वृद्धाश्रम –  विभा गुप्ता : Moral Stories in hindi

 ” बहू.., मैं सोच रही हूँ कि हमें वृद्धाश्रम चले ही जाना चाहिये।तुम्हें सुकून मिल जाएगा और हमें….।” गैस पर चढ़ा कढ़ी के भगोने में कलछी हिलाते हुए जानकी जी ने अपनी बहू आशी से कहा तो वह छहचकित हो गयी।चेहरे पर भाव ऐसे आ गये जैसे किसी ने उसे काले पानी की सज़ा सुना दी हो।

      जानकी जी दो बेटे थें।उनके पति एक कस्बे के सरकारी स्कूल में हैडमास्टर थें।उन्होंने अपने बच्चों को शिक्षा के साथ-साथ अच्छे संस्कार देने की भी पूरी कोशिश की थी लेकिन शहर की हवा कहे अथवा समय का प्रभाव….,दोनों बेटों ने शिक्षा तो ग्रहण किया लेकिन संस्कार…।खैर, बड़ा बेटा आदित्य कनाडा पढ़ने गया तो फिर लौटा नहीं।पलटकर ये भी नहीं देखा कि उसे कनाडा तक पहुँचाने के लिये उसके पिता ने किस-किस से ऋण लिया और वह चुकता हुआ भी या नहीं।छोटा आशीष ने भी ऐसा ही कुछ कहने के लिए मुँह खोलना चाहा लेकिन जानकी जी के पति श्रीकांत बाबू बेटे की मंशा पहले ही भाँप गये थें, सो उन्होंने हाथ खड़े कर दिए और कहा कि भारत में कहीं भी पढ़ लो लेकिन विदेश के लिये मेरा बजट नहीं है।

      फिर आशीष ने मुंबई से एमबीए किया और वहीं की एक मल्टीनेशनल कंपनी में उसे नौकरी भी मिल गई।छह महीने में एक बार अपने माँ-बाप मिलने आ जाता था तो उनके कलेज़े को ठंडक मिल जाती थी।एक दिन उसने फ़ोन करके बताया कि अपने साथ काम करने वाली आशी नाम की लड़की के साथ वो कोर्ट मैरिज़ कर रहा है।मैं टिकट भेज रहा हूँ, आप लोग आ जाइयेगा।

      पाल-पोसकर जिस बेटे को माँ-बाप बड़ा करते हैं, उसके मुख से ऐसे वचन सुनकर किसका कलेजा छलनी ना होगा।शांत स्वभाव वाले श्रीकांत बाबू भी उस दिन गुस्से-से बोल पड़े थे,” ऐसे औलादों से तो हम बेऔलाद ही अच्छे थें।” 

   ” शुभ-शुभ बोलिये…।” कहते हुए जानकी जी ने अपने मास्टर पति का गुस्सा शांत करने का प्रयास किया और बेटे द्वारा भेजे गये टिकट प्राप्त होते ही दोनों प्राणी बेटे को आशीर्वाद देने मुंबई चले गये।शहरी चोंचले देखकर दोनों का जी उकता गया और दो दिनों के बाद वापस आ गये।त्योहारों पर जानकी जी बेटे को बुलाती तो कभी अपने काम की व्यस्तता तो कभी पत्नी की सेहत का बहाना बनाकर टाल जाता था।

       दो वर्ष बीत गये,आशीष नहीं आया तो दोनों ने भी अपने मन को समझा लिया। श्रीकांत बाबू सेवानिवृत होकर अपने पुश्तैनी घर में आराम की जिंदगी जीने लगे।कभी पत्नी उनपर चिढ़ जाती तो कभी बच्चों की तस्वीरें देखकर दोनों उनके बचपन को याद कर लेते।

       एक दिन आशीष ने बताया कि आप लोग दादा-दादी बनने वाले हैं।कुछ काॅम्प्लीकेशन होने के कारण डाॅक्टर ने आशी को रेस्ट बताया है।आप लोग आ जाते तो अच्छा होता।एक तरफ़ जहाँ उन्हें दादा-दादी बनने की खुशी थी, वहीं बेटे की लापरवाही उन्हें तकलीफ़ भी दे रही थी।यहाँ पर भी जानकी जी ने पति को समझाया कि बीती बात को बिसार कर आगे बढ़ने में ही समझदारी है और सबकी भलाई है।श्रीकांत बाबू को पत्नी की बात माननी ही पड़ी।आखिर वह माँ है,बेटे को देखने के लिए उनका मन भी तो तड़पता ही होगा।

      बस दोनों अपने घर के दरवाज़े पर ताला लगाकर बेटे की दुनिया सँवारने के लिए चल पड़े।जानकी जी ने घर सँभाला ,श्रीधर बाबू ने बाहरी कामों की ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली और बेटे-बहू खुश।

      आशी ने एक बेटी को जनम दिया जिसका नाम रखा गया मान्यता।घर में जश्न हुआ ,होटल में भी शानदार पार्टी दी गई।तीन महीने के बाद आशी वापस अपने काम पर जाने लगी और जानकी जी अपनी पोती को संभालने लगी।दिन मज़े में कट रहे थें।पोती के चलने-बोलने और उसके साथ खेलने में दोनों खुद को भूल-से गये थें।

       जानकी जी की पोती अब स्कूल जाने लगी तो सुबह वे स्वयं प्ले स्कूल छोड़ आती और तीन घंटे बाद श्रीकांत बाबू वापस ले आते।उम्र हो या समय, गति कभी रुकती नहीं।पोती बड़ी हो रही थी और उन दोनों की उम्र ढ़ल रही थी।एक दिन आशीष ने अपने पिता से कहा,” पापा..,आप सैर के लिये तो जाते ही हैं, आज थोड़ा आगे बढ़ जाइयेगा और इसके तीन-तीन प्रिंट काॅपी करवाते आइयेगा।” कहते हुए उसने दो डाॅक्युमेंट पिता को थमा दिये।

        उस दिन श्रीकांत बाबू को अपनी तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही थी,इसलिये वाॅक से जल्दी घर आ गये।बेटे का काम नहीं कर पाये।आशीष के पूछने पर उन्होंने कहा कि कल-परसों में करा दूँगा।मेरी तबीयत…।आशीष ने उनकी बात नहीं सुनी और मन ही मन कुढ़ने लगा।यद्यपि दो दिन बाद उन्होंने प्रिंट आउट लाकर आशीष को दे दिया था लेकिन आशीष ने तो अपना जी खट्टा कर लिया था।फिर तो छोटी-छोटी बातों पर दोनों में अनबन होने लगी। कभी-कभी आशीष चिढ़ कर बोल देता,” इससे तो अच्छा था कि मैं आप लोगों को वृद्धाश्रम ही छोड़ आता।” और श्रीकांत बाबू अपने आँसू पीकर रह जाते।

      जानकी जी कभी-कभी बहू के आदेश का पालन नहीं कर पाती।कुछ शारीरिक असमर्थता थी और कुछ…. जी नहीं करता, तब उन्हें भी यही सुनाया जाता,” इससे अच्छा तो आप लोग वृद्धाश्रम में ही रहती।” जानकी जी बस अपने आँसू पीकर रह जातीं।

         एक दिन दोनों बैठे शाम की चाय का लुत्फ़ उठा रहें थें, पास में ही उनकी पोती भी खेल रही थी।अचानक वह गिर गयी। चोट तो नहीं लगी थी, बस रोने लगी थी।उसी समय आशी ऑफ़िस से आई थी।बेटी को रोते देखकर वह खुद पर काबू न रख सकी और अपने सास-ससुर को अनाप-शनाप सुना दिया।उस वक्त तो श्रीकांत बाबू चुप रह गये, फिर बाद में पत्नी से बोले,” अब तुम कुछ नहीं बोलोगी।मैं जैसा बोलूँ, वैसे ही करते जाना।

       जानकी जी ने वैसा ही किया, बहू को अपने वृद्धाश्रम जाने की बात कह दी तो आशी के पैरों के नीचे से तो ज़मीन ही निकल गई।डिनर के बाद आशी ने चिंतित स्वर में आशीष को सारी बात बताई और बोली,” आशीष….., अब क्या होगा…मान्यता को कौन संभालेंगे? सुबह मैं अपने ऑफ़िस जाने की तैयारी करुँगी कि उसे बाथ कराऊँगी….।वैसे भी उसे तो माँजी की आदत पड़ चुकी है।यार.., मैंने तो सोचा था कि वृद्धाश्रम भेजने की धमकी देती रहूँगी तो वो लोग थोड़ा दबे रहेंगे लेकिन…., सब उलटा हो गया।”

  आशीष को शांत बैठे देखकर आशी झुंझला गई,चीखते हुए बोली,” आशीष….तुम कुछ बोल क्यों नहीं रहे हो?” 

”  क्या बोलूँ मैं यार!….।” आशीष भी उसी लहज़े में बोला। ” मैंने भी तो यही सोचा था कि बीच-बीच में इन्हें वृद्धाश्रम भेजने का डोज़ देकर अपना काम निकलवाता रहूँगा लेकिन माँ ने तो पासा ही पलट दिया।वैसे आशी.., तुम्हारी भी गलती है, माँ की उम्र का लिहाज़ तो तुम्हें रखना ही चाहिए था..।” आशीष ने तीखे स्वर में कहा।

 ” अच्छा! मुझे रखना चाहिए था…,क्या तुमने रखा…तुम्हारे तो पिता थे।” आशी भी उसी लहज़े में बोल पड़ी।दोनों आपस में तुम…! तुम…! करने लगे और उनके कमरे के बंद दरवाज़े के बाहर खड़े श्रीकांत बाबू मंद-मंद मुस्कुराते हुए अपने कमरे की ओर बढ़ गए।

        मम्मी-पापा के तेज आवाज़ से मान्यता की नींद खुल गयी और वह दादी… कहकर कमरे से निकल गई और जानकी जी की गोद में आकर सो गयी।

        अगली सुबह घर का दृश्य बदल चुका था।जानकी जी चाय बनाने किचन में जा ही रही थी कि एक बाईस-तेईस वर्षीय युवती ने आकर उनके हाथ में चाय का कप थमा दिया।जानकी विस्मय-से उसे देखने लगी,तब आशी उनके कमरे में आई और बोली,” माँजी, ये इंदू है।घर के सारे काम अबसे यही करेगी।आप बस इसे गाइड करते रहियेगा।और हाँ…, जो भी सामान घटे-बढ़े तो….।”

    ” मंटू ले आया करेगा।पापा…,आप तो बस आराम कीजिये…।सीनियर सिटीजन का यहाँ एक क्लब भी है तो आपका…।” मुस्कुराते हुए आशीष अपने पिता से बोला तो श्रीकांत बाबू पत्नी की तरफ़ देखे, जैसे कह रहें हो,” श्रीमती जी.., आशीष आपका बेटा है तो मैं उसका बाप हूँ।” तभी मान्यता बोली,” दादी…चलो ना…देर हो रही है।” जानकी जी पोती की स्कूल छोड़ने चली गई और श्रीकांत बाबू….,वे भी सैर के लिए निकल पड़े, न हाथ में कोई थैला और न मुट्ठी में सामानों की कोई पर्ची। 

                               विभा गुप्ता

                                 स्वरचित 🖋

14 thoughts on “वृद्धाश्रम –  विभा गुप्ता : Moral Stories in hindi”

  1. आज के माता पिता की व्यथा कथा का चित्रण आपने इस कहानी में बहुत ही सुंदर तरीके से किया है।”जैसे को तैसा”वाली बात सच ही है👍👏👏

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  2. बहुत शानदार समझदारी का नेहले पर सही देहले से वार।

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  3. बहुत सारगर्भित कथानक, समय रहते अगर सही निर्णय लिया जाए तो बाजी पलट जाती है।

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