सूखी रेत का महल… – साधना मिश्रा समिश्रा

सतविंदर घर में घुसी तो देखा कि बैठक में चाईजी और प्राजी दोनों बैठकर गहन विचार-विमर्श कर रहे थे।

अंतिम वाक्य उसने सुना कि सब ठीक है। सबके पास सब कुछ नहीं होता। सब मनचाहा ही नहीं होता। कहीं न कहीं समझौता तो करना ही पड़ता है। यह चाईजी कह रहीं थीं…

उसके घर के अंदर घुसते ही चाईजी ने उसे देख लिया तो कहा लो जी आ गई सतविंदर… अब हामी तो उसने ही भरना है।

सतविंदर की आंखों में उठते प्रश्नचिंह देखा तो बोलीं कि कुछ नहीं बेटा…आराम से बात करते हैं।

सब सामान ले आई…

जाकर थोड़ा फ्रेश हो लो तब तक मैं तुम्हारे लिए चाय बना लाती हूँ।

झोला रसोई के प्लेटफार्म पर रखकर कमरे में जाते हुए सतविंदर के मन में तूफान उठने लगा…

ऐसे किस समझौते की बात चाईजी कर रहीं थीं। घर में उसके लिए उसकी मासीजी ने एक रिश्ता भेजा है यह वह जानती है। उसी के बारे में चाईजी और प्राजी के बीच बात हो रहीं होगी।

अब उसके समझ में आ गया पर किसी समझौते की बात चाईजी कर रहीं हैं वही समझना बाकी रह गया है…


हाथ-मुंह धोकर कमरे में आई तो देखा चाईजी ने एक प्लेट में कुछ बिस्किट और चाय रख कर जा चुकी है।

चाय पीते-पीते सारा अतीत आंखों के आगे साकार होने लगा…

कैसी चहकती चिड़िया थी वह स्कूल कालेज में। रंग थोड़ा दबा हुआ था पर चेहरे की कसी बनावट…बड़े घने लंबे बाल…छरहरा शरीर…स्मार्टनेस से भरपूर व्यक्तित्व। जो भी देखता था एक पल को ठिठक ही जाता था।

उस पर उसकी जानलेवा बिंदास हंसी…

कब इसी हंसी का दीवाना मनजीत हो गया और कब वह उसके दीवानेपन में खो गई। दोनों को पता भी न चला…

तब पता चला जब कालेज की दीवारें फुसफुसाने लगी। जब कैंटीन में सैकड़ों आंखें उन्हें घूरने लगीं। जब गली-मुहल्ले के लोग उसके चाईजी और प्राजी को कहने लगे अपनी कुड़ी का ध्यान रखों। जब उसका छोटा भाई

उसके इधर-उधर जाने देर से आने पर टोकाटाकी करने लगा…

तब उसने बड़ी दृढ़ता से कह दिया कि मैनें मनजीत से शादी करनी है और अभी ही करनी है। सब सकते में आ गए। बहुत समझाया कि कोई बात नहीं। अभी तो कालेज का पहला ही साल है पहले पढ़ाई पूरी कर लो लड़का सरदार ही है। सेटल होकर कुछ कमाने-धमाने लगे फिर उसके माता-पिता से बातचीत करके मनजीत से ही तुम्हारा रिश्ता कर देंगे पर उसने तो जूनून चढ़ा हुआ था…उसने नहीं रुकना था।

उसे मनजीत ने बताया हुआ था कि उसके घरवालों का सपना था कि मनजीत की शादी उन्हें अमेरिका में बसी अमेरिकी बुआ की लड़की से ही करना है ताकि मनजीत भी ग्रीन कार्ड होल्डर हो जाये…

वह घबराई हुई थी उसने एक पल भी रुकना नहीं था। कहीं वह अमेरिकन बाला उसके मनजीते को ले उड़े तो…


फिर एक दिन सतविंदर अपने घर में न मिली पता चला कि सतविंदर और मनजीत ने कोर्ट मैरिज कर ली है और सतविंदर मात्र एक सूटकेस लेकर ससुराल की देहरी पर आन खड़ी हो गई है…

आगे की कहानी मात्र दो महीने की ही है। जबरदस्ती की बहू की अस्वीकार्यता से घर के तूफानों से लड़ने में दोनों नाकाम रहे।

फिर हर दिन सतविंदर की जिद्…मैंनें नहीं रहना इन जालिमों के साथ।

अलग रहना है। लाख समझाया मनजीते ने…ये गुस्सा हैं जालिम नहीं… थोड़ा समझौता करना भी सीख लो।एक दिन मन से तुम्हें अपना लेंगे फिर अभी मैं ही कहाँ सेटल्ड हूं। कहाँ तुम्हें लेकर धक्का खाते फिरूँगा पर बात उसकी समझ न आई और सतविंदर की एक ही दुहाई…नहीं रहना इनके साथ.. नहीं रहना और नतीजे में एक दिन मनजीत ने ही धक्का देकर कहा कि जाओ…अपने घर…रहो उन्हीं के साथ। मुझे तलाक चाहिए। मुझसे यह सब और तुम्हारी एक ही जिद् नहीं निभने वाली…

बहुत सी कहानियां सुन रखीं थीं उसने ऐसे अंजामों की पर उसका दृढ़ विश्वास था कि उसके मनजीते ने उसका साथ कभी नहीं छोड़ना है।

पर हाय…वही कहानी क्यों दोहराई जाती है आखिर प्रेमी का दिल किसी का घर क्यों नहीं बन पाता है।

वह धक्का…बंद दरवाजे का वह सन्नाटा…फेंका हुआ उसका वह सूटकेस…

मन की नीरवता लिए लुटी-पिटी सी वह एक दिन फिर मात्र एक सूटकेस लिए मायके की देहरी पर आन खड़ी हुई…

उसके बाद एक लंबी लड़ाई उसके मायके और ससुराल वालों के बीच कितने लानतों-मलानतों…आरोप-प्रत्यारोप के बीच उसने कब तलाक के कागज पर हस्ताक्षर कर दिया। उसे ही भान नहीं हुआ। अब वह अपनी मर्जी की मालिक नहीं रही थी। अब वह…वह गेंद थी जो दो टीमों के मध्य खेली जा रही थी। अंजाम तय था। हिट हो या कैच…होती वह गेंद ही है।

हर दिन की वह आस…दिल की वह प्यास कि एक दिन आखिर मनजीते बोल उठेगा कि लौट आओ सतविंदर… लौट आओ…

पर अदालत में कभी मनजीत ने उसे आंख भरकर भी नहीं देखा…

वह टूटते गई…बिखरते गई पर मनजीते ने न उसके पास लौटना था न वह लौटा…


बिना नौकरी या व्यवसाय के पति से क्या मुवावजा मिलना था। मिल भी जाये तो उसका क्या करना सो सबके बीच एक बार ही बोली कि प्राजी…मुझे सिर्फ तलाक ही चाहिए और कुछ भी नहीं।

तलाक के एक हप्ते बाद ही खबर मिली कि मनजीत तो अमेरिका उड़ चला अमेरिकन लड़की से ब्याह कर ग्रीन कार्ड होल्डर बनने…

फिर जिंदगी जैसे ठहर गई।

कोई स्पंदन नहीं। पढ़ाई पूरी कर एक प्राइमरी स्कूल में शिक्षिका बन कर रह गई और दस साल बीत गये।

लेकिन स्पंदन तो होना ही था और वह छोटे भाई की शादी के बाद शुरू हो गया। जब भाभी की उससे बर्दाश्त खत्म होने लगी और रोज घर में उसकी वजह से झगड़े आम हो गये।

अब वह चौंत्तीस साल की हो गई है। चाईजी प्राजी की इच्छा थी कि फिर से उसका घर बस जाये। उनका क्या भरोसा कि कब वे रब को प्यारे हों जाएं फिर उनके बाद उसका क्या होगा।

सतविंदर ने गहरी सांस भरी..अब और क्या होना है जो होना था वह तो हो चुका। गीली रेत पर सपनों का महल बनाया था। रेत सूखी और महल गायब।

उनकी विवशता वह अच्छे से समझती थी। अब मन में कोई नये झंडे गाड़ने की भी इच्छा आकांक्षा नहीं बची थी कि वह अपनी जिंदगी की खुदमुख्तार है। कि उसने चाह नहीं है किसी के साथ की। वह अपने भर का कमा लेती हैं।अकेली जिंदगी काट लेगी। अब उसे मालूम है कि यह जिंदगी नहीं आसान…


नहीं… अब अकेलेपन की कल्पना से ही उसका जी भी घबराता है।

थककर उसने हां कर दी तो तत्काल मासीजी ने रिश्ता ही भेज दिया।

अरे सतविंदर यहीं बैठी हुई है…तुझसे कुछ बात करनीं है बेटा…चाईजी हांक लगाते कमरे में आ घुसीं…

बोलो चाईजी… क्या बात करनी है…सतविंदर ने कहा…

बेटा…तू तो जानती है न कि तेरी मासी ने तेरे लिए चंडीगढ़ से रिश्ता भेजा है लेकिन बात यह है कि वह लड़का मिलिट्री से रिटायर्ड होकर बैंक में सिक्योरिटी गार्ड लग गया है।अड़तालीस साल है। अपना घर-द्वार सब है पर बेटा…कहते-कहते चाईजी की आवाज धीमी हो गई…

पर क्या चाईजी…

बेटा…वह भी तलाकशुदा है। वह तो कोई बात नहीं पर पहली पत्नी से दो जवान बच्चे भी हैं जो आते-जाते रहतें हैं…

अब तू बोल…

बोलना क्या है चाईजी।

अपनी शर्त तो मैं कब की हार चुकी।प्यार हार चुकी। साथ हार चुकी। आस हार चुकी। अब राह तो समझौते वाली ही चुनना है तो बोलना-सोचना सब व्यर्थ है…


आप तो हां ही कर दो।

निभा ले जाना है..निभा ले जाऊंगी…

चाईजी सहम उठीं।

इतनी ठंडक…कोई जिज्ञासा…कोई चाव नहीं…

ना बेटा…सोच-समझकर जवाब दे।

हमें कोई जल्दी नहीं बाकी तो सब ठीक है लेकिन बच्चे… निभाना मुश्किल होगा।

ना चाईजी…खोट तो मुझमें भी है।

अब एक बार निभाकर भी देखना है आप हां कर दो।

चाईजी के जाते ही सतविंदर कटे पेड़ की तरह पलंग पर ढ़ह गई…

तब क्यों नहीं निभा। क्यों नहीं निभा पाई। मनजीते ने तो रोज-रोज कहा था।

कुछ दिन निभा लो सतविंदर…सब ठीक हो जायेगा। तब उसे हर बात की जल्दी थी। क्यों…?


अब तो एकमात्र राह बची है समझौते की।

तब कर लिया होता तो आज न करना होता…

अब तो चलना ही है। चलना ही होगा…

काश…मनजीत…कहीं तो मैंने थोड़ा सब्र कर लिया होता तो यह कहानी ऐसी तो न बनती…!!

अब उसने मालूम है कि जिंदगी मनमर्जियों से नहीं समझौतों से आगे बढ़ती है। क्यों कच्ची उमर यह नहीं समझती कि नई पंगडंडियां बनाना इतना भी आसान नहीं। किसी के दिल का भरोसा नहीं कि कब बदल जाये।

वह तो मनजीत को न भूला पाई पर आज उसे यह विश्वास है कि मनजीत ने कभी उसे याद भी नहीं रखा होगा।

उसके बनाये रेत के महल का नाम निशान भी नहीं बचा होगा।

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