मुखोटा – शिव कुमारी शुक्ला : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : मैं मधु आज घर में अकेली बैठी थी,ऐसे ही पुरानी बातें सोचने लगी।अतीत चलचित्र की रील की भाॅति ऑखों के सामने से गुजरने लगा।तभी एक पुरानी घटना याद आ गई, जिसे एक कहानी के माध्यम से आप लोगों के साथ साझा 

कर रही हूॅ।

रजनी जी से मेरी जान पहचान एक कॉमन सहेली के द्वारा हुई थी, किसी पारिवारिक कार्यक्रम में। वे कॉलेज व्याख्यता थीं। धीरे धीरे उन्होंने इस  मित्रता को प्रगाढ़ करने की कोशिश की जबकि  मैं बहुत जादा रूची  न लेकर सामान्य थी। कारण शहर सै बाहर मेरी पोस्टिंग  थी ,सो मेरे पास समयाभाव  था। किन्तु वे अपनी दूरदर्शिता के आधार पर सम्बन्ध को जल्दी मजबूती प्रदान करना चाहती थीं। कारण उनका ट्रांसफर  कोटा से हो गया था और  उनकी बेटी यहाँ कोई कोर्स कर रही थी सो उसे यहाँ ही छोड़ना पड़ रहा था, अत:  वे ऐसी स्थायी व्यवस्था चाहती थीं कि जब वे उसे सम्हालने आऐं तो ठहरने आदि की उनकी  वयवस्था हो जाए यह बात तो मेरे बहुत समय बाद समझ आई।

हर एक डेढ माह बाद वे आ जातीं,एक दो दिन रूकतीं,खाने-पीने रहने की सब व्यवस्था मेरे सिर आ जाती।ऐसा कुछ खास परिचय भी न था,मैं कभी-कभी बहुत परेशान हो जाती क्योंकि कामवाले

दिनों में मुझे खुद निकलना पडता था पर मैं कुछ कह नहीं  पाती संकोचवश एवम  शिष्टाचार के नाते।

तभी मेरी बेटी की पोस्टिंग देहरादून हो गई। इत्तफाक की बात है सूचना उनके सामने ही आई। अभी हम सब सोच ही रहे थे कि वहाॅ कैसे व्यवस्था करनी है।होस्टल मिलेगा या नहीं। तभी वे बोलीं मेरी छोटी बहन वहाॅ रहती है,मैं उसको लेटर लिख देती हूं वह आपकी मदद कर देगी।

खैर जब हम वहाॅ पहुंचे और परिचय के साथ वह पत्र दिया तो उनकी रिएक्शन कुछ खास नहीं थी। अनमने भाव से उन्होंने हमारा स्वागत किया। हम समझ तो रहे थे अतः सुबह जल्दी ही होस्टल वगैरह देखने निकल गए हालांकि उन्होंने मदद की और हम बेटी को उनके ही भरोसे छोड़ कर सारी व्यवस्था करके आ गए। हालांकि मेरी बेटी छ. माह बाद ही कोटा वापस आ गई। इसके बाद हमारा उनसे संपर्क कभी-कभी फोन पर होता। धीरे धीरे समय के साथ वह भी कम हो गया।

किन्तु रजनी जी का आना बदस्तूर जारी रहा एक दिन तो हद हो गई जब घर पर कोई नहीं था अकेले मेरे पति ही थे क्योंकि मुझे काम था सो में तीन-चार दिन नहीं आने वाली थी। उनके आते ही मेरे पति ने साफ कह दिया कि वे अकेले ही हैं और मैं नहीं आउगीं, तव भी वे बोली कोई बात नहीं भाईसाहब मैं आपको भी खाना बनाकर खिला दूँगी और खुद भी खा लूंगी आप चिन्ता न करे कहते हुए वे किचन में जाकर चाय बनाने लगी। दो दिन रुकीं भी।

समय चक्र घूमा और उनकी छोटी  बहन  के बच्चों ने कोटा मे कोचिंग में  एडमिशन ले लिया। अब वे हमारे मेहमान थे किन्तु हम लोगों  ने दिल से उनका रचागत किया। कोचिंग  इंस्टीट्यूट  तक जाने आने में अपनी ही गाडी का उपयोग  किया ।घर में ही ठहरे थे तो सारे खानेपीने की व्यवस्था  करी।बेटी के लिए होस्टल  देखा । पी जी तो मेरा भी था किन्तु  लडके रहते थे, सो बेटे के लिए हमारे यहाँ ही कमरा ले लिया। आधे से ज्यादा  उसकी खाने पीने की व्यवस्था  करना अन्य  समस्याओं को सुलझाना हमारी जिम्मेदारी हो गई। हर एक डेढ माह  में  बच्चों से मिलने कभी मम्मी  आती कभी पापा सो उनके ठहरने खाने पीने  की जिम्मेदारी फिर  आ गई  ।इतना  बड़ा कमरा  होते हुए भी वे बेटे के साथ नहीं रहते ।हमारे  

पास ही रहना, खाना, सोना सब करते। मम्मी  तो बेटी को भी बुला लेती और अच्छा अच्छा उनका का  मन पसन्द  नाश्ता हमारी किचन में बनाना शुरू कर देती कोई चीज घर में नहीं होती फौरन कहती भाभीजी फलानी चीज  मंगा दो बच्चों  का नाश्ता बनाना है। बेटी को होस्टल से लेने और छोड़ने   जाओ । 

खैर सब निभाते निभाते एक साल बीत गया। किन्तु जब परिणाम सामने आया बेटा कुछ नहीं कर सका तो यह निर्णय लिया कि मम्मी साथ रहेगीं क्योंकि बच्चा कुछ गलत दिशा की ओर भी जाने लगा था। अब उनके लिए मकान तलाशना, उन्हें शिफ्ट करना। फिर कवायद शुरु हो गई, इस बीच जब तक इन्तजाम न हो तब तक घर पर ही सबकी व्यवस्था करना।

जब मिलते घर आने की बात की जाती। घूमने के लिए आगरा आने को कहा जाता ।ऐसा  लगता मानो  अपने ही सगे सम्बन्धी हैं। 

शायद आज तेईस चौबीस साल हो गए जबसे कोटा से गए एक फोन  तक नहीं किया ,ऐसे गायब हो गए जैसे हवा में कपूर  उड जाता है। कभी मैने फोन भी किया तो नहीं  उठाया। दो-चार  बार प्रयास किया, उत्सुकतावश  बच्चों  के बारे में जानने कि वे कितने सफल हुए। क्या कर रहे हैं। किन्तु नो रिस्पॉन्स ।

अब हमारी समझ में आया कि यह केवल मतलबी रिश्ता था काम निकल जाने तक। दोनो बहने कहाँ गायब हो गईं पता नहीं अब तो, बच्चे भी घर गृहस्थी वाले हो गए होगें। 

 दुनिया में लोग ऐसे भी मतलब पूरा करने के लिए  मतलब का मुखोटा ओढ लेते हैं।

 शिव कुमारी शुक्ला

 9।9।23

 स्व रचित मोलिक अप्रकाशित

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