सोने की चूड़ियाँ – रश्मि स्थापक

लघुकथा

” सोनल … बस मैं जो दे रही हूँ उसे चुपचाप रख लेना।” कहते हुए रजनी ने अपनी ननद सोनल को सुंदर डिब्बी में रखी चमचमाती हुई अपनी सासू माँ की सबसे फेवरेट सोने की चेन  थमा दी।

” अरे!यह क्या कर रही हैं आप?” कहते हुए सोनल ने पलंग पर लेटी हुई अपनी माँ की तरफ देखा, बीमारी के कारण कृशकाय माँ का चेहरा अपनी बेटी को अपनी सोने की चेन लेते देख किसी बच्चे की तरह खिल गया, पीली- पीली आंखें भी खुशी से चमक उठी।

सोनल ने धीरे से डिबिया को पहले अपने माथे से लगाया और फिर अपने बैग में रख लिया।

सामने तिपाई पर उसके चाय का कप रखा था जो भाभी ने उसे उसके हाथ में थमा दिया। यंत्रवत वह चाय पीती रही। उसने देखा माँ बड़ी संतुष्टि से सो चुकी थी।

” भाभी आपने माँ की वह चेन मुझे दी जिस पर सबसे पहला हक़ आपका था…।”

” नहीं सोनल… अम्माँ की बातों से मुझे लग गया था कि वे यह तुम्हे देना चाहती हैं…  हालांकि वे खुलकर कभी नहीं बोली…. पर मैं यह दोबारा नहीं होने देना चाहती थी।”

“दोबारा…मतलब…?”

” मेरी मम्मी अपनी सोने की दो चूड़ियाँ मुझे देना चाहती थीं… बस एक बार घर में उन्होनें अपनी इच्छा रखी ही थी कि दोनों भाभियों ने घर में ऐसा कोहराम मचाया… कि फिर वे कलह के डर से दोबारा कभी बोली ही नहीं, और इस इच्छा के साथ ही… माँ की असहायता और अपनी खामोशी… अपराध बोध भर देती है।”

उसका गला भर आया था।

“भाभी आप…।”

“तभी सोच लिया था ऐसा मौका यदि मेरे सामने आया तो कभी किसी माँ की अधूरी इच्छा का कारण नहीं बनूँगी।”

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रश्मि स्थापक

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