अटूट बंधन – डाॅ संजु झा : Moral stories in hindi

बदलते परिवेश में जहाँ सम्बंधों के टूटकर बिखरने की घटनाएँ आए दिन सुनाई पड़ती हैं,तलाक शब्द अब हमारे समाज के लिए अपरिचित नहीं रह गया हैं,वहीं आज भी हमारे समाज में पुराने संस्कार और मूल्य मजबूती से अंगद की भाँति पाँव जमाए हुए नजर आते हैं।वास्तव में पति-पत्नी का रिश्ता अटूट बंधनों में बँधा हुआ रहता है।

उस रिश्ते में जहाँ सच्चा प्यार  होता है,वहीं कभी-कभी कुछ देर के लिए  भ्रम रुपी बादल सच्चे प्यार रूपी सूर्य को ढ़ँक भी लेता है।परन्तु पति-पत्नी के प्यार के अटूट बंधन के कारण अंत में भ्रम रुपी बादलों को चीरकर  सूर्य की सुनहली किरणें पति-पत्नी के जीवन को पुनः आलोकित भी कर देती हैं।पति-पत्नी अपने अटूट रिश्तों को भावनाओं के नर्म एहसासों से सावित्री-सत्यवान जैसे यादगार बना लेते हैं।

कथानायिका मधु के घर में सुबह से फिर चहल-पहल मची हुई  थी।मधु की माँ उसे बार-बार पार्लर से तैयार  होकर आने को कह रही थी क्योंकि उस दिन फिर से मधु को देखने लड़केवाले आ रहें थे।उससे पहले उसकी साँवली रंगत के कारण दो बार  लड़केवाले उसे नापसंद कर चुके थे,जिसके कारण मधु के मन में कोई उत्साह नहीं था।

माँ का दिल रखने के कारण वह अन्यमनस्क ढ़ंग से पार्लर चली जाती है।उसे पता है कि उसकी साँवली रंगत के कारण इस बार भी ना ही होगी।चार भाई-बहनों में एक भाई और बड़ी-छोटी बहनें पिता के समान ही गोरी-चिट्टी और लंबे कद की हैं।केवल मधु की रंगत कम है और कद-काठी भी माँ की तरह सामान्य है।

बचपन से ही मधु को अपने साँवले रंग के कारण कटाक्ष का सामना करना पड़ा।लोग उसके सामने ही सहानुभूति दिखाते हुए कहते -“भगवान ने तीनों भाई-बहन को इतना सुन्दर बनाया,फिर मधु के साथ क्यों नाइंसाफी कर दी?”

लोगों की समझ को क्या कह सकते हैं?बच्चे या तो पिता पर जाते हैं या माता पर।इसमें बच्चों का क्या दोष?

बचपन में जब मधु अपने साँवले होने की बात सुनती,तो घर में आकर आईने के सामने खड़ी होकर ढ़ेर सारा पावडर अपने चेहरे पर लपेट लेती और बाहर आकर अपने माता-पिता को दिखाते हुए कहती -” देखो माँ!मैं भी बहुत गोरी हो गईं हूँ!”

माँ उसे प्यार से सीने लगाकर कहती -“हाँ!मेरी लाडो बहुत सुन्दर है!”

मधु जैसे-जैसे बड़ी हो रही थी,वैसे-वैसे उसकी तुलना दोनों बहनों से होने लगी थी।स्कूल-काॅलेज में भी उसे अपने रंग के कारण कटाक्ष सहना पड़ता था,जो उसके मर्मस्थल को अन्दर तक वेध जाता था।माता -पिता उसे प्यार तो बहुत करते थे,परन्तु उनका अप्रत्यक्ष व्यवहार उसे आहत किए बिना नहीं रहता।बचपन से ही उसके पिता उसकी माँ से कहते -“मुझे बड़ी और छोटी बेटी की चिन्ता नहीं है।मँझली मधु की चिन्ता है,उसी की शादी में दिक्कत होगी।इसका रुप-रंग बिल्कुल तुम पर चला गया है!”

उसके पिता उसके साथ-साथ उसकी माँ के रुप-रंग पर भी कटाक्ष कर देते।मधु धीरे-धीरे सभी बातों को समझने लगी थी।अब भगवान ने उसे साँवली रंग दे दिया है,तो उसमें उसका क्या कसूर ?

मधु की माँ बेटी की मायूसी को भाँप जाती और उसे प्यार से समझाते हुए कहती -“बेटी!साँवला रंग खराब नहीं होता है।भगवान राम-कृष्ण भी तो साँवले थे,परन्तु अपने सद्व्यवहार और सत्कर्म के कारण आज भी पूजनीय हैं।”

माँ की बातों से मधु तत्काल खुश हो जाती थी,परन्तु बार-बार छोटी-छोटी बातें भी उसके दिल पर लग जाती थीं।कपड़ों के चयन में दोनों बहनें अपनी पसन्द से चटक रंग चुन लेतीं।मधु के नाराज होने पर कहतीं -“तुम पर हल्का रंग ही खिलेगा,इसी कारण ये दिया है।”

बात तो साधारण ढ़ंग से हँसी-मजाक में कही जाती,परन्तु वह असाधारण ढ़ंग से मधु के दिल पर प्रहार करती।

उस दिन  भी मधु पार्लर से अच्छी तरह तैयार होकर आई थी।उसकी छोटी बहन को बाहर भेज दिया गया था,जिससे मधु के साथ उसकी तुलना न हो सकें।परन्तु इस बार भी लड़केवाले चाय-नाश्ता कर बाद में खबर करने की बात कहकर चले गए। मधु के माता-पिता बहुत उदास से बैठे थे।मधु भी कमरे के अन्दर व्यथित-सी खामोश थी।उसने मन-ही-मन प्रण करते हुए कहा -” मैं भी इंसान हूँ।कोई बेजान सजावटी गुड़िया  या नुमाईश  की वस्तु नहीं!अब से मैं इस नाटक का हिस्सा नहीं बनूँगी।”

संयोगवश उसी दिन  उसके पिता के दोस्त रमण जी उनके यहाँ पधारें।मधु के पिता पंकज जी अपनी उदासी छिपाते हुए अपने दोस्त का आदर-सत्कार करते हैं।

उनकी उदासी को भांपते हुए रमण जी पूछते हैं – पंकज!क्या बात है?बहुत उदास लग रहे हो?”

पंकज जी -“रमण!कुछ नहीं।”

रमण जी -” दोस्त!तुम्हारे झूठ की गवाही तुम्हारा चेहरा दे रहा है! अब दोस्त से भी झूठ बोलोगे?अगर कोई समस्या है,तो बेहिचक मुझे बताओ।”

पंकज जी दोस्त की सहानुभूतिपूर्ण बातें सुनकर भावुक हो जाते हैं और मधु की शादी में होनेवाली परेशानियों के बारे में बताते हैं।

रमण जी बचपन से ही मधु को बेटी के रूप में देखते आएँ हैं।उन्हें साँवली-सलोनी मधु हमेशा से अच्छी लगती थी।सच ही कहा गया है कि खुबसूरती देखनेवालों की आँखों में होती है।उन्होंने आवाज देकर मधु को बाहर बुलाया।मधु ने अभी तक कपड़े नहीं बदले थे।आँखों को पोंछते हुए आकर उसने रमण जी के पैर छुएँ।

रमण जी ने मधु के सिर पर हाथ रखते हुए कहा -” पंकज!मधु पहले से मेरी बेटी की तरह है,आज उसे मैं अपनी बहू के रूप में स्वीकार करता हूँ।”

पंकज जी रमण जी की बातें सुनकर अचकचा हुए कहते हैं -” दोस्त!इतना बड़ा फैसला लेने से पहले अपने बेटा से तो पूछ लो?”

उस समय माता-पिता ही बच्चों का रिश्ता तय करते थे,इस कारण रमण जी ने कहा -“दोस्त!मुझे विश्वास है कि मेरा बेटा सौरभ मेरी बात नहीं टालेगा।एक तरह से यह रिश्ता पक्का ही समझो।”

घर में रमण जी की धाक थी,इस कारण घर में उनके निर्णय के खिलाफ किसी ने कुछ नहीं कहा।हाँ!उनकी दोनों बेटियों ने दबी जुबान में एक बार जरूर कहा था -” पापा! एक बार हम दोनों बहनें भी भैया के साथ लड़की को देखकर आते?”

उनकी मंशा को समझते हुए रमण जी ने कहा -“लड़की सुशील, कार्यकुशल है।मैंने उसे देख लिया है।अब सभी शादी के बाद ही उसे देखेंगे।”

कुछ दिनों बाद  मधु शादी कर मन में ढेरों सारे अरमान लिए ससुराल आ गई। ससुराल में पहले दिन से ही पति और ननदों के उपेक्षित व्यवहार से उसे समझ में आ गया था कि वह केवल ससुर की पसन्द है।सास चूँकि अपने पति की हर बातों से सहमत रहतीं थीं,इस कारण उसे सास-ससुर के व्यवहार में अपनत्व का एहसास होता।

शादी के दो-चार दिन बाद दोनों ननदें ,सास और उसके पति बैठकर आपस में बातें कर रहें थे।मधु उनके लिए चाय की ट्रे लेकर अन्दर जा रही थी,उसी समय उसे ननदों

 की आवाजें सुनाई पड़ीं।ननदें कह रहीं थीं -“माँ!पिताजी ने बिना सोचे-समझे मेरे इतने सुन्दर भाई के पल्लू काली-कलूटी क्यों बाँध दिया?”

ननदों

 की बातों को सुनकर मधु के कदम मानो जड़ -से हो गए। उसने जल्दी से चाय की ट्रे कमरे में रख दी और अपने कमरे में आकर तकिए में मुँह छुपाकर रोने लगी।कुछ ही देर में उसे अपने सर पर किसी का स्नेहपूर्ण स्पर्श महसूस हुआ। नजरें उठाने पर उसने अपनी सास को करीब पाया।वह  रोते हुए सास की बाँहों में लिपट गई।

सास की भावनाओ के नर्म एहसासों को पाकर उसकी आँखों से अव्यक्त दर्द आँसुओं के सैलाब के रूप में बह निकला।उसकी सास ने उसे संबल देते हुए कहा -“इस घर से तुम्हारा अटूट बंधन बँध चुका है।छोटी-छोटी बातों से मन दुखी मत करो।रिश्ते शीशे की मानिंद  नाजुक होते हैं,उन्हें प्यार से सँभालकर रखना पड़ता है,

वर्ना उन्हें दरकने में देर नहीं लगती।शारीरिक सुन्दरता मानवीय कमजोरी है।सबसे पहले किसी व्यक्ति का शारीरिक सौन्दर्य ही आकर्षित करता है।जब किसी व्यक्ति को कोई अच्छी तरह जान जाता है,तभी उसकी आन्तरिक सुन्दरता को देख पाता है।तुम्हारे साथ भी यही हो रहा है। मुझे विश्वास  है कि समय के साथ  तुम अपने आचरण से सभी को एक अटूट बंधन में बाँध लोगी।”

कुछ समय बीतने पर मधु ने अपने सुलझे और संयत व्यवहार से सास-ससुर का दिल जीत लिया।उसके पति सौरभ खुलकर तो उससे कुछ नहीं कहते ,परन्तु पति के व्यवहार में उसे रिश्तों की गर्माहट नहीं महसूस होती।उसकी भी इच्छा होती कि वह पति के चौड़े सीने में अपना सिर छुपा ले और उसकी आगोश में समाकर प्यार भरी मीठी-मीठी बातें करे।पति के साथ कहीं खुबसूरत वादियों में एक-दूसरे को और करीब से महसूस करे,परन्तु पति के व्यवहार में बस एक उपेक्षित कर्त्तव्य-बोध का एहसास होता।

नवरात्रि का समय चल रहा था । घर में पूजा थी।मधु ने लाल चुनरी पहन रखी थी।उसी समय ननदों ने ताना देते हुए कहा -“गहरे रंग में भाभी का रंग और गहरा हो गया है!”

फिर सभी एक साथ हँस पड़े।ननदों की बात से उसे उतना दुख नहीं हुआ, जितना पति सौरभ की कुटिल मुस्कान ने उसे आहत किया।इस व्यवहार से उसका दिल अन्दर-ही-अन्दर घायल हो उठा। 

पति और ननदों के उपेक्षित व्यवहार से उसकी आँखों में आँसू आ गए, परन्तुउसकी आँखों में  तैरती हुई नमी की किसे परवाह थी?उसे तो बचपन से ही संस्कारों की घुट्टी पिलाई गई थी,इस कारण वह धैर्यपूर्वक पति के व्यवहार को बदलने का प्रतीक्षा कर रही थी।संयोग से माँ बनने की खबर ने उसके जीवन में संजीवनी का काम किया।अब उसका ध्यान इन बातों में न लगकर आनेवाले बच्चे के सुनहरे ख्वाबों में डूबा रहता।

समय के साथ  मधु ने एक प्यारी -सी बिटिया को जन्म दिया।छठी के दिन घर में उत्सव का माहौल था।उसके सास-ससुर घर में लक्ष्मी के आने से काफी खुश थे।मधु भी माँ बनकर गौरवान्वित महसूस कर रही थी,परन्तु ननदों ने अपनी कटाक्षपूर्ण बातों से उसकी खुशियों पर तुषारापात करते हुए कहा -“भाभी!भगवान का लाख-लाख शुक्र है।हमने तो सोचा था कि अगर बच्ची आपकी तरह साँवली होगी,तो हम नेग नहीं लेंगी,परन्तु बच्ची तो मेरे भाई जैसी सुन्दर है!अब हमारा अच्छे सा नेग जल्दी निकालो।”

इस खुशी के मौके पर भी ननदें उसे अपमानित करने से नहीं चुकीं,परन्तु अब मधु ने भी दर्द पीना सीख लिया था।

समय अपनी गति से गुजर रहा था।सौरभ के व्यवहार में कोई खास परिवर्तन नहीं आया था,परन्तु अब उसने उसे सभी के सामने अपमानित करना बंद कर दिया था।मधु ने इसे ही अपनी नियति मान लिया था।एक दिन  मधु शाम में दिया -बाती कर जैसे ही उठी,वैसे ही उसके फोन की घंटी घनघना उठी।मधु ने जल्दी से फोन उठाया,उधर से खबर सुनते ही उसके हाथ से फोन गिर पड़ा।उसने किसी तरह खुद को संभालते हुए सास-ससुर से कहा-” मम्मी-पापा!सौरभ का भयंकर एक्सीडेंट हो गया है,वह अस्पताल में भर्ती है।सभी बदहवास-से अस्पताल पहुँचते हैं।

अस्पताल में सौरभ का ऑपरेशन चल रहा होता है।मधु हाथ जोड़कर ईश्वर से अपने सुहाग की जिन्दगी की गुहार लगाती है।कुछ देर में सौरभ होश में आ जाता है,उसके बाद  मधु बच्ची के साथ सास-ससुर को आराम करने घर भेज देती है।खुद भगवान से प्रार्थना करते हुए  सौरभ के पास सारी रात बैठी रहती है।

सौरभ अर्द्ध-बेहोशी की हालत में निरीह आँखों से क्षमायाचना करता है।मधु सबकुछ भूलकर सौरभ के सिर को धीरे-धीरे सहलाती है।उसकी सेवा से सौरभ एक सप्ताह बाद अस्पताल से घर आ जाता है।जो सौरभ मधु की परछाईं से भी भागता था,वही अब हर पल मधु का सहारा खोजता है। मधु जी-जान से पति की सेवा करती है।धीरे-धीरे सौरभ वाॅकर की सहायता से चलने लगता है।

कुछ दिनों बाद मधु सौरभ को लेकर डाॅक्टर के पास जाती है।सौरभ डाॅक्टर से पूछता है -” डाॅक्टर साहब!अभी भी मैं बिना बैसाखी के 

लँ

गड़ाकर चलता हूँ।कब तक नार्मल चल सकूँगा।”

डॉक्टर  -” सौरभ जी!ये तो खुदा का शुक्र है कि आपका एक पैर नहीं काटना पड़ा।इतने भयानक हादसे में आप अपने परिवार  और विशेष रूप से अपनी पत्नी की सेवा और दुआ से बच गए। आपके एक पैर में सदा के लिए खराबी आ गई है!”

डॉक्टर की बातों से सौरभ बहुत उदास  और गमगीन हो उठा।उसकी उदासी मधु के कलेजे में तीर की तरह चुभ रही थी। सच में नारी पति  की जान बचाने के लिए खुद को भी न्योछावर कर देती है।मधु ने सौरभ के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा -“आप इतने उदास मत होओ।आपकी जिन्दगी बच गई, यही हमारे लिए सबसे बड़ी खुशी की बात है!”

मधु की बातें सुनकर सौरभ का ग्लानि से आरक्त चेहरा पूरी तरह झुका हुआ था।पलकों में जैसे बाँध तोड़ने को आतुर सैलाब भरा हुआ था।उसके मन की ग्रन्थि खुल चुकीं थीं।कठोरता  का आवरण पिघलकर व्याकुलता और प्रेम के ढ़ेर सारे भाव उसके चेहरे से प्रकट होने को आतुर थे।सौरभ मधु का हाथ पकड़कर फूट-फूटकर रो पड़ता है।

वह  कहता है-” मधु!मुझे माफ कर दो।मैंने तुम्हारे निःस्वार्थ प्रेम को समझने का कभी प्रयास नहीं किया।तुम्हारा हृदय अत्यधिक विशाल है।अपने रुप के घमंड में चूर होकर मैंने हमेशा तुम्हें तिरस्कृत किया।मैं अभिमान में अंधा हो गया था,उसी की मुझे सजा मिली है! मैं जिन्दगी भर के लिए लँगड़ा हो गया हूँ।”

मधु अपने दिल की बात का  खुलकर इजहार करती हुई कहती है -” सौरभ! जिस दिन से आपके साथ  मेरी शादी हुई, उसी दिन से मैं आपके साथ  रिश्तों के अटूट बंधन में बँध गई। अब तो आप मेरी सुहाग के साथ-साथ मेरी बच्ची के पिता भी हो।हमारा रिश्ता इतना कमजोर नहीं कि एक-दूसरे की कमजोरियों से टूट जाएँ।”

सौरभ मधु को अपनी बाँहों में भर लेता है।दोनों एक-दूसरे की आँखों में प्यार भरी नजरों से देखते हैं।मधु को ऐसा एहसास हो रहा है कि मानो सारे जहां की खुशियाँ उसके पहलू में आकर बैठ गईं हों।डबडबाई आँखों से उसने सौरभ की ओर देखा और उसके हाथ चूम लिए। सचमुच पति-पत्नी का रिश्ता तो जन्मों का अटूट बंधन ही तो है,जिसमें दोनों एक-दूसरे की कमियों को नजरअंदाज करते हुए खुशीपूर्वक जिन्दगी जीते हैं!

समाप्त। 

लेखिका-डाॅक्टर संजु झा (स्वरचित)

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