पहली ड्युटि- पुरुषोत्तम Moral Stories in Hindi

हम सबको पता है कि भारत के बाकी सभी पर्वों की तरह चुनाव का पर्व भी अहम होता है। लोकतंत्र और चुनाव दोनों एक दूसरे के पर्याय हैं। इसलिए एक लोकतांत्रिक देश में हर दूसरे-तीसरे साल इस पर्व से सामना होता ही है और इसमें शामिल भी होना पड़ता है। चुनावी लोकतंत्र में एक महत्वपूर्ण कड़ी होते हैं सरकारी कर्मचारी जिसे चुनावी परिचर्चा और बहसबाजी में कोई स्थान नहीं दिया जाता है। कभी-कभी चुनाव कराने में सरकारी कर्मियों को जमीन पर किस चुनौतियों से गुजरना पड़ सकता है, उसका एक अनुभव मेरे जेहन में अब भी चस्पां है। 

मुझे भागलपुर पोस्टिंग के दौरान पहली बार चुनाव ड्युटि मिली थी। मुझे  भागलपुर के पिरपैंती विधानसभा क्षेत्र में साहाबाद- सलेमपुर में चार बूथों के लिए मजिस्ट्रेट की ड्युटि दी गई थी। तीन चरणों के ट्रेनिंग के बाद जब पार्टी मिलान का दिन था तो जिलाधिकारी और पुलिस कप्तान दोनों ने चुनाव में प्रति नियुक्त सरकारी कर्मियों को संबोधित किया था। जरूरी दिशानिर्देश देने के बाद जो बात उन्होंने कहीं उसका लब्बोलुबाब यही था कि सारे नियम-कायदों और प्रशासन पर भरोसे से ज्यादा जो फिल्ड में काम आनी है वह है हमारा विवेक। उस घड़ी हमें लगा कि वरिष्ठ अधिकारियों ने जो अंत में कहा था वही उस महीने-डेढ़ महीने की प्रशिक्षण कही जाने वाली कवायद का निचोड़ था। 

चुनाव के दिन से ठीक पहले मैं बाकी कर्मियों की तरह ईवीएम वितरण केन्द्र पर पहुँचा जहाँ से मतदान अधिकारियों का दल, ईवीएम और जरूरी लाॅजिस्टिक वगैरह लेकर बूथ पर जाना था। विधानसभा का चुनाव था और बड़ा जमावड़ा था। मेरे जिम्मे चार बूथ थे। चारों बूथों का मतदान दल और पुलिस पार्टी को लेकर एक यूनिट बना दी गई थी। मैंने गेट पास और तेल का कूपन लिया और वाहन कोषांग के लिए निकल पड़ा। उस बार के लोकसभा चुनाव में पहली बार यह व्यवस्था की गई थी कि कोई भी यूनिट को ट्रैक्टर नहीं दिया जा रहा था, नहीं तो नब्बे के दशक तक टैक्ट्रर या ट्रक या खटारा बस जिसके किस्मत में जो रहता, मिलता था। लेकिन संयोग के हिसाब से हमारी किस्मत उस दिन उतनी अच्छी नहीं थी क्योंकि हमें जो जीप  मिली थी वह अत्यधिक पुरानी और जर्जर थी। लेकिन वहाँ यह सब बोलने-कहने का कोई मतलब नहीं बनता था। हमारी टीम ने अपने आपको उसी गाड़ी में सवार किया और गाड़ी दल-बल सहित चल पड़ी। 

हम लोग कोई सलेमपुर बूथ से कोई दस-बारह किलोमीटर दूर रहे होंगे। उस बियाबान जगह पर जो सड़क थी वह निर्माणाधीन थी। जगह-जगह पर उसमें केवल अर्थफीलिंग के लिए मिट्टी के टीलों को खड़ा करके छोड़ दिया गया था। कोई सत्रह अठारह साल पहले की बात रही होगी। उसमें गाड़ी बमुश्किल दो या तीन गीयर पर धुल का गुबार उड़ाते हुए चल रही थी। गाड़ी दो-तीन किलोमीटर चलने तक कई बार रुकी और चली। लेकिन आखिरी बार जो रुकी तो फिर टस-से-मस न हुई। और करेला चढ़ा नीम का मुहावरा हम लोगों के सामने चरितार्थ हो रहा था। मैं नया-नया था और इसलिए अपने बुकलेट का इस्तेमाल करने में देरी नहीं की। पहले जिला कंट्रोल रूम और उसके बाद कहलगांव बीडीओ को फोन किया। उन लोगों ने आश्वासन दिया कि तत्काल वैकल्पिक व्यवस्था भेजते हैं। जहाँ गाड़ी खराब हुई वह एकदम वीरान जगह था। दोनों तरफ जंगल-झाड़ियाँ। अगले दो-ढाई घंटे तक कोई गाड़ी क्या कोई एक आदमी भी उस रास्ते में नजर नहीं आया। हममें से ही कोई कह रहा था कि ये जगह नक्सल प्रभावित है और ज्यादा देर तक वहाँ रुकना सही नहीं है। पुलिस टीम सभी को उकसा रही थी कि देर तक अगर कुछ नहीं आया तो यहाँ क्या करेंगे, आगे की दूरी के लिए पैदल ही चले जाएंगे। पैदल जाने का नाम लेते ही मेरी नजर सबसे पहले उस जीप ड्राइवर पर पड़ी कि हम लोग तो चले जाएंगे लेकिन ये ड्राइवर इस बियाबान में अकेले क्या करेगा। हम लोगों ने पैदल जाने का विचार त्याग दिया। लेकिन सांझ ढलते जा रही थी। 

तत्काल के आश्वासन के तीन घंटे बाद नीले रंग की सोनालिका ट्रैक्टर हम लोगों के तरफ आते दिखी और मन में कौतूहल हुआ। वह ट्रैक्टर हमारे लिए ही था। जब हम लोग अपने क्लस्टर बूथ पर पहुँचे तब अंधेरा पूरी तरह घिर चुका था। बाकी के मतदान दल को भी उनके बूथ पर पहुँचा दिया गया।

क्लस्टर बूथ एक पुराने स्कूल भवन को बनाया गया था। उसकी छत की ढलाई कहीं-कहीं उखड़ी हुई थी। स्कूल से ही सटे एक आम का पेड़ भी था और एक चापा कल भी कैंपस में लगा हुआ था। गरमी के दिन थे पर शाम सुहानी हो चली थी। लेकिन अंदर में उमस था। रात में तय हुआ कि अंदर ही सोया जाये कारण की बाहर जीव-जंतु का भय हो सकता था। फर्श पर प्लाटिक और चादर बिछा हैंडबैग को तकिया बना सो गया। अभी दो घंटे ही बीते होंगे कि लगा शरीर पर कुछ लगातार चल रहा है, कुछ चुभन महसूस हो रही थी। मैं साथ टार्च लाया था जलाकर देखा तो पूरे कमरे में लाल चिंटीयां रेंगती हुई नजर आ रही थी। ये तो गरमी के दिन के आम के पेड़ वाली लाल चिंटीयां थी। समझ गया कि उसमें सोना मुश्किल है। कमरे में ही नीले पेंट में रंगी लकड़ी की एक कुरसी थी, उसपर बैठकर पैर फैला दिये और सुस्ताने को आँखें बंद कर लीं। 

तड़के चार बज रहे होंगे कि मेरा फोन बजने लगा। एक बूथ के प्रीजाइडिंग आफिसर का फोन था। उसकी आवाज में परेशानी झलक रही थी। मेरे कुछ बोलने से पहले वह कहने लगे कि वहाँ का ईवीएम काम नहीं कर रहा है। थोड़ी देर के लिए मैं स्तब्ध रहा कि अब ये क्या बला आ गई। लेकिन हाथ-पर-हाथ धरे रखने से क्या होने वाला था। मैंने फिर उपर फोन किया तो जवाब आई कि नजदीकी अनुमंडल में रिजर्व ईवीएम मिलेगा; त्वरित कार्रवाई हो। नजदीकी अनुमंडल मतलब पिछे कहलगाँव उसी कच्चे और ऊबड़ खाबड़ रास्ते से पंद्रह किलोमीटर आना और जाना, सवारी वही सोनालिका ट्रैक्टर। लेकिन उपाय क्या था चुनाव का मामला था। कूदते-फांदते जब हम वहाँ पहुँचे तो वहाँ घुप्प सन्नाटा पसरा था, एक परिंदा भी पर नहीं मार रहा था। मैं लगातार फोन करते रहा तब एक कर्मी अस्त-व्यस्त अवस्था में पहुँचा और खराब यूनिट को बदलकर दूसरा दिया। 

माॅक पोल के बाद वोटिंग शुरू हुई और मैं एक जागरूक मजिस्ट्रेट की तरह हर दो-दो घंटे में सभी बुथ पर जाकर मतदान का जायजा लेता रहा और आँकड़े दर्ज करता रहा। लेकिन मेरे चार बूथ में से एक बूथ में कोई मतदान दर्ज नहीं हो रहा था। एकाध बार लगा कि सामान्य है या छोटा बूथ है, लोग-बाग बाद में आकर वोट करेंगे। लेकिन बात वह नहीं थी। बात दरअसल यह थी कि उस कस्बे के लोग मतदान का बहिष्कार कर रहे थे। कारण यह था कि उन लोगों की लगातार मांगों के बावजूद भी वहाँ के लिए सड़क नहीं दी जा रही थी। परिणाम यह था कि एक भी मतदाता बूथ के आस-पास फटक भी नहीं रहा था। मतदाता वोट का बहिष्कार करे तो मतदान दल कर ही क्या सकता है। सब हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहे। उस बूथ पर आने के दो रास्ते थे और दोनों रास्तों पर उस गाँव के ही युवकों की टोली डेरा जमाए हुए थी। यह टोली बूथ पर जाने वाले किसी वोटर को रोकने के लिए थी। दोपहर के बाद मैं जब उस बूथ पर पहुँचा तो भी युवकों की टोली वैसे ही गाँव के वोटरों का रास्ता रोकने के लिए डटी हुई थी। लेकिन यह टोली इस बार थोड़ी आराम के मूड में थी और उनमें आपस में हंसी-मजाक चल रहा था। तभी क्या देखता हूँ कि एक बूढ़ी महिला झटकते हुए बूथ की ओर चली आ रही है। चूंकि वोटरों का रास्ता रोकने वाले लड़कों की टोली आपस में तफरी करने में व्यस्त थी, तो  किसी ने उस महिला पर ध्यान नहीं दिया या फिर उसमें से किसी ने सोचा नहीं कि वह उसे पार कर बूथ की ओर चली जाएगी। वह महिला उस जबिरया चेक-नाका को आराम से पार कर गई और बूथ पर पहुँच गई। सुस्ताते हुए मतदान कर्मी थोड़ी देर को तो सोच में पड़ गए, फिर तुरंत हरकत में आए और बूथ पर एक मतदान रजिस्टर हो गया। यह उस बूथ पर पड़नेवाला एकमात्र मतदान ही रहा।  

इसके उलट एक दूसरा बूथ भी था और वहाँ लोगों की कतारें कम होने का नाम नहीं ले रही थी। इसमें बुरकानसी और कुरते-टोपी धारी वोटर बड़ी संख्या में थे। देश के अल्पसंख्यक समुदाय अपने मताधिकार का उपयोग करने के प्रति कितने जागरूक हैं; इस वोटिंग लाइन में मौजूद उनकी संख्या बता रही थी। देश के सभी मतदाताओं को लोकतंत्र के महा पर्व में शामिल होने के लिए यही जज्बा दिखाना चाहिए। 

इस बूथ पर सबसे देर तक मतदान चला और वोटिंग समाप्त होने पर इवीएम मशीन को ऑफ कर उसके बक्सों में सीलबंद कर दिया गया। मैं आप सबको बताता चलूं कि ईवीएम मशीन की सीलींग कई स्तर पर होती है और उसमें मतदान अधिकारियों सहित सभी निर्वाचन अभिकर्ताओं का हस्ताक्षर रहता है, जिसे मतगणना के समय दिखाकर खोला जाता है। मतदान के बाद इन मुर्दा और सील बंद मशीनों को किस प्रकार हैक किया जा सकता है, यह इसपर उंगली उठाने वालों को सोचना चाहिए। खासकर तब जब मतदान के बाद इन ईवीएम मशीनों को स्ट्रांग रूम में सभी अभ्यर्थियों के एजेंटों, सीसीटीवी कैमरों और पैरा मिलीट्री फोर्स की कड़ी निगरानी में रखा जाता है।  कोई किसी का समर्थन करे पर ईवीएम पर संशय करना देश के लाखों सरकारी, अर्ध-सरकारी कर्मियों की मेहनत और निष्ठा पर संशय करना भी है। 

शाम होने को थी और अबतक मेरे सभी बूथों के मतदान अधिकारी और पुलिस बल ट्रैक्टर में सवार हुए। अभी हमलोग हमारे क्लस्टर बूथ से बाहर निकलते कि गेट पर लोकल थाना का पुलिस जीप आते दिखायी दिया। यह काफिला मिर्जा चौकी पुलिस स्टेशन का था और दारोगा ने मुझसे आकर रौबदार आवाज में कहा कि आपलोगों के लौटने का इंतजाम ट्रेन से किया गया है इसलिए आपलोग सीधा स्टेशन चले जाईए। मिर्जा चौकी स्टेशन मेरे क्लस्टर बूथ के लगभग पास ही था। मैंने आपत्ती की कि हमें रूट चार्ट छोड़ने का आदेश नहीं है। क्या वे इसके लिए मुझे लिखित आदेश दे सकते हैं। इसपर वह लगभग क्रोधित होते हुए कहा कि ‘वह कोई लिखित आदेश नहीं देंगे और उसे जो कहना है कह दिया। बाकी मुझे जिधर से जाना है जाऊँ।’ लेकिन  मैं भी थोड़ी   देर के लिए सोचने लगा कि नक्सल प्रभावित कच्चा रास्ता अंधेरे में जोखिम भरा हो सकता है और हो सकता है इसी वजह से रूट में तब्दीली की गई हो। 

दारोगा साहब ने जो बात कही मैंने वह सब सुना पर उसकी बात से में सकुचाया नहीं और सीधा बुकलेट पर दिये एसपी साहब के नंबर पर इस विषय पर फोन कर लिया। एसपी साहब गंगवार साहब थे और उन्होंने मुझसे दस मिनट तक बात की और मुझे संयत से तनाव के बाहर लाने का प्रयास किया। उन्होंने मुझे समझाते हुए कहा कि लोकल दारोगा साहब ने कहा है तो कुछ सोच कर ही कहा होगा। अतः उनके कहे पर चलने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। उसके बाद हमलोग सभी अगली ट्रेन के लिये मिर्जा चौकी स्टेशन पहुँच गये। वहाँ पहुंचकर स्टेशन मास्टर से पता किया तो उन्होंने बताया कि भागलपुर जाने के लिए अगली ट्रेन तीन घंटे बाद है और जो ट्रेन गुजरेगी उसका वहाँ स्टोपेज नहीं है। लेकिन यह भी बताया कि हो सकता हो जिलाधिकारी के अनुरोध पर ट्रेन का स्पेशल स्टोपेज दिया जाये और गाड़ी आने तक हमें उनके केबीन में ही बैठने की इजाजत दे दी। हमलोगों ने अगले तीन घंटे उनके कैबिन में ही गुजारे। और पुरे तीन घंटे के बाद फरक्का एक्सप्रेस डीएम साहब के अनुरोध पर मिर्जा चौकी स्टेशन पर बिना स्टोपेज के रुकवा दी गई। पूरी ट्रेन में खचाखच भीड़ थी और उसमें बहुत पुलिस बल के लोग भी थे जो मतदान ड्युटि खत्म कर लौट रहे थे और अब बेफिक्र लग रहे थे। हमलोगों ने डेढ़ घंटे तक खड़े-खड़े यात्रा की और जब भागलपुर स्टेशन पहुँचे तो रेल इनक्वाॅयरी के माइक से यह एनाउंस कराया जा रहा था कि शहाबाद-सलेमपुर के मतदान दल के लिए एक नंबर प्लेटफार्म के बाहर स्ट्रांग रूम तक ले जाने के लिये बस खड़ी है। हमलोग ट्रेन से आने वाली एकमात्र टीम थे और सबसे अंत में ही सही बक्सा जमा कर मतदान प्रक्रिया सकुशल पूरा करने का संतोष सबके चेहरे पर झलक रहा था।

–पुरुषोत्तम

(यह मेरी स्वरचित और मौलिक रचना है।)

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