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असली बाप का बेटा – जयसिंह भारद्वाज

इक्कीस वर्षीय स्नातक युवक भिक्खू देर साँझ दबे पाँव घर के अंदर आया तो रसोई से अम्मा ने कहा, “आ गया बेटा, आ जा हाथ पैर धुलकर आ और यहॉं बैठकर भोजन कर ले।”

“अम्मा, आज भी मुझे कोई काम नहीं मिला। पिताजी कहाँ हैं?” धीमे स्वर में भिक्खू बोला।

“तेरा बाप इधर ही है।”

भिक्खू व उसकी अम्मा ने घूमकर देखा तो चेहरे पर ढेर सारी वितृष्णा लिए पैंतालीस वर्षीय बलदेव सिंह को आँगन के दरवाजे पर खड़ा पाया।

“अड़ोस पड़ोस का एक-एक लड़का कुछ न कुछ कमाने लगा है लेकिन इस कामचोर को तो कोई काम ही नहीं मिल रहा है। रमा! इसे कब तक बैठे-बैठे खिलाती रहोगी?”

पति के क्रोध भरे शब्द सुनकर रमा ने कहा, “आप व्यर्थ में ही नाराज़ हो रहे हैं। अभी कौन सा बूढ़ा हो गया है यह, काम तो मिल ही जायेगा एक न एक दिन। तब देखना इन निठल्ले लड़कों से अधिक नाम और दाम कमाएगा मेरा भिक्खू। और फिर नौकरी नहीं भी करेगा तो क्या! इतनी खेतीबाड़ी है, इसे ही तो सम्भालना है।”

“हुँह.. नाम और दाम कमायेगा! रमा, यदि यह असल बाप का बेटा है तो तभी घर वापस आये जब मुझे मुँह दिखाने लायक बन जाये। अब खेतीबाड़ी का जमाना नहीं रहा।” घृणा और आवेश से जैसे बलदेव सिंह अपना आपा खो बैठे थे।

यह सुनकर खाना परोसते हुए रमा के हाथ ठिठक गए और कातर दृष्टि से पति की तरफ देखा। तौलिये से मुँह पोंछता हुआ भिक्खू भी रुक गया और अपने पिता की तरफ देखने लगा।

“देख क्या रहा है निर्लज्ज! निकल जा घर से निकम्मे!” बलदेव सिंह फिर से दहाड़े।

भिक्खू ने भरे नयनों से माँ को देखा फिर तौलिये को खूँटी में टांगा और दरवाजे की तरफ बढ़ने लगा तो उसे माँ का दीन स्वर सुनाई दिया, “अरे! रुक जा बेटे। तेरे पिता जी तो यूँ ही कहते ही रहते हैं। आ जा, पहले कुछ खाना तो खा ले।”

“अम्मा, आज मत रोको। आज रुक गया तो आपके चरित्र पर धब्बा लग जायेगा। पिताजी ने बात ही ऐसी कह दी है आज। मुझे अब जाने दीजिए।” भरे गले से भिक्खू ने कहा और आँसू पोछते हुए अपने सर्टिफिकेट्स वाली थैली उठाकर दरवाजे से बाहर निकल गया।

“उसे रोक लीजिये आप। सुबह से उसने एक निवाला भी नहीं खाया है। कुछ तो खा लेने दीजिये। अरे! रोक लीजिये न।” गिड़गिड़ाते हुए रमा ने बलदेव सिंह से कहा और स्वयं द्वार की ओर दौड़ पड़ी।

“रुक जाओ रमा। कहाँ जाएगा वह। जब पेट में चूहे दौड़ेंगे तब अभी कुछ घण्टों में लौट आएगा। कहाँ है ठिकाना उसके जैसे कामचोरों का। चलो, अंदर आ जाओ।” बलदेव सिंह ने रमा को टोकते हुए कहा।




द्वार पर जाकर रमा ठहर गयी और बाहर देखने लगी। गली के छोर पर भिक्खू जाता हुआ दिखा किन्तु वह चाह कर भी न तो देहरी से बाहर जा सकी और न ही चीख कर उसे बुला सकी। ममत्व को मारकर वह निढाल होकर वहीं दरवाजे को पकड़ कर बैठ गयी और रोने लगी।

उस रात न तो रमा ने भोजन किया और न ही बलदेव सिंह ने। भिक्खू वापस नहीं आया था।

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प्रयागराज में संगम की रेती में कल्पवासियों के लाखों टेन्ट लगे हुए थे। इस सरकारी व्यवस्था के बाद भी हज़ारों लोग अपनी स्वयं की व्यवस्था करके झोपड़ियाँ बनाकर कल्पवास का पुण्यलाभ ले रहे थे। कुछ पूरे काल के कल्पवासी थे और अपनी श्रद्धा, व्यवस्था और स्वास्थ्य के अनुसार कुछ आंशिक काल के। इन कल्पवासियों की सहायता के लिए प्रशासनिक चहल-पहल बनी हुई थी पूरे संगम क्षेत्र में। बहुत से कल्पवासियों के पारिवारिक सदस्य कल्पवास काल के मध्य अपने प्रिय से मिलने और उनकी आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिए आते जाते रहते थे और आवश्यकता पड़ने पर दो-चार दिनों के लिए वे मुख्य मार्ग और संगम क्षेत्र के मध्य बने भवनों में किराए पर रह लेते थे। इन भवनस्वामियों के लिए यह अतिरिक्त धनार्जन का समय होता था। अधिक भीड़ होने पर कई लोग संगम तटीय गाँवों में भी अल्पकालिक ठिकाना खोज लेते थे।

जनवरी का अंतिम सप्ताह था और साँझ के धुंधलके में जब पचपन वर्षीय बलदेव सिंह अपनी पत्नी रमा के साथ भोजन कर रहे थे तभी दरवाजे पर खटका हुआ। दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखा फिर बलदेव सिंह ने कहा, “देखता हूँ कौन है.. शायद किसी कल्पवासी का परिजन है।”

द्वार खोला तो सामने एक महिला अपने चार वर्षीय बेटे के साथ खड़ी थी।

“श्यामली बिटिया, तुम! इस साल भी तुम्हारी सास कल्पवास कर रही हैं क्या?” दरवाजे से आगे बढ़कर बलदेव सिंह ने श्यामली नामक उस महिला के पास रखे उसके भारीभरकम बैग को उठाते हुए कहा।

श्यामली ने अपने दुपट्टे को सिर पर ठीक से रखते हुए सामने खड़े बुजुर्ग के पैर छुए और कहा, “इसे छोड़िए चाचा जी, मैं लेकर चलती हूँ। बाहर बहुत सर्दी है। चलिए आप अंदर चलिए। वहीं बातें करूँगी।” एक हाथ से बैग और दूसरे से अपने बेटे को पकड़ते हुए उसने कहा और द्वार के अंदर आने लगी।

भीतर वह रमा के गले लगी और फिर उनके पैर छुए। रमा ने जी भरकर आशीष दिए और फिर बच्चे को दुलराते हुए बोली, “अरे रे रे.. देख तो मेरा अर्जुन कितना ठिठुर रहा है। आ जा इधर अलाव के पास आकर बैठ जा।”

श्यामली के पति सेना में हैं और ससुर बूढ़े हैं अतः सासूमाँ के तीर्थाटन की जिम्मेदारी उसे ही उठानी पड़ती है… ऐसा श्यामली ने सिंह दम्पति को बताया था। पिछले दो साल से वह कल्पवास काल में अपनी सासूमाँ से मिलने और उनके हालखबर लेने आया करती है। पहली बार बलदेव सिंह व रमा के साथ ठहरने पर कुछ ऐसा रिश्ता बन गया कि इन्होंने ठहरने का किराया नहीं लिया उल्टे जो भी रूखा-सूखा रसोई में पकाया उसे ही सभी ने मिलजुलकर बड़े चाव से खाया। यही वे कुछ दिन होते थे जब सिंह दम्पति के चेहरे पर खुशी और हँसी की रेखाएँ उभर आती थीं। अब इस उपकार के बदले में अपनी सासूमाँ के आदेश पर श्यामली दोनों के लिए बहुत सी पैकेटबंद खाद्य वस्तुएँ, सूखे मेवे, ऊनी वस्त्र और कम्बल आदि ले आती थीं। पूरे कल्पवास के मध्य वह दो बार आती थी। इस बार भी बड़े झोले में यही सब था।




अगली सुबह जब श्यामली ने सारा सामान निकाल कर चारपाई पर रखा तो रमा ने कहा, “अरे बिटिया, ये सब क्यों लेकर आ जाती हो। भगवान का दिया हमारे पास सब कुछ है। खेती-बाड़ी और जानवरों से जीने लायक अच्छा लाभ मिल जाता है हमें। यह सब सामान देखकर भिक्खू के पिताजी बहुत नाराज हो जाते हैं मुझ पर।”

“एक तरफ आप मुझे बिटिया भी कह रही हैं और दूसरी तरफ मुझे आपकी सेवा या सहायता करने से मना भी कर रही हैं। देखो अम्मा! मैं तो आपकी बिटिया हूँ इसलिए आगे से यह लाती भी रहूँगी आप चाहे कितना ही रोकें।” कहते हुए श्यामली ने रमा को गले लगा लिया। दोनों सिसकने लगीं और एक दूसरे की पीठ सहलाने लगीं।

थोड़ा सहज होकर श्यामली रमा से अलग हुई और दोनों हाथों से उनका चेहरा थाम कर उनके गालों से आँसुओं को साफ करते हुए बोली, “अम्मा, आपके बेटे की कोई सूचना मिली?”

“न बिटिया.. दस बरस बीत गए उसे गए हुए किन्तु अभी तक तो कोई खबर नहीं मिली। आज अपनी कही बात पर उसके पिताजी पछताते भी हैं पर सुनने वाला ही नहीं है…” भरे गले से द्वार के बाहर गली के छोर की तरफ देखते हुए रमा बोली और फिर भरभराकर रोने लगी।

“अम्मा, भगवान पर भरोसा रखें और प्रार्थना करती रहें कि  वह जहाँ भी हों वहाँ प्रसन्न और स्वस्थ रहें।” श्यामली ने रमा को ढांढस बंधाते हुए कहा।

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गर्मियों के दिन थे। बलदेव सिंह दोपहर का भोजन करके लेटे हुए थे। उनकी दृष्टि सामने दीवार पर बने छेद पर गयी जहाँ पर गौरैया का एक जोड़ा बड़ा उदास सा बैठा था। शायद उनका बच्चा बड़ा होकर उड़ गया था। एक दो दिनों के बाद ये फिर से अपनी दिनचर्या में लौट आएँगे। सोचते-सोचते बलदेव सिंह की आँखों से आँसू बह निकले। वर्ष-प्रति-वर्ष बीतते जा रहे हैं किन्तु भिक्खू की कोई सूचना नहीं है। आरम्भ में एक बार एक पुलिसवाला आया था और उसके बारे में पूंछतांछ करके चला गया था। जाने वह कौन सी घड़ी थी जब उनके मुँह से वह मनहूस बात निकल गयी थी जिसे सुनकर बेटे ने देहरी त्याग दिया था। वे सिसकने लगे।




पास ही लेटी रमा सिसकने की आवाज सुनकर अपने पति की चारपाई की तरफ देखा तो पाया कि वे बैठे बैठे रो रहे हैं। वह उठी और पति के कंधे सहलाते हुए बोलीं, “अपना जी न दुखाओ भिक्खू के पिताजी, आपने ऐसे दिनों को सोचकर तो नहीं कहा था न… सब समय का फेर है। प्रभु के घर देर है अंधेर नहीं। सब ठीक हो जाएगा। अपना भिक्खू लौटेगा और तब हमारा परिवार फिर से खुशहाल हो जाएगा। बस.. धीरज बनाये रखें।” कहते हुए रमा अपनी धोती के आँचल से अपने पति के आँसुओं को साफ करने लगी।

बलदेव सिंह उठकर बाहर जाने लगे तो रमा ने टोका, “सूरज सिर पर चढ़ा है, ऐसे में कहाँ निकल पड़े आप धूप में!”

“कहीं नहीं रमा, बस आज मन बहुत बेसब्रा हो रहा है। अजीब सी उलझन हो रही है मुझे।” दरवाजे पर ठहर कर अंगौछे को सिर पर बाँधते हुए बलदेव सिंह ने कहा।

“जब दिन-रात पश्चाताप ही करते रहेंगे आप तो उलझन तो होगी ही। आओ, बैठ जाओ। मैं सिर पर ठण्डा तेल ठोंक देती हूँ।”

“ठीक है, बस तनिक नुक्कड़ तक टहल आता हूँ।

“अच्छा जाओ किन्तु जल्दी लौट आना। मैं प्रतीक्षा कर रही हूँ।” कह कर रमा दरवाजे के पास बैठकर पति को जाते हुए देखने लगी।

सड़क से गुजरते वाहनों में से सेना की एक जीप जाते हुए बलदेव सिंह के पास रुकी। उसमें से श्यामली उतरी और ठिठके खड़े बलदेव सिंह के पैर छुए तो सहसा वे बोल पड़े, “अरे श्यामली बिटिया! तुम इस समय? और अर्जुन कहाँ है?”

“चाचा जी, आइये घर चलें।” श्यामली का स्वर अत्यंत ठण्डा और गम्भीर था।

बरामदे में पड़ी चारपाई में बलदेव सिंह पत्नी रमा के साथ बैठे हैं जबकि सामने पड़ी कुर्सी में श्यामली। सिंह दम्पति की दृष्टि श्यामली के चेहरे पर है जहाँ दिख रहा था कि श्यामली बात करने का कोई छोर खोज रही है। फिर श्यामली ने दोनों बुजुर्गों को देखा और बोली, “अम्मा, मैं जो कुछ भी कहने जा रही हूँ उसे धीरज से सुनना। आपका बेटा उस साँझ घर से निकल कर सीधे प्रयागराज स्टेशन पहुँचा और स्टेशन से सरकती हुई एक ट्रेन में चढ़ गया। ट्रेन में ही उसे बहुत से लड़के झाँसी में होने वाली सेना की भर्ती की चर्चा करते हुए मिले। वह भी उन्हीं के साथ झाँसी में उतर गया। दैवयोग से उसका सेना में चयन हो गया। एक दो वर्ष बाद जब वह एक आतंक विरोधी ऑपरेशन का हिस्सा था तब उसकर सामने ही उसकी टुकड़ी के नायक को वीरगति प्राप्त हो गयी। बाद में उस वीर-बलिदानी सेनानी के परिवार को उनके दिल्ली के स्थायी निवास तक छोड़ने जाते समय माँ-बेटी से ऐसी घनिष्टता हुई कि पत्राचार और टेलिफ़ोनिक वार्ताएं होने लगीं। दो वर्ष बाद नायक की इकलौती बेटी ने अपनी माँ की सहमति से पास के ही मंदिर में उससे विवाह कर लिया। ससुराल के विषय में उसने अपनी पत्नी को बताया कि वह कुछ बनकर ही अपने पिताजी के पास जाना चाहता है। इसलिए वह अवकाश के पलों में सिर्फ अध्ययन करता और प्रोन्नति के लिए आयोजित परीक्षाओं में सम्मिलित हुआ करता। इसी प्रकार पिछले दस-ग्यारह वर्षों में वह सूबेदार मेजर के पद तक पहुँच गया। उसका उद्देश्य अब अगले एक दो वर्षों में कैप्टन पद के लिए होने वाली परीक्षा में सम्मिलित हो कप्तान बनना और उसके बाद अपने मातापिता से मिलना था। इसी मध्य जब वह एक सर्च ऑपरेशन की अगुवाई कर रहा था तब आतंकियों की एक गोली का लक्ष्य बन गया और गम्भीर रूप से घायल हो गया। उसका उपचार दिल्ली के बड़े सैन्य अस्पताल में हो रहा है। मैं चाहती हूँ कि आप दोनों मेरे साथ चलें और उससे भेंट कर लें।”




“हाय मेरा भिक्खू..!” कह कर अम्मा दहाड़े मार कर रोने लगीं जबकि बलदेव सिंह अंगौछे में मुँह छुपाकर फफक कर रोने लगे।

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आईसीयू में लेटे बेटे को शीशे की दीवार के पार से देखकर रमा व बलदेव सिंह बहुत अधिक दुःखी हो गए। उनको सम्भालना कठिन हो रहा था फिर भी किसी प्रकार व्यवस्थित करके श्यामली उन्हें अपने घर ले आयी। यहीं पर उनकी भेंट श्यामली की माँ से हुई और तब उन्हें पता चला कि श्यामली ही उनकी बहू और अर्जुन पोता है। अपने पति से छुपाकर उन दोनों से मिलने, हालचाल लेने व कुछ सहायता देने के लिए ही श्यामली बहाने से कल्पवास के दौरान आती-जाती थी।

कई दिनों बाद जब सामान्य वार्ड में शिफ्ट बेटे से मिले तो बलदेव सिंह ने उसकी हथेलियों को अपनी हथेलियों के मध्य लेते हुए कहा , “बेटे, अपने पिता की बात को कोई बेटा अपने दिल से कैसे लगा सकता है भला! बाप से कोई यूँ रुष्ट होता है?”

“पिताजी, कोई पिता अपने बच्चों से ऐसी बात कह भी कैसे सकता है जो न केवल स्वयं उसके बल्कि उसकी पत्नी के चरित्र पर प्रश्नचिन्ह लगा रहा हो! इससे बड़ा अपशब्द क्या हो सकता है एक सन्तान के लिए?” रोते हुए   भिक्खू बोला।

“हाँ, गलती तो हुई थी मुझसे बेटे।” कातर स्वर में बलदेव सिंह ने कहा।

“लेकिन यह भी सच है कि आपकी इसी बात का सहारा लेकर मैंने कुछ कर गुजरने की ठानी और  सम्भवतः सफल भी रहा। लेकिन…”

“लेकिन क्या बेटे?” चौंक कर उसे देखते हुए बलदेव सिंह ने कहा तो भिक्खू ने अपने पैरों के ऊपर पड़ी चादर को हटाते हुए कहा, “लेकिन पिताजी, मैं लज्जित हूँ कि इस चाहत में मैं सिर्फ अपनी एक टाँग ही गवाँ सका। आतंकियों की कई गोलियां मेरे शरीर के विभिन्न अंगों में लगी किन्तु कोई एक गोली यदि मेरे सीने में लग जाती तो मातृभूमि पर बलिदान होकर मैं अपने मातापिता के मस्तक को कितना गर्वान्वित कर देता। उफ्फ! मैं हतभाग्य ही रहा पिता जी… क्षमा करना।” आँखों आँसू भरकर जब भिक्खू ने ये शब्द कहे तो उसकी अम्मा फफक फफक कर रोने लगी और बोली, “मुझे गर्व है बेटे कि मेरी कोख से तुझ जैसी सन्तान ने जन्म लिया है। किसी नागरिक के लिए देश की सीमाओं में वीरगति प्राप्त करने से बढ़कर और क्या पुरस्कार हो सकता है। बेटे मैं धन्य हुई और मेरी कोख भी।”

“बेटे, तू है असली बाप का बेटा। तुझ पर मुझे गर्व है। तूने मेरे मान-सम्मान को आकाश तक पहुँचा दिया है।” भरे गले से उसकी हथेलियों को सहलाते हुए बलदेव सिंह ने कहा।

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अपने पिता व बेटे अर्जुन के साथ सुबह की सैर के बाद कृतिम पैर व एक वाकिंग स्टिक के सहारे चलकर घर के मुख्य द्वार तक भिक्खू पहुँचा तो बाहर दीवार पर लगी नाम-पट्टिका को पढ़ने लगा “भीष्म प्रताप सिंह – ऑनरेरी कैप्टन”।

पट्टिका पर उंगलियाँ फेरते हुए उसके चेहरे पर सन्तुष्टि के भाव दिख रहे हैं। बरामदे पर खड़ी माँ रमा अपनी समधन के साथ उन्हें अंदर आते देख रही हैं जबकि श्यामली पति को मिले शौर्य-पदक को बड़ी कोमलता से साफ करके मखमली डिब्बे में सजा रही है।

मेरी बात: माता पिता को आवेश में आकर अपनी सन्तान से कोई हृदय में चुभने वाली बात  नहीं बोलनी चाहिए। इसी तरह बच्चों को भी अपने बड़ों से कोई कठोर अथवा अमर्यादित बात नहीं कहनी चाहिए। समाधान के विकल्प अनेकों हैं.. हम सभी को उन्हें खोजना है। आजकल बढ़ती आत्महत्याओं और सम्बन्ध-विच्छेदों के पीछे कठोर वाणी और अविश्वास के भाव ही हैं। मैं अपवादों से मना नहीं कर रहा हूँ।

                     -/इति/-

©जयसिंह भारद्वाज, फतेहपुर (उ.प्र.)

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