आकाशवाणी  –  बालेश्वर गुप्ता

कहाँ हो तुम – – तुम्हें कुछ पता भी है – पता नही तुम कहां रहती हो – तुरंत आओ –

      पिताजी जोर से चीख कर माँ को बुला रहे थे.

    क्या आफत आ गयी जो इतना जोर से बोल रहे हो, यही तो हूँ, बताओ क्या आसमान टूट पड़ा है?

     तुम्हारा चहेता बेटा, शादी कर रहा है, वो भी अपनी पसंद से गैर बिरादरी में – -. क्या लव मैरेज कभी सफल हुई है. क्या मुहँ दिखाएगें समाज में?

      क्या शादी? गैर बिरादरी में? नहीं नहीं मेरा बेटा ऐसा नही कर सकता, वो हमारी नाक नही कटवा सकता, जरूर किसी ने उस पर जादू टोना कराया होगा, नही नही जी हमारा बेटा ऐसा नही है. मैं समझाउंगी उसे. मेरी बात क्या आज तक उसने टाली है? आप बेफिक्र रहो सब ठीक हो जायेगा.

     एक साँस में माँ इतना सब कह गयी, पता नही पिताजी को तसल्ली दे रही थी या अपने को.

     1974 मे जैसे ही मैंने अपने प्रेम विवाह के लिये पिताजी से आशिर्वाद माँगा, तो एक भूचाल सा घर में आ गया. एक संपन्न लेकिन उच्च मध्यम श्रेणी परिवार के सामने ये एक बहुत बड़ा सामाजिक संकट मैं खड़ा कर चुका था. आज से 48 वर्ष पूर्व ऐसा सोचना ही हमारे जैसे पुराने रूढी वादी परिवार में एक गुनाह था. मैं वो गुनाह करने को तत्पर था और वो भी चुपचाप नही परिवार की रजामंदी से.


       मेरी आशा माँ से थी, पर उनकी प्रतिक्रिया तो पिता से भी अधिक कठोर थी. मैं तो एक दम किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया, करूं तो क्या करूँ?

     मैंने महीने भर खूब सोचा. शादी न करने के बारे में भी और करने के बारे में भी. आसान लगा शादी न करना, चुपचाप घर लौट जाना और माँ की पसंद की लड़की से शादी कर पिता का व्यापार सम्भालना, कोई झंझट नहीं, आराम से जिन्दगी कटेगी. फिर सामने आ गया मधु का चेहरा, उससे कहे शब्द और साथ रहने का वायदा. इसी विचार मंथन में जीत हुई हर हाल में शादी करने के विचार की. इस विचार के मन में पुख्ता होते ही चेहरा सामने आ गया माँ का. जिसने जीवन भर ममता लुटाई थी, क्या उसका हक छीनने का अधिकार है मुझे?

    मैंने निश्चय किया कि शादी तो मधु से ही होगी, पर माँ को रजामंद करके, माँ पिता के बिना कैसे मानेगी?

        कुछ समय और निकल गया, मेरा शैक्षणिक सत्र भी पूरा हो गया, मैंने वक़ालत शुरू कर दी. इस बीच मैंने यह समझ लिया कि भले ही मेरे माता पिता कम पढ़े लिखे, पुराने ख्यालों के हों, पर वो मुझे उदास और खोया खोया, दुःखी नहीं देख सकते. लेकिन उनकी दुविधा थी लोग क्या कहेंगे, समाज क्या कहेगा? बिरादरी की लड़की होती तो चलो एक बार मान भी लेते, पर गैर बिरादरी की लड़की? बस इस प्रश्न चिन्ह का उत्तर न उनके पास था और न ही मेरे पास.

       अचानक मेरे दिमाग में एक प्रश्न कौंधा कि यदि पिताजी के मित्र गण और जिसे वो समाज समझते हैं, उन्हीं से पहले बात कर ली जाये. मैंने यही किया. तमाम नजदीकी रिश्तेदारों और पिता जी के घनिष्ठ मित्रों की सूची बनाई, जो कुल जमा 24 व्यक्तियों की बनी.

    मैंने एक एक से बात करके अपना पक्ष रखा. आश्चर्यजनक रूप से एक दो रिश्तेदारों को छोड़कर अधिकतर ने मेरा विरोध नही किया, कह नही सकता ये मेरे एडवोकेट हो जाने का प्रभाव था या उनके प्रगतिशील होने या मेरे द्वारा अपने निजी निर्णय में उन्हें शामिल करने के लिए उनके अहम की तुष्टि का परिणाम था. लेकिन मेरे लिये यह उत्साहजनक था.


     मैंने उन सब मे से चार व्यक्तियों को चुनकर उनसे प्रार्थना की वो मेरे पिताजी से इस विषय में बात करे और उन्हें बताये कि उन्हें कोई एतराज नहीं है. मेरे आग्रह को उन्होंने सम्मान ही माना और पिता जी से बातचीत की.

     सब हो जाने पर भी मुझे कोई रेस्पांस या कोई प्रतिक्रिया मुझे घर से प्राप्त नहीं हो रही थी. मैं इस शांति से बेचेन था. समझ नही आ रहा था अब क्या करूँ? इस बीच एक दिन माँ पिता का अकेले में चल रहा वार्तालाप सुनाई पड़ा जिसमें पिता कह रहे थे, दुनिया को पता चल गया है, अब क्या बचा है? बस ये गैर बिरादरी में शादी कैसे जीते जी मक्खी निगले?

      मैंने समझ लिया कि अब मेरे पिता को समाज या मित्रों से कोई डर नहीं है क्योंकि वो डर मैं निकाल चुका था, पर अन्तर्जातीय शादी करने की हिचक उनमे थी, मैं यह भी समझ चुका था कि यह हिचक उनकी कभी दूर भी नही होगी.

      मैंने एक कठोर निर्णय आखिर ले ही लिया और 14 मई 1975 को आर्य समाज में अपने मित्रों, प्रतिष्ठित व्यक्तियों की उपस्थिति में शादी कर ही ली और उसके बाद अपने सीनियर एडवोकेट और दो तीन अन्य पिता जी के मित्रो को इस सूचना को

देने भेज दिया.

      चूंकि मैं सामाजिक भी था, छात्र राजनीति में भी रहा था, इस कारण मेरी इस शादी के समाचार मेरी प्रशंसा के साथ अगले दिन के समाचार पत्रों में भी प्रकाशित हुए. मुझे नहीं पता इस सबने मेरे परिवार पर क्या प्रभाव डाला, पर उन्होंने हमे स्वीकार नही किया. हमने एक छोटा सा घर किराये पर लिया और वहाँ रहने लगे.


         मन में कभी-कभी ख्याल आते कि कहीं कुछ गलत तो नही किया? फिर एक आकाशवाणी सी होती कि अपने को सही स्थापित करने के लिए संघर्ष तो करना ही पड़ेगा, थपेड़े तो सहन करने ही पड़ेंगे.

         तीन माह बाद माँ आ ही गयी हमे अपने घर ले जाने को. माँ को देख मै चिपट कर रो पड़ा. माँ ने उल्हाना दिया कि शादी में बुला तो लिया होता. क्या उत्तर देता? पर माँ का उल्हाना ही आज माँ का आंचल था.

      47 वर्षों के इस सफर में अब माँ पिता नहीं रहे, पर दो बेटे आ गये तीन पोते पोतीया भी आ गयी जो आज सब उस समाज को चिढ़ा रहे थे जो कहते थे प्रेमविवाह कभी सफल नहीं होते.

          बालेश्वर गुप्ता

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