विलुप्त होते रिश्ते – शिप्पी नारंग : Moral stories in hindi

“लो वे आ गए सुरेश जी” चंद्र प्रकाश जी ने सामने देखते हुए कहा । सभी पांचो दोस्तों की नजर सामने पड़ी देखा एक हाथ में छड़ी और दूसरे हाथ से एक 10-12 वर्षीय बच्चे का हाथ पकड़े हुए सुरेश जी चले आ रहे थे । ये छह लोगों का एक ग्रुप था जो रोज 2 घंटे सुबह और 2 घंटे शाम को पार्क में मिलते थे, थोड़ी देर सैर करते थे फिर गपशप करते थे ।

सभी 70-75 वर्ष के आसपास थे यानी रिटायर्ड जिंदगी का मजा ले रहे थे । बरसों का नियम था, बस सुरेश जी अभी 8-9 महीने पहले ही इस ग्रुप में शामिल हुए थे । अकेले रहते थे कभी कभार एक जोड़ा महीने-दो महीने के अंतराल में आता था तीन-चार दिन रुकते फिर चला जाता । यह छोटा बच्चा शायद उन्हीं का ही था । कई बार दोस्तों में सुरेश जी के पीछे बहस होती थी कि वह बेटा बहू है या बेटी दामाद ।

पूछा किसी ने भी सुरेश जी से कभी नहीं था बस कायस लगाए जाते रहे । सुरेश जी ने आकर सबका अभिवादन किया और कुर्सी पर बैठ गए फिर बच्चे को कहा- “वंश बेटा सबको पी पी करो” और वंश ने सब बुजुर्गों के पांव छू कर उन्हें प्रणाम किया । मोहन जी ने पूछा – “यह पी पी क्या होता है…?” तो सुरेश जी हंसकर बोले ” भई ये आज की पीढ़ी है हिंदी नहीं समझती तो हिंदी को इंग्लिश में बदलना पड़ता है ।

पी पी यानी “पैरी पौना (पांव छूना)” और एक ठहाका गूंज गया, सबको मजा ही आ गया । अचानक दलजीत सिंह जी ने पूछा- “यह आपका नाती है..”? सुरेश जी ने ना में सिर हिला दिया । “अच्छा-अच्छा पोता होगा…?” दलजीत जी ने बात पूरी की । सुरेश जी ने फिर न में सिर हिला दिया । अब सबके चेहरे पर एक प्रश्न आ गया । “वंश बेटा तुम कुछ कहने आए थे..?” सुरेश जी ने कहा। वंश ने सबको देखकर कहा “आप लोग आज शाम को 5:00 बजे हमारे घर आना चाय पीने।” “क्यों आज तुम्हारा जन्मदिन है क्या ?” चंदर जी ने पूछा ।

“नहीं बाबा अब हमारे साथ जा रहे हैं चंडीगढ़, तो मम्मी ने कहा बाबा को कि सबको चाय के लिए बुला लो ” वंश ने मासूमियत से कहा । अभी कोई कुछ कहता कि सुरेश जी ने कहा – “हां ठीक है मम्मी को बताओ जाकर कि सब आएंगे । तुम जाओ मैं आ जाऊंगा।” वंश सबको अभिवादन कर दौड़ गया । सबकी आंखों में कौतूहल देखकर सुरेश जी ने कहा “आप लोग हैरान होंगे ना कि ना तो वंश और ना ही उसकी मम्मी पापा के साथ मेरा कोई खून का रिश्ता है फिर भी मैं उनके साथ जा रहा हूं किस रिश्ते से ? है ना ?

यही आप लोग सोच रहे हैं ?” सबने हां में सिर हिला दिया। “तो सुनिए मेरी कहानी । एक बात से तो आप मुझसे सहमत होंगे कि आजकल पैसा रिश्तों पर भारी पड़ने लगा है पैसा नहीं है तो कौन मां और कौन बाप..? और वो भी जब तक आपके हाथ-पांव चल रहे हैं, आप घर में कुछ हेल्प करवा पा रहे हैं तो ठीक नहीं तो भई जीना ही मुश्किल है। नहीं समझे ना चलिए शुरू से ही बताता हूं ।”

सुरेश जी की आवाज आई। “मेरा एक बेटा पवन और एक बेटी मुक्ता थी। पवन बड़ा था और नौकरी करता था। मुक्ता भी पढ़ लिखकर नौकरी करने लगी फिर संजय से उसकी शादी हो गई । प्रेम विवाह था और ना हमें ना संजय के मां-बाप को कोई आपत्ति थी। वह अपने घर चली गई पवन की भी शादी हो गई । बहू बहुत अच्छी मिली हमें । मुक्ता के एक बेटी और एक बेटा हो गए थे।

पवन की कोई संतान न हुई थी अभी तक। हम थोड़ा चिंतित हो गए थे । पवन और उसकी पत्नी संगीता भी अब चाहते थे परिवार बढ़ाना पर जब तक ऊपर वाले की कोई मर्जी ना हो कुछ नहीं हो सकता । संगीता बहुत ही अच्छी थी हमें पूरा आदर सम्मान देती थी। मुक्ता का भी आना-जाना लगा रहता था । अचानक बिजली गिरी और पवन एक दिन सबको अकेला छोड़कर हमेशा के लिए चला गया ।

क्सीडेंट हुआ था और एक हफ्ता हॉस्पिटल में रहकर वह जंग हार गया और छोड़ गया हम सबको। हमारी तो जो हालत होनी थी हुई पर संगीता को संभलने में काफी वक्त लगा, जिंदगी को वापस पटरी पर लाने में। संगीता को ठीक होने में तकरीबन आठ नौ महीने निकल गए। संगीता ने ऑफिस ज्वाइन कर लिया थोड़ा संभल गई मां बाप ने उसे एक दो बार अपने साथ चलने के लिए कहा पर उसने साफ कह दिया मम्मी पापा को छोड़कर नहीं जाऊंगी उनके बुढ़ापे का सहारा अब मैं ही हूं सच कहूं तो हम भी नहीं चाहते थे कि वो ऐसे अकेले जिंदगी काटे।

फिर हमने व संगीता के मम्मी पापा ने तय किया और संगीता की दूसरी शादी के बारे में उससे बात की । पहले तो वो बिफर ही गई सुनकर फिर हमने उसे का हमने उसे सब ऊंच नीच समझाई, जमाने का बर्ताव बताया जो एक अकेली औरत को क्या समझता है, कैसे देखता है ।बहुत समझाने पर, जिससे हमें बहुत पापड़ बेलने पड़े पर फिर वो मान गई पर इस शर्त पर कि जब वह चाहेगी हमसे मिलने आएगी और हम भी उसके पास जाएंगे। हम मान गए पर उसका सबसे बड़ा प्रश्न था अकेले तो आपको नहीं रहने दूंगी और हमने भी बड़े गर्व से कहा हम मुक्ता के साथ रहेंगे।

मुक्ता व संजय से बात हुई उन्होंने हां तो भर दी पर काफी भारी दिल से। हमने संगीता की शादी करवा दी, मकान बेच दिया उसमें से आधा हिस्सा मुक्ता को और आधा अभी अपने पास रखा क्योंकि संगीता ने बाकी का आधा हिस्सा लेने से साफ इंकार कर दिया । संगीता का जो जेवर था वो और शादी के सामने हमने थोड़ा और बनवा दिया था उसे दे दिया हालांकि वह मकान बेचने के बहुत खिलाफ थी पर हमने एक नहीं सुनी उसका कन्यादान भी हमने ही किया। हम मुक्ता के पास चले गए ।

शुरू में तो सब ठीक रहा। संजय की नौकरी बाहर थी यानी देश से बाहर, साल में एक बार ही यहां आ पाता था मुक्ता दो चार महीने के लिए चली जाती थी पीछे से घर बच्चे बाहर हम संभालते थे । घर का काम करने के लिए मेड वगैरा लगी हुई थी जब तक पत्नी चलती फिरती थी तब तक खाना वही बनाती थे फिर उम्र का असर आना शुरू हुआ जिसमें घुटनों के प्रॉब्लम शुरू हुई और उस दर्द ने उसे चलने फिरने से लाचार कर दिया तो एक कुक को लगा दिया वो एक टाइम आती थी और दो टाइम का खाना बनाकर चली जाती थी मुझे भी खाने की प्रॉब्लम होती थी सुनाई कम देने लगा था ।

बच्चे बड़े हो गए थे मुक्ता की बेटी अंशिका अब हर बात पर खीझने लगी थी अपनी मां को पता नहीं क्या उल्टी सीधी पट्टी पढ़ाती थी कि मुक्ता के स्वभाव में भी अंतर आना शुरू हो गया । पेंशन मेरी थी नहीं बस कुछ एफ डी वगैरा जरूर कराई थी जिसमें से मेरा व पत्नी का दवाई आदि का खर्चा ठीक से हो जाता था । जो पैसा हमने अपने लिए रखा था घर बेचने के बाद वो मुक्ता और संजय ने धीरे धीरे हमसे निकलवा लिया था और अब उनकी आंखों में हम खटकने लगे थे।

रोज कुछ ना कुछ कहा जाता है कभी खर्चों को लेकर कभी जगह को लेकर कभी काम को लेकर खाना भी ऐसे मिलता था जैसे कोई एहसान किया जा रहा हूं पर हम भी मजबूर थे हाथ में कुछ भी ना था। संगीता जरूर हर 2 महीने के बाद दो-तीन दिन के लिए आती थी पर उसे भी हम क्या कहते..? वीरेंद्र के साथ उसकी गृहस्थी अच्छे से चल रही थी तो हम नहीं चाहते थे कि उसे ऐसा कुछ बताएं कि वह दुखी हो जाए वैसे भी वह अपनी गृहस्थी में जम गई थी वंश भी आ चुका था पर इधर अब हमारे हालत खराब होने के कगार पर थे संजय वापस आ चुका था।

हमें खाना कभी मिलता था और कभी सिर्फ दूध और टोस्ट खाकर सो जाते थे क्योंकि अब बच्चे बड़े हो गए थे तो हर दूसरे दिन बाहर से खाकर आते थे कभी घर पर भी मंगवा लेते थे हम सब चीज पचा ही नहीं पाते थे मुक्ता, हमारी बेटी भी अब बहुत उल्टा सीधा बोल जाती थी कभी कहती संगीता को जेवर क्यों दिया मेरी अंशिका के काम आता कभी कहती मकान क्यों बेच दिया जबकि सारा पैसा वह ले चुकी थी बस किसी न किसी तरह से हम इस रिश्ते को चला ही रहे थे ।

यह बात एक बार संगीता को पता चल गई तो वह अपना सारा जेवर ले आई पर हमने लेने से बिल्कुल मना कर दिया मुक्ता को तो आग ही लग गई और उसने साफ कह दिया कि आप अपना कहीं और इंतजाम कर लो अब मेरे बच्चे भी बड़े हो रहे हैं जगह की कमी है । आप लोग खुद सोचिए हमारी हालत… 75 का मैं हो चुका था पत्नी 72 की थी चल वह सकती नहीं थी काम करना तो बहुत दूर की बात पर कलह निरंतर बढ़ती जा रही थी । आखिरकार तंग आकर इज्जत की दो रोटी की खातिर हमने एक किराए का मकान ले लिया 15,000/ किराया था गाज़ियाबाद में लिया।”

“गाजियाबाद में क्यों…?” चंद्र जी की आवाज आई। “क्योंकि एक तो दिल्ली में किराए बहुत ज्यादा थे जो मैं अफोर्ड नहीं कर सकता था दूसरे मेरे भतीजे वही थे तो सोचा कल को कुछ हो गया तो संभाल तो लेंगे…” “पर जब बेटी दामाद ना संभाल पाए तो दूसरों से क्या उम्मीद लगानी थी” चंद्र जी की आवाज आई । “सही कहा आपने पर चारा भी कोई न था।” सुरेश जी की भराई आवाज आई । हम लोग वीरवार चले गए अपने नए मकान में। मेरा भतीजा आया था वही हमे ले गया और रात को रुका घर सेट कराने और सुबह……” सुरेश जी रोने लग गए किसी के मुंह से आवाज ना निकली ।

चंद्र जी ने जल्दी से पानी की बोतल दी सुरेश जी ने दो घूंट पानी पिया आंखें पोंछी और फिर बोले…. “सुबह मेरी पत्नी ने आंखें ही नहीं खोली वह मुझे हमेशा के लिए छोड़ गई कब नींद में उसने प्राण त्याग दिए हमें पता ही ना चला शायद वह इस दुख को सहन ही नहीं कर पाई कि जिस बेटी के लिए उसने इतने साल निकाले, उसके बच्चों को पाल पोस कर बड़ा किया वह इतनी निष्ठुर निकलेगी कि उम्र के इस मोड़ पर घर से ही निकाल देगी। मेरी तो दुनिया ही उजड़ गई ।संगीता को पता चला दौड़ी चली आई मुक्ता का खूब सुनाया उसे कितना असर हुआ पता नहीं ।

संगीता ने अपने साथ मुझे चलने के लिए भी कहा मैंने मना कर दिया मुक्ता ने तो एक बार भी नहीं पूछा कि अब मैं अकेला कैसे रहूंगा और वैसे भी मैंने सोच रखा था कि मर जाऊंगा मुक्ता पर तेरी उस देहरी पर पैर भी ना रखूंगा जहां से मेरी बीवी ने अपना आखिरी कदम निकाला था, पर वहां मेरा दिल ही नहीं लगा…. लगता था यहीं तो मेरी पत्नी ने आखिरी सांस ली तो मैं कैसे रह सकता हूं फिर यहीं पर आ गया यहां एक घर मिल गया था सुबह एक खाना बनाने वाली आती है

दोनों समय का खाना बना जाती है, सप्ताह में दो बार कपड़े धो जाती है। बस गाड़ी खींच रहा था कि एक दिन वीरेंद्र व संगीता आए वंश को मेरी गोदी में डाल दिया और बोला यह आपका ही है नाना बनो या दादा आपकी मर्जी पर अब आप अकेले नहीं रहोगे हमारे साथ चलोगे चंडीगढ़ जहां हम रहते हैं । सच मानो रिश्तो से विश्वास ही उठ चुका था पर फिर मैंने यह शर्त रखी कि ठीक है मैं दो-तीन महीने वहां रहूंगा फिर वापस यहीं आ जाऊंगा तब वीरेंद्र ने कहा ठीक है आपकी शर्त मानी पर हमारी यह बात तो आपको माननी ही पड़ेगी कि जब-जब वंश के स्कूल की छुट्टियां होंगी

10-15 दिन वंश आप के पास रहेगा और संगीता भी मैं नौकरी की वजह से इतना नहीं रोक पाऊंगा पर आता जाता रहूंगा और फिर बाकी छुट्टियां आप हमारे साथ चंडीगढ़ में मनाएंगे और इस तरह मेरा उनसे रिश्ता जुड़ गया अभी पिछले 10 दिन से वह लोग यही थे कल हम चंडीगढ़ चले जाएंगे फिर 2 महीने बाद वापस आऊंगा। सुरेश जी की आप बीती सुनते हुए सबकी आंखें नम हो गई थी सब चुप बैठे अपने ही रिश्तो का आकलन कर रहे थे और सोच रहे थे कि सुरेश जी सच ही कह रहे हैं कि पैसा आजकल सब रिश्तो पर भारी पड़ गया है क्या बेटा और क्या बेटी लेकिन इस बात को भी नहीं पचा पा रहे थे

कि ऐसी भी बेटियां होती हैं जो मतलब निकल जाने पर बूढ़े मां-बाप को घर से ही निकाल देती हैं तो फिर बहू को ही क्यों दोष दिया जाता है और फिर सुरेश जी उठ खड़े हुए आंखें नम थी पर होठों पर मुस्कुराहट लाते हुए बोले… “चलो आज शाम को सब मिलेंगे चाय पर फिर 2 महीने बाद मिलना होगा।” कहते हुए चलने को हुए कि सुभाष जी आगे बड़े और सुरेश जी के गले लगाते हुए बोले… “आजा यार गले लग जा शाम को फिर दोबारा मिल लेंगे” और सब सुरेश जी के गले लग गए ।

शिप्पी नारंग

1 thought on “विलुप्त होते रिश्ते – शिप्पी नारंग : Moral stories in hindi”

  1. बहुत ही बढ़िया है। वास्तव में रिश्ते ऐसे ही ही गए हैं

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