बेमेल (भाग 13) – श्वेत कुमार सिन्हा : Moral Stories in Hindi

रसोई से आज स्वादिष्ट पकवान की खुशबू आ रही थी। बड़े चाव से अभिलाषा ने खुद अपने हाथों से भांति-भांति के पकवान बनाए थे।

मनोहर और विजेंद्र खाने के लिए बैठे तो थाली में परोसे व्यंजन देख मुंह में पानी भर आया। दोनों ने फिर छककर उनका लुत्फ उठाया।

“मां, आपके हाथ में तो जादू है! वाह, कितने स्वादिष्ट पकवान बनाए हैं!! जी तो कर रहा है आपके हाथ चुम लूं! अर्र…म मेरा मतलब है जवाब नहीं आपके हाथो का!!”- श्यामा के तारीफ के पुल बांधता विजेंद्र बोला। जबकि वहीं पास बैठी अभिलाषा उसे आंखे दिखाती रही पर उसका ध्यान उस तरफ न गया।

“जमाईबाबू, ये सारे पकवान मैने नहीं अभिलाषा ने बनाए हैं!”- मुस्कुराते हुए श्यामा ने बताया तो विजेंद्र से कुछ बोलते न बना।

“बोलो बोलो! अब क्या हुआ? मेरी तारीफ करते जिव्हा कांपती है तुम्हारी!!”- शिकायत भरे लहजे में अभिलाषा बोली और बच्चों की भांति अपना मुंह फुला लिया।

“तुम्हारे बिना तो मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं! भला जिव्हा क्यूं कांपेगी मेरी! तुम्हारी तारीफ मतलब मेरी तारीफ! तुमने ऐसा सोच भी कैसे लिया? आं?”- बड़ी चपलता से बातो को सम्भालते हुए विजेंद्र ने सामने बैठी अभिलाषा से कहा। पति के मुंह से खुद के लिए ऐसी बाते सुन अभिलाषा का हृदय प्रफुल्लित हो उठा था। पर विजेंद्र की चोर निगाहें तो श्यामा के योवन में सेंध लगा रही थे जिसके मुख पर बिखरे केश उसके यौवन के उपवन की रखवाली करते प्रतीत हो रहे थे।

घर के मर्दों के बाद खाने की बारी अब अभिलाषा और श्यामा की थी।

“तू बैठ! मैं खाना निकालती हूँ।”- अभिलाषा ने मां से कहा तो विजेंद्र अपने कमरे से निकलकर बाहर आया और जिद्द करके दोनों मां-बेटी को बिठा खुद ही उनके लिए भोजन परोसने लगा।

“मुझे बहुत लज्जा आ रही है, जमाई बाबू! हम औरतों के रहते आप खाना परोस रहे हैं! ये ठीक नहीं!”- अपनी शर्मिंदगी जाहिर करते हुए श्यामा ने कहा।

“इसमें शर्मिंदा होने वाली कौन सी बात है, मां! घर पर भी कई दफा ये ही मुझे परोसकर खिलाया करते थे! अच्छा लगता है न जब कोई अपना आपको इतना स्नेह दिखाए तो!”- अपनी ही धून में अभिलाषा ने कह तो दिया पर श्यामा की असहजता न मिटी।

श्यामा के सम्मुख ही विजेंद्र ने अभिलाषा की थाली से खाने का एक कोर निकालकर उसके मुख में डाल दिया। अभिलाषा ने भी बिना झिझक निवाला मुंह में ले लिया। पर निर्लज्जता की सीमा लांघने को उतावला विजेंद्र यहीं न रुका। पास ही बैठकर भोजन कर रही श्यामा की थाली से एक निवाला निकालकर अपना हाथ उसकी तरफ बढ़ा दिया। भौचक्क होकर श्यामा उसे निहारती रही और उससे कुछ बोलते न बना। न तो उसने विजेंद्र के हाथो से निवाला स्वीकार किया और न ही फिर थाली को हाथ लगाई।

“मेरा अब खाने का जी नहीं कर रहा! शायद तबीयत ठीक नहीं मेरी!”- बोलकर श्यामा थाली छोड़कर उठने लगी। पर हड़बड़ी में उसके पैर का अंगुठा साड़ी की कोर में जा फंसा और वह लड़खड़ाकर गिर पड़ी। पास खड़े विजेंद्र ने लपककर उसे सम्भाला।

“शायद मेरा हाथो से खिलाना आपको पसंद नहीं आया! गलती हो गई मुझसे! मुझे क्षमा करें!”- हाथ जोड़कर अपनी गलती के लिए माफी मांगते हुए विजेंद्र बोला।

“अरे नहीं जमाई बाबू!! ऐसी कोई बात नहीं! आप गलत समझ रहे हैं! सच में मेरा खाने को बिल्कुल जी नहीं कर रहा!”- श्यामा ने विजेंद्र से कहा और अपने चेहरे पर बड़ी मुश्किल से हंसी उंकेरी। पर विजेंद्र का उदास चेहरा देख उसका मन रखने के लिए बोली- “अच्छा ठीक है…आप अपना मन छोटा न करें! मैं इसमें से थोड़ा सा खा लेती हूँ!”  कहकर श्यामा ने थाली से कोर लेकर अपने मुंह में डाल लिए।

“देख लिया न मां! अब बोल, तुझे कोई शक है अपनी बेटी की पसंद पर! रुठे को मनाना इन्हे बड़े अच्छे से आता है! मुझे भी ऐसे ही हमेशा अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों से मना लिया करते हैं! और मैं भी ठहरी कैसी पगली जो इनकी बातों में आ जाया करती हूँ!”- मुहफट्ट होकर अभिलाषा बोलती रही और उसकी बातों का बिना कोई उत्तर दिए श्यामा अपना खाना खत्म कर उठ गई।

***

विजेंद्र की आदत थी कि वह चाहे कहीं भी हो, अपने शरीर की देखभाल में कोई कोरकसर नहीं रहने देता था। अगली सुबह, तड़के जब श्यामा की नींद खुली तो विजेंद्र को घर के आंगन में वर्जिस करते हुए पाया। लंगोट के अलावा उसने शरीर पर कोई और वस्त्र धारण न किए थे और काफी देर से कसरत करने की वजह से उसका पूरा शरीर पसीने से लथपथ हो चुका था। उसके बलिष्ट शरीर पर उभरती मांस-पेशियां और उसपर पड़ती सूरज की उदयीमान किरणें उसे और मनमोहक बना रही थी। बड़ी मुश्किल से श्यामा ने अपनी अनियंत्रित होती निगाहों को मर्यादा का एहसास दिलाया और अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गई।

तभी अभिलाषा की आवाज आयी और विजेंद्र उसके कमरे की तरफ बढ़ गया।

“क्या करते हो पतिदेव? बीवी की काया क्षीण पड़ रही है और तुम अपने शरीर को बलशाली बनाने में लगे हो! जरा मेरी इस काया का भी ख्याल रखा करो!”- बिस्तर पर लेटी अभिलाषा ने कामुक होते हुए कहा और विजेंद्र को अपने आगोश में खींच लिया। पर उसे ध्यान ही न रहा कि मां जाग चुकी थी और उसकी सारी बातें रसोई तक पहुंच रही थी जहाँ श्यामा चुल्हे-चौके की सफाई में व्यस्त थी।

“अभिलाषा, भोर हो चुकी है! उठ जा अब! कब तक कमरे में पड़ी रहेगी?”- अपनी मौजुदगी का एहसास कराने के लिए श्यामा ने आवाज लगाया जिससे पति संग उसकी कामक्रीड़ा भंग हो गई और अपने कपड़ों को ठीक कर कमरे से बाहर निकल आयी। चरम को प्राप्त करने में असफल विजेंद्र शरीर की ज्वाला में तड़पता रह गया और कुछ देर वहीं बिस्तर पर निढाल पड़ा रहा।

तभी घर के मुख्य दरवाजे पर किसी की दस्तक हुई। यह कोई किशोर था जो श्यामा को काम पर बुलाने आया था।

“अभिलाषा, मैं जा रही हूँ। घर के कामकाज तू सम्भाल लेना। शायद कोई जरुरी काम आन पड़ा होगा इसलिए मुझे बुलावा भेजा है। पिता और पति दोनों को समय पर भोजन करा देना और खुद भी भूखी न रहना!” – मुख्य दरवाजे की तरफ बढ़ती श्यामा ने अपनी बेटी अभिलाषा को आवाज लगाते हुए कहा।…

क्रमशः…

अगला भाग

बेमेल (भाग 14) – श्वेत कुमार सिन्हा : Moral Stories in Hindi

All Rights Reserved

© Written by Shwet Kumar Sinha

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!