वो … मेरी माँ है! – प्रीति आनंद अस्थाना

 “सिविल सर्विसेज में चुने जाने पर आपको बहुत बहुत बधाई! जल्द ही आप डी.एम. बन जाएँगी। इस सफलता का क्रेडिट आप किसे देना चाहेंगी? इसके लिए प्रोत्साहन कहाँ से मिला आपको? किसी को धन्यवाद देना चाहेंगी आप?”

धन्यवाद? ये तो बहुत छोटा सा शब्द है! मैं उन्हें क्या दे सकती है जिन्होंने मेरे लिए रात-दिन तपस्या की और अपनी पूरी ज़िंदगी होम कर दी मेरी ज़िंदगीनुमा हवनकुंड में?

बहुत पुरानी बातें तो मुझे याद नहीं थीं पर इतना पता था कि पापा की साधारण-सी नौकरी थी… एक प्राइवेट कम्पनी में अकाउंटेंट थे। तनख्वाह ज़्यादा नहीं थी, फिर पीने की आदत! माँ हमेशा इसी जुगत में लगी रहती कि दाल-रोटी का इंतज़ाम हो जाए, हम दोनों भाई-बहन को भूखा न सोना पड़े!

जिस बरस मैंने पाँचवी कक्षा पास किया, पापा ने फ़रमान सुना दिया…

“नेहा अब स्कूल नहीं जाएगी। उसे घर का काम सिखाओ। दो-चार साल में इसका ब्याह कर देंगे।”

उन्होंने आर्थिक दिक्कत होने का बहाना बनाया। भैया तो मुझसे पाँच साल बड़े थे, पर उनकी पढ़ाई पर इस कारण कभी कोई आंच नहीं आई!

मेरे तो पैरों तले से जमीन खिसक गई। छोटी थी पर माँ के अविरल संघर्ष ने ब्याह का मतलब समझा दिया था और वह कतई खुशनुमा नहीं था!

उस छोटी-सी उम्र में माँ में ही मुझे अपना उद्धारक नज़र आया था।  रोते-रोते मैं उनके पैरों से लिपट गई,

“माँ, मुझे आगे पढ़ना है, घर का काम नहीं सीखना।”

उन्होंने अपनी नज़रें मेरे चेहरे पर गड़ा दीं। पता नहीं उन्हें मेरी आँखों में मेरी सच्चाई नज़र आई या मेरा भविष्य… उन्होंने पापा से बात करने का निश्चय कर लिया।

उस दिन मैंने पहली बार माँ की आवाज़ सुनी। तेज़ आवाज़! इससे पहले तो पापा जो कहते माँ वही करती। पर उस दिन वह पापा के बराबर खड़ी होकर मेरी वकालत कर रही थीं,



“बिट्टो की पढ़ाई नहीं रुकेगी। तुम चाहे जो कटौती करना चाहो करो, पर यह मैं होने नहीं दूँगी।”

जिस औरत ने न जाने कितनी बार, बिना अपनी किसी गलती के, बेआवाज़, मार खाई हो, उसे अपने सामने मुँह खोलते देख पापा भी हक्के-बक्के रह गए थे। पर कुछ ही क्षण को।

“चल हट यहाँ से, बड़ी आई है! पढ़ाई नहीं रुकेगी! हुँह! मैं एक पैसा नहीं दूँगा। कर ले क्या करेगी। बस पैसा उड़ाना आता है, फुटी कौड़ी भी कमाया है कभी?”

माँ अपने दहेज में बस एक सिलाई की मशीन लेकर आई थी। घर के सारे कपड़े, यहाँ तक कि पापा के भी, उसी मशीन पर सिले जाते थे। उस दिन के बाद माँ पास-पड़ोस के घरों में जाकर, हाथ जोड़कर, सिलाई के लिए कपड़े लाने लगी। जो पैसे मिलते उसी से मेरी फ़ीस भरी जाती।

जैसे-जैसे माँ का हाथ साफ़ होता गया, ग्राहक स्वयं घर पर कपड़े देने आने लगे। जो भी आता, माँ हमेशा उनसे उनके बच्चों के बारे में पूछती। और अगर बच्चे मुझसे एकाध कक्षा ऊपर होते तो हाथ जोड़कर उनकी पुरानी किताबों के लिए विनती करती।

“किताबों की भीख माँगने में कोई बुराई नहीं, बिट्टो। इससे ज्ञान बढ़ता है।”

इसी कारण मेरे पास किताबों की कमी कभी नहीं रही और तरह-तरह की किताबें पढ़ने की मेरी आदत पड़ गई। जब भी वक़्त मिलता, मैं पढ़ने बैठ जाती।

धीरे-धीरे मैं ऊँची कक्षाओं में पहुँचती गई। मैं चाहे जितनी रात तक पढ़ाई करूँ, माँ तुरपाई वगैरह का काम लेकर वहीं बैठी रहती।

ग्रेजुएशन के बाद मुझे नौकरी मिल गई। मेरे ऑफिस के पास ही एक छोटी-सी दुकान लेकर माँ ने बुटीक खोल लिया। लंच टाइम पर मैं उनके पास ही चली जाती। हम सँग-सँग ही खाते। अब भैया भी नौकरी कर रहे थे तो पापा का चीखना-चिल्लाना कम हो गया था। मगर पीना बढ़ गया था!

नौकरी के साथ-साथ सिविल सर्विसेज की भी तैयारी चलती रही। उसी का परिणाम आज आया था। अपने शहर की लड़की का आई.ए.एस. में चुनाव हुआ है, जानकर अखबार वाले साक्षात्कार लेने पहुँच गए थे।

“जी, मैं इस काबिल नहीं कि उन्हें धन्यवाद दे सकूँ क्योंकि मेरी इस सफलता में उनका योगदान मुझसे कहीं ज़्यादा है। अगर वह मुझे आगे पढ़ाने का निश्चय न करती, संबल न देती तो आज मैं कहीं किसी कोठी पर बर्तन मांज रही होती ताकि अपने परिवार को दो वक़्त की रोटी खिला सकूँ। जिनकी तपस्या के फलस्वरूप मुझे ये कामयाबी मिली है, वो …… मेरी माँ हैं।”

स्वरचित

प्रीति आनंद अस्थाना

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