मोहर – डॉ. पारुल अग्रवाल : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : आज रेवती की नवजात बेटी का नामकरण संस्कार होना था।उसकी बेटी ने उसकी दुनिया में कदम रखकर मानों सही मायने में रेवती को भी नवजीवन दिया था। कहते हैं कि आने वाला बच्चा अपने साथ बहुत बदलाव लेकर आता है,आज इस बात पर रेवती को यकीन हो गया था। रेवती के कदम ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे।

जिस प्यार और सम्मान के लिए रेवती शादी के बाद से तरस रही थी, वह बेटी के जन्म के बाद उसके मातृत्व ने दिलवा दिया था। इस बच्ची की बदौलत ही उसके और पति के शादी के बंधन को सही मायनों में मोहर लगी थी। अभी रिश्तेदारों के और नामकरण पूजन में थोड़ा समय था। उसकी सास ने बिटिया के साथ रेवती को आराम करने के लिए बोला था। 

बेटी को सुलाने के बाद रेवती भी उसके पास लेट गई थी। आज रेवती पुराने दिनों की यादों में खो गई। अनिरुद्ध से उसकी शादी उसके पिताजी ने सब देखभाल कर तय की थी। अनिरुद्ध अपने माता-पिता के इकलौते बेटे और बैंक में मैनेजर थे। अनिरुद्ध के पिताजी और रेवती के पिताजी एक ही कार्यालय में काम करते थे। अपने पास ही इतना अच्छा पाकर रेवती के पिताजी को तो जैसे मनचाही मुराद मिल गई।

अगर अनिरुद्ध बैंक में मैनेजर था तो रेवती में हर तरह से कुशल थी। रेवती की सुंदरता,उसकी कार्यकुशलता और मिश्री सी मीठी बोली उसको अनिरुद्ध से उन्नीस नहीं इक्कीस ही बनाते थे। विवाह पर रेवती के पिताजी ने दिल खोलकर खर्च किया था। रेवती अब अनिरुद्ध के घर का हिस्सा थी। जैसा कि अमूमन होता आया है कि मुंह दिखाई के समय कुछ औरतें और नाती-रिश्तेदार ऐसा कुछ बोल जाते हैं

जिसके घाव नासूर बनकर कभी नई बहू तो कभी नई बनी सास को कसक दे जाते हैं। रेवती को जिसने भी देखा उसने तारीफ की साथ साथ कई चिंगारी लगाने वाली अनिरुद्ध की बुआ,चाची ने अनिरुद्ध की मां सुमित्राजी को ये भी कहने लगी कि अब उनका साम्राज्य समाप्त हो गया जो अनिरुद्ध कल तक उनकी सारी बातें मानता था वो अब रेवती के इशारों पर नाचेगा। 

सुमित्रा जी पहले ही अनिरुद्ध को लेकर एकाधिकार की भावना से ग्रस्त थे। ऐसी बातों ने उनको और भी चिंता में डाल दिया था।उन्होंने मन ही मन रेवती को अपना प्रतिद्वंदी मान लिया था। शादी के बाद से ही वो रेवती की हर बात में गलती निकालकर अपने अहम की तुष्टि करती। अगर अनिरुद्ध को मौसमी बुखार भी हो जाता तो उसमें भी वो सारा इल्ज़ाम रेवती पर डाल देती। रेवती के लिए हर दिन जैसे अपनेआपको सही साबित करने की कवायद लिए होता।

हालत यहां तक थे कि सुमित्राजी अनिरुद्ध और रेवती को साथ बातें करते हुए भी देखती तो खींझ उठती थी। रेवती ने इस विषय में अनिरुद्ध से और अपने ससुर से भी बात करनी चाही पर दोनों ने रेवती को ही यह कहकर चुप करा दिया कि अभी शुरुआत है,धीरे-धीरे सब ठीक हो जायेगा। वैसे भी जो मां पच्चीस साल से अपने इकलौते बेटे का काम करती आई हो

उसके लिए एकदम सब कुछ किसी दूसरे को सौंप देना मुश्किल है। रेवती ससुराल में बिल्कुल अकेली पड़ गई थी। अभी भी सुमित्राजी का हर छोटी बड़ी गलती के लिए रेवती पर ही इल्ज़ाम लगाती और अनिरुद्ध के सामने सारी बातों को बड़ा करके बताती। अनिरुद्ध एक बार भी सही गलत की परख किए बिना रेवती को ही अपने अंदर सुधार करने को बोलता।

रेवती ने अब अपने आपको एक खोल में बंद कर लिया था। वो अब अपनी ही दुनिया में चुपचाप रहती। इसी बीच उसे अपने अंदर एक जीव की आहट सुनाई पड़ी। वो मां बनने वाली थी। पर उसका पूरा समय एक अलग ही चिंता में निकलता था। सुमित्रा जी थोड़ी अंधविश्वासी और दकियानूसी भी थी। वो जब भी आने वाले बच्चे की बात करती तो सिर्फ पोते के विषय में ही कहती। रेवती को लगता होने वाला बच्चा बेटा हो या बेटी इससे क्या फ़र्क पड़ता है

पर उसकी सुनता ही कौन था वहां? वो अनिरुद्ध से भी कहती तो उसका जवाब होता कि तुम्हें मां की बात मानने में समस्या क्या है? ऐसे करते करते प्रसव का समय आ गया। रेवती बहुत कमज़ोर हो चुकी थी। सुमित्राजी ने पोते का मुंह देखने के लिए बहुत सारे ताबीज़ रेवती को बंधवा रखे थे। साथ ही साथ कई सारे मंत्रों का जाप भी उसको करने के लिए बोला था। उनको पूर्ण विश्वास था कि अनिरुद्ध की पहली संतान तो बेटा ही होगी पर आशा के विपरीत उनके घर में पोती का आगमन हुआ।

वैसे भी पहली ही बार मां बनने पर वो इतनी कमजोर थी कि डॉक्टर ने उसे दूसरे बच्चे का रिस्क लेने से भी मना कर दिया था।अब तो सुमित्राजी बहुत गुस्से से भर गई। उनको लगा कि रेवती की वजह से उनकी वंशबेल आगे बढ़ने से रह गई।वो पोती का चेहरा देखे बिना ही हॉस्पिटल से आ गई। साथ साथ उन्होंने अनिरुद्ध को भी ये कहकर अपनी बेटी से मिलने से रोक दिया कि उसकी बेटी मूल नक्षत्र में हुई है

अभी पिता के लिए उसका चेहरा देखना शुभ नहीं है। इधर रेवती के लिए ये सब सहन करना बहुत मुश्किल हो रहा था। वो अपने लिए तो सब सह रही थी पर अपनी बेटी के लिए ये सब सहन करना उसके लिए मुश्किल था। उसके माता-पिता भी ये सब देख समझ रहे थे पर वो बेटी के घर में किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं करना चाहते थे। 

हॉस्पिटल से छुट्टी मिलने पर रेवती किसी तरह अपनी बेटी को लेकर घर आ गई। घर आने पर भी उसकी सुमित्राजी ने अनिरुद्ध के सामने ये बोला कि इसने मेरे बताए हुए मंत्रों और ताबीज़ को नहीं माना इसलिए बेटी पैदा हो गई। हमारे यहां तो पहला बच्चा बेटा ही होता है। अनिरुद्ध भी गुस्से वाली नज़रों से रेवती को देख रहा था।

हालांकि रेवती के ससुर ने उसका साथ देने की कोशिश भी की पर अपनी पत्नी के सामने वो भी लाचार थे। अब रेवती जो इतनी देर से चुपचाप थी अपनी सारी ताकत जुटाकर बोली कि किस ज़माने की बात कर रहे हैं आप लोग? वैसे तो बेटा हो या बेटी सब बराबर हैं,अरे उनसे पूछिए जिनके दोनों में से बहुत दुआ और इलाज़ के बाद कुछ भी नहीं होता पर फिर भी आप लोगों को लगता है कि बेटी या बेटा होने के पीछे स्त्री होती है तो आपकी अवधारणा बिल्कुल गलत है क्योंकि विज्ञान के अनुसार स्त्री में तो बेटा और बेटी में फ़र्क करने वाले गुणसूत्र ही नहीं होते।

रही बात मेरी बेटी की तों वो किसी पर बोझ नहीं है। मैं इतनी सक्षम हूं जो अपनी बेटी को अच्छे संस्कार देकर अपने बलबूते पर पाल सकती हूं पर मैं इतनी भी स्वार्थी नहीं हूं कि अपनी बेटी को उसके पिता की छांव से अलग कर दू।मैंने अपने माता-पिता से घर को जोड़ने के संस्कार पाए हैं ना कि तोड़ने के। एक बच्चे के लिए माता के साथ-साथ पिता के भी साया बहुत आवश्यक है।

आज उसको ऐसे बोलते देखकर रेवती के ससुर भी चुप ना रह सके उन्होंने भी सुमित्रा जी को बोला कि अब तक वो चुप थे कि शायद अनिरुद्ध के शादी के इतने साल पैदा होने की वजह से तुम्हारे अंदर एकाधिकार की भावना है पर आज तुम घर आई खुशी को नज़रंदाज़ करके बहुत बड़ी गलती कर रही हो। याद करो वो पुराने दिन जब बहुत दिनों तक बच्चा ना होने पर तुम भगवान से सिर्फ ये कहती थी कि बस तुम्हारी गोद भर जाए चाहे होने वाली संतान लड़का हो या लड़की। तुम्हें तो ईश्वर का शुक्रिया करना चाहिए कि अगर तुम्हारे पास अनिरुद्ध जैसा आज्ञाकारी बेटा है तो रेवती जैसी बहू है जो तुम्हारी सारी बातें अब तक उफ़ किए बिना सुनती आई है नहीं तो आजकल की लड़कियों को ससुराल के खिलाफ़ पुलिस में जाने में देर नहीं लगती है।

ये सब बातें सुनकर सुमित्राजी और अनिरुद्ध की आंखें खुल गई। सुमित्रा जी ने अपने किए के लिए रेवती से क्षमा मांगनी चाही। तब रेवती ने उनके हाथों को थामकर कहा कि आपके हाथ सिर्फ आर्शीवाद देते हुए अच्छे लगते हैं माफ़ी मांगते नहीं। अनिरुद्ध की आंखों में पश्चाताप साफ नज़र आ रहा था। वो ये सब सोच ही रही थी। तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई। देखा तो सामने अनिरुद्ध थे। उन्होंने अपनी अभी कुछ दिनों पैदा हुई बेटी पर प्यार भरी नज़र डालते हुए कहा रेवती से माफ़ी मांगते हुए कहा कि अब वो दोनों मिलकर बहुत अच्छे से उसकी परवरिश करेंगे। उनकी बेटी ने आज उन दोनों के सात janके साथ पर अपनी मोहर भी लगा दी है। आज रेवती का दामन खुशियों से भर गया था।

दोस्तों कैसी लगी मेरी कहानी? अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें। कई बार एक बच्चा अपनी मां के लिए संबल बनकर आता है। एक मां अपने बच्चे को अगर नौ महीने अपने अंदर रख सकती है तो उसके लिए पूरी दुनिया का सामना भी कर सकती है। 

#इल्ज़ाम

डॉ. पारुल अग्रवाल,

नोएडा

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