पहचान  – मीरा परिहार: Moral stories in hindi

Moral stories in hindi  : होटल गोवर्धन में महिला समिति की बैठक बुलाई गयी। आठ मार्च को महिला दिवस मनाने के लिए , जिसमें सभी को अपने-अपने विचार व्यक्त करने थे। शुरुआत संस्था की अध्यक्षा श्रीमती पुरवार ने की … उन्होंने अपनी शुरुआत मनुस्मृति के श्लोक से की…

“हमारे पूर्वजों ने कहा था,   ” यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः । यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।। मनुस्मृति ३/५६ ।।”

“जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं और जहाँ स्त्रियों की पूजा नहीं होती है, उनका सम्मान नहीं होता है वहाँ किये गये समस्त अच्छे कर्म निष्फल हो जाते हैं। “

 

“आज विश्व इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुका है पर संसार में स्त्रियों के प्रति धारणा अच्छी नहीं है । अपराध स्त्री के साथ पुरुष के द्वारा किया जाता है पर छबि स्त्री की धूमिल की जाती है । अपराध कहीं भी हो अपराधी की छवि या पुरुष वर्ग की छवि को कोई नुकसान नहीं होता। हमारे यहाँ अभी ऐसा माहौल ही नहीं बना है । इसका कारण यह है कि सदियों से स्त्रियों को घरेलू कार्यों में संलग्न रखकर उन्हें बाहरी समाज से दूर रखा गया और उन पर मनमाने आचार- विचार थोपे गए जो कि उनकी शक्ति को कम करते थे और वही परिपाटी आज भी चली आ रही है।

स्त्रियों के अपने पिता की संपत्ति में कोई हक ना होना भी इसका एक कारण रहा है । यद्यपि आज कानून में यह अधिकार मिला तो है पर स्त्रियों की शादी पर खर्च होने वाला पैसा इस राह में रोड़ा बन जाता है क्योंकि पिता पक्ष में पुत्रों का यह मानना है कि संपत्ति का कैसा हिस्सा वह तो बहन की शादी में लगा दिया गया है । परिणाम स्वरूप स्त्री की शिक्षा भोजन, स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति सभी दूसरों की सदासयता पर निर्भर होकर रह जाती है और मानसिक रूप से भी कमजोर ,अबला ,पराधीन जैसे अलंकरण उसके हिस्से में आते रहते हैं।”

इसके बाद श्रीमती अग्रवाल ने अपना पक्ष रखते हुए कहा…

   “इन सभी उपमाओं से सुशोभित हमारे समाज में उतार-चढाव होते रहे और स्त्रियों का मान-सम्मान कायम रहा। हमारी परंपराओं और सामाजिक दबाव से आज स्त्रियां  शिक्षित भी  हुई हैं और उनके कदम घर की दहलीज से बाहर आने लगे हैं। आर्थिक ,सामाजिक और बौद्धिक रूप से भी वे समकक्ष आने लगी हैं । ऐसी सोच कि वे पुरुषों को पछाड़ रही हैं , तो पुरुष वर्ग का कुंठित मन आहत होता है और वे उन्हें अपमानित शोषित करने के  उपाय में कसर नहीं छोड़ना चाहते। यह मानसिकता भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में पाई जाती है । विकसित अमेरिका जो कि 239 साल पुराना प्रजातांत्रिक देश होने का दावा करता है।

अभी तक एक भी स्त्री को राष्ट्रपति नहीं बना पाया है, जबकि कम प्रचारित या स्त्री विरोधी कहे जाने वाले विकासशील राष्ट्र  भी महिला प्रधानमंत्री ,राष्ट्रपति देने में अग्रिम पंक्ति में स्थान पा चुके हैं। तुलनात्मक अध्ययन से ज्ञात होता है कि 1966 में भारत में श्रीमती इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बन गई थीं। श्रीलंका में श्रीमती भंडार नायके राष्ट्रपति बनी थीं। 1980 में बेनजीर भुट्टो पाकिस्तान में, इसके बाद बेगम जिया और शेख हसीना ने बांग्लादेश में राष्ट्रपति के रूप में शासन की बागडोर संभाली है। इंग्लैंड में मार्गरेट थैचर प्रधानमंत्री बनीं,वे दस वर्ष तक प्रधानमंत्री पद पर रहीं। जर्मनी में एंजेला मर्केल बनीं, आस्ट्रेलिया को भी महिला मंत्री देने का गौरव प्राप्त हो चुका है।

इसके विपरीत विकसित राष्ट्र कहे जाने वाले अमरीका में सन् 1920 में अमेरिकी महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिल पाया । वहाँ 04जुलाई 1776 से अब तक केवल 31 महिला कैबिनेट मंत्री और 37 राज्यों में गवर्नर बनी हैं। 1906 में पुरुष सदस्यों के मुकाबले में केवल 4.4 महिला सीनेटर बनीं हैं और 31 कैबिनेट मंत्री में से 8 प्रेसीडेंट ओबामा के कार्यकाल के समय में बनी हैं । दूसरी ओर भारत जो कि विकासशील देश कहा जाता है। यहाँ पहली लोकसभा में जहाँ महज 24 महिलाएं थी वहीं 16वीं लोकसभा में 66 महिलाएं चुनकर आयी हैं । उत्तर प्रदेश ,पश्चिम बंगाल, गुजरात, राजस्थान में मुख्यमंत्री पद पर महिलाएं  विराजमान रही हैं। श्रीमती प्रतिभा देवी पाटिल राष्ट्रपति रह चुकी हैं और लोकसभा स्पीकर का पद मीरा कुमार और सुमित्रा महाजन,संभाल चुकी हैं । राज्य सभा स्पीकर पद पर मोहसिना किदवई रह चुकी हैं।”

इसके बाद मिसिज अग्रवाल को बोलने का अवसर मिला। उन्होंने अपने विचार रखे …

” भारत में धीरे-धीरे परिदृश्य बदल रहा है जिसकी आहट शायद कोई सुनना नहीं चाहता है। आज महिलाएं बैंकों, सरकारी कार्यालयों, प्रशासनिक एवं अन्य महत्वपूर्ण पदों पर आनुपातिक रूप से पुरुषों के बराबर लगभग आ ही रही हैं। इसके बावजूद जब अपराधों की बात की जाए तो हम कह सकते हैं कि हमारे देश में हमारी संस्कृति और विरासत को महिलाओं के प्रति होने वाले अपराध शर्मसार करते हैं। जिनमें अजनबियों के साथ-साथ परिचित और परिजन भी यौन हिंसा में शामिल पाए जाते हैं। एक तथ्य यह भी है कि स्त्रियों के साथ ससुराल में भी प्रताड़ना के केस आते हैं। अतः यह माना गया है कि सड़क ससुराल से अधिक सुरक्षित है।”

श्रीमती अग्रवाल ने जब तथ्यात्मक उपलब्धि गिनाते हुए अपनी बात का समापन किया तो उपस्थित सभी महिलाओं ने तालियां बजाकर उनका उत्साह वर्धन किया।

इसके बाद सचिव श्रीमती सुनंदा सहाय जी ने अपना पक्ष रखा…

” बहनो ! आज यह विचार मुख्य होने लगे हैं कि लैंगिक समानता में विश्वास रखने वाले लोगों का दायरा व्यापक हो और इस तरह से माहौल को बनाया जाए कि संकीर्ण मानसिकता वाले लोगों का कार्य में बहिष्कार किया जाए तथा पग-पग पर उन्हें ग्लानि बोध का सामना करवाया जाए। स्त्रियों के प्रति दोगले व्यवहार से और अनैतिक व्यवहार की घटनाओं से समाज में नैतिक गिरावट आती है। अतः हमें समाज में कानून का भय पैदा करना होगा। लोकतांत्रिक व्यवस्था में कानून ही समाज में व्यवस्था कायम करने का साधन है पर कड़वा सच यह भी है कि कानून लागू करने वालों में एक बड़ा हिस्सा वह है जो यह मानता है की महिलाएं ही अपने प्रति होने वाले अत्याचार के लिए जिम्मेदार हैं ‌। अतः ऐसी धारणाओं से अपराधियों के हौसले परवान चढ़ते रहते हैं ।  हमें अपने भय  से मुक्त पानी होगी, सबल बनना होगा, शिक्षित बनना होगा, लड़ना होगा पुरानी मान्यताओं से और अपने ऊपर जमी हुई पुरानी मान्यताओं की बर्फ पिघलानी होगी। दुनिया में हम अकेले नहीं हैं जिसके साथ दोहरे मापदंड अपनाए जाते हैं । पूरे विश्व की महिलाओं की यही स्थिति है ।”

इन्हीं शब्दों के साथ में अब विराम लेती हूँ।

इसके बाद आशा जी ने अपने विचार व्यक्त करने की अनुमति मांगी…. सचिव ने उन्हें दो मिनट में अपनी बात कहने का अवसर दिया…सभी बहनों ने आशा जी का करतल ध्वनि से अनुमोदन किया… उन्होंने एक घटना का जिक्र किया जो कि अखबार में पढ़ी थी…

  ” बहनो ! स्त्रियों के प्रति दोहरे मापदंड सिर्फ अपने देश में ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व में ऐसा ही है। इसीलिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह महिला दिवस चलन में आया है। मैं एक घटना बता कर अवगत कराना चाहती हूँ..”

“अमेरिका में 4 अप्रैल 1928 को जन्मी मिसूरी राज्य में एक स्त्री के संघर्ष की गाथा जो की कवित्री,सामाजिक कार्यकर्ता, गायिका,अभिनेत्री थीं, उनकी कविता पढ़कर हम कह सकते हैं कि सारी दुनिया की स्त्रियों का दर्द एक सा है…” पता है मुझे बच्चों को देखना है , कपड़े फैलाने हैं ,छत को ठीक करना है,दुकान के लिए भोजन तैयार करना है,चिकिन तलना है, बच्चे को बुलाना है, उसे दूध पिलाना है, पोशाक के लिए कपड़ा ठीक करना है,उसे काटना है,इस कुटिया को साफ करना है, फिर बीमार को देखना है,कपास चुननी है,चमक , धूप,धीमी होती बूंदे मेरे माथे को शांत करती हैं।”अखबार से साभार

 

अंत में विशिष्ट अतिथि श्रीमती नागर ने सभी का आभार व्यक्त करते हुए कहा…”इस तरह के आयोजन हमेशा होते रहने चाहिए, इनसे समाज जागरूक होता है और स्त्रियों में अपने प्रति आत्मविश्वास बढ़ता है। आगे से सभी बहने अपने इर्द-गिर्द होने वाली स्त्रियों के प्रति अमानवीयता पर अपना मत व्यक्त करके जागरण का काम भी कर सकती हैं। आखिर हमारी भी कोई पहचान होनी चाहिए कि नहीं ? मुझे देखिए मैंने एक शिक्षिका होने के साथ-साथ वेदों की विद्या का का प्रचार प्रसार करना अपने जीवन का लक्ष्य बनाया है। आज मैं अपने नाम से पहचानी जाती हूँ। “

“अंत में निष्कर्ष यही है कि महिलाएं अपने लिए संघर्षरत रहीं हैं। हमेशा से अपने बर्चस्व के लिए ,वे आगे नहीं बराबरी की सोच चाहती हैं । केरल की प्रथम आइएएस को भी रेगुलर पोस्टिंग पाने के लिए संघर्ष करना पड़ा था। क्यों कि चयन समिति को उनकी क्षमताओं पर विश्वास नहीं था । सिर्फ इसलिए कि वे महिला थीं। यूं तो अंतरिक्ष, सेना, पुलिस,कुली , रिक्शा चालक बनकर वे अपने प्रति मान्यताओं को बदल कर बराबरी के ओहदे पर खुद को स्थापित कर रही हैं, फिर भी अभी बहुत कुछ बदलना है। आज हमारे देश की संसद में ग्यारह केबिनेट मंत्री हैं । वित्त मंत्री लक्ष्मी सीतारमन एक विशेष स्थान पर हैं। अब तो महामहिम द्रोपदी मुर्मू हमारे देश की राष्ट्रपति हैं। बाबजूद इसके जब कोई महिला जलाई जाती है। उसके साथ बलात्कार किया जाता है और उसे मार कर फैंक दिया जाता है तो हमारी गर्दन शर्म से झुक जाती है। यक़ीनन मैं तो डिप्रेशन में चली जाती हूँ। ” संस्था की अध्यक्षा श्रीमती पुरवार जी ने अपनी बात रखी।

” हम देखते हैं कि बदलाव एक तरह से व्यक्तिगत ही हो पाता है और सामूहिक रूप में समाज ज्यों का त्यों चलता है। भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में महिलाओं ने भाग लिया,वे गवर्नर, प्रधानमंत्री बनीं, जज बनीं, एस्ट्रोनॉट बनकर अंतरिक्ष भी नाप आयी हैं, मगर आज इक्कीसवीं सदी में  भी वे घूंघट में वोट डाल रही हैं। हिजाब पहनकर कालेज में आने के लिए संघर्ष कर रही हैं ; क्यों ? क्यों कि वे नज़रें जो कि महिला को देख कर स्वयं पर काबू नहीं रख पाती हैं,उनका निषेध करना है अतः उन नजरों पर तो हिजाब नहीं डाल सकते हैं हम.. उन्हें हमारे समाज ने सिर माथे पर सजा कर रखा है। इसलिए महिलाओं से अपेक्षा की जाती है कि वे बिझूका बन कर रहें और उसके लिए धर्म, संस्कृति, संस्कार जैसे बहुत से भारीभरकम अलंकार हैं हमारे पास… ।” गोष्ठी में धन्यवाद ज्ञापन के लिए सचिव श्रीमती दीपा जी ने अंदर तक झकझोर देने वाली आवाज में अपने जज्बात बयां किए।

इन्हीं शब्दों के साथ मैं अपने वाणी को यहीं विराम देती हूँ और आशा करती हूँ कि आने वाला समय हम सभी के लिए अच्छे और सम्मान जनक बदलाव लेकर अवश्य आएगा। हम रहें न रहें पर हमारी आने वाली संतति का भविष्य उज्जवल होगा। हमारी स्वतंत्र पहचान होगी और हमारे वजूद पर उंगली उठाने से पहले लोग अपने बारे में पहले सोचने पर मजबूर होंगे।”

इसके बाद जलपान और आपसी संवाद के माध्यम से गोष्ठी का समापन हुआ।

मीरा परिहार

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