा और बासी खाना खाने, हैजा होने के बाद भी इलाज के बदले झाड़फूंक में विश्वास रखने का अंजाम मौत नहीं तो और क्या होगा? – डॉक्टर की बातें विजेंद्र चुपचाप सुनता रहा।
“और तो और मैने खुद गांव के नौजवानों से कितनी मिन्नते की कि वे आगे आकर हैजे से लड़ने में हमारी मदद करें। गांववालो के बीच जागरुकता फैलाएं जिससे ये बीमारी महामारी का शक्ल लेने से पहले ही दम तोड़ दे। पर कोई मेरी सुने तब न! बड़े अफसोस की बात है कि गांव का एक भी मर्द हमारी मदद के आगे नहीं आया! यहाँ तो सब यही सोचते हैं कि बीमारी और उससे लड़ने का काम केवल डॉक्टर और नर्सों का है! पर जब बीमारी इतनी तेजी से पांव पसार रहा है तो आपसब की मदद के बिना हम भी लाचार हैं। खैर…अब हम सबसे जितना बन पड़ेगा, अपनी तरफ से हर-सम्भव प्रयास करेंगे! आगे भगवान मालिक!”- डॉक्टर ने मायुस होकर कहा जिनके चेहरे से उनकी बेबसी साफ झलक रही थी जो यह बयां कर रही थी कि वह चाहकर भी ज्यादा कुछ नहीं कर पा रहे। हैजे के महामारी का शक्ल लेने से जहाँ उन्हे सिमित साधनो में काम करना पड़ रहा था वहीं गांववालों की अज्ञानता डॉक्टर के राह में रोड़े साबित हो रहे थे और जिसका खामियाजा खुद गांववालों को अपनी जान गंवाकर चुकाना पड़ रहा था।
“पर डॉक्टर साब, गांववाले तो अपने घर के मर्दों को भेजने से इसलिए डरते होंगे कि कहीं ये बीमारी उन्हे भी न निगल ले!”- विजेंद्र ने अपना अंदेशा ज़ाहिर करते हुए कहा।
“यही बात तो मैं कबसे गांववालो को समझाने का प्रयत्न कर रहा हूँ कि ये बीमारी छूने से नहीं बल्कि दूषित जल का सेवन करने और गंदगी से फैलता है! सबको कितना समझाया कि यदि गांव का कोई रहनेवाला आगे आकर सारी बातों का प्रचार-प्रसार करें तो गांववाले शायद उनकी बातों पर जल्दी यकीन कर लें! पर आपलोगों को क्या!! कोई जीए या मरे! सबको केवल अपनी ही पड़ी है!”- डॉक्टर ने कहा और कैम्प में अभी-अभी लाए गए हैजे के एक मरीज की जांच करने में व्यस्त हो गए।
डॉक्टर की कही बातें विजेंद्र के मन में काफी भीतर तक उतरी थी। फिर उन्होने सही ही तो कहा था कि गांव में हो रही मौत का एक बड़ा कारण गांववालो की लापरवाही और अज्ञानता थी जिसका जीता-जागता उदाहरण उसने अभी कुछ ही देर पहले दिवंगत मित्र के घर पर देखा था जहाँ के लोग तालाब से लाए दुषित जल का सेवन कर रहे थे।
“क्या हुआ? आप गए नहीं अभी तक?”- मरीज से निपटकर डॉक्टर ने विजेंद्र की तरफ देख उससे पुछा। पर विजेंद्र ने कोई उत्तर नहीं दिया। उसकी निगाहें तो बस कैम्प में जीवन और मृत्यू की जंग लड़ रहे मरीजो पर टिकी थी।
“मैं वही सवाल फिर दुहराता हूँ। क्या आप इस बीमारी की रोकथाम या इससे बचने के उपायों के प्रचार-प्रसार में हमारी मदद करेंगे?” – डॉक्टर ने विजेंद्र से पुछा तो उससे कुछ बोलते न बना और वह सोच में पड़ गया कि क्या जवाब दे।
“आप जाएं और हमे अपना काम करने दें! कुछ नहीं तो कम से कम इतना करें कि मैने जो बाते बतायी हैं उनका ध्यान रखें ताकि आपका और आपके परिवारवालों का जीवन सुरक्षित रहे!”- डॉक्टर ने कहा और विजेंद्र सिर झुंकाए कैम्प से बाहर निकल आया। पर उनकी कही बातें विजेंद्र के दिमाग में कौंधती रही।
हैजे और हर तरफ उससे फैली दुर्दशा के बारे में सोचते-विचारते वह कब गांव के मुहाने पर स्थित तालाब पर आ पहुंचा, पता ही न चला।
“…और विजेंद्र बेटा, कैसे हो? बहुत दिनों बाद दिखे!”- तालाब के तट पर खड़ी एक स्त्री ने टोका जो विजेंद्र के एक मित्र की मां विमला काकी थी।
“अच्छा हूँ काकी!” – विजेंद्र ने कहा और अभिवादन में अपने हाथ जोड़ लिए। पर उसकी नज़रें तालाब के तट पर टिकी थी जहाँ कुछ औरतें अपने-अपने घड़े में पीने के लिए जल भर रही थी। उसी तालाब में दूसरे छोर पर कुछ बच्चे कूद-कूदकर नहा रहे थे। विजेंद्र को याद आया कि कैम्प के डॉक्टर ने उसे जो बातें बतायी थी ये लोग उसके बिल्कुल उलट कर रहे थे।
तभी तालाब का जल अपने मटके में भरकर विमला काकी ने अपने सिर रखा और घर की तरफ बढ़ने लगी जिसे देख विजेद्र से चुप न रहा गया।
“काकी इस तालाब का पानी कितना गंदा है! इसे पीने से हैजा होने का खतरा है। फिर चापाकल भी तो यहीं पास ही लगा है। आप इससे जल क्यूं नहीं भरतीं?”- विजेंद्र ने कहा और पास ही लगे हैंडपम्प की तरफ इशारा किया जिसका इस्तेमाल करते इक्का-दुक्का लोग ही दिख रहे थे नहीं तो अधिकतर औरतें तालाब का साफ दिखने वाला दूषित जल अपने मटके में भरकर ले जा रही थी।…
क्रमशः…
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बेमेल (भाग 15) – श्वेत कुमार सिन्हा : Moral Stories in Hindi
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Written by Shwet Kumar Sinha