“वीर जल्दी से तैयार हो जाइए हमें जाना है “शाम की आरती करते हुए ऋतु अपने पति से बोली जो टीवी देख कम रहे थे मोबाइल ज्यादा शायद पत्नि की बात उसके कानों तक पहुंची भी या नहीं .
“अरे ! आप अभी तक यहीं बैठे हैं “और टेबल पर रखा रिमोट उठाकर टीवी बंद कर के बोली ” चलिए अब जल्दी कपड़े बदल कर आइए”.
“उफ्फ… देख रही हो बाहर कितनी ठंड है। घर के अंदर हालत खराब हो रही है।
इस कड़ाके की ठंडी और कोहरे भरी रात में बाहर कौन जाता है “।
“बहुत जरूरी काम है ।अब कोई सवाल नहीं जल्दी उठिए और चलिए”।
“ऐसा कौन सा काम आ गया जो अभी ही करना है। कल दिन में भी तो कर सकती हो “।
“नहीं कल तक इंतज़ार न हो सकेगा । जितना देर करेंगे उतना ठंड बढ़ता जाएगा..शू सटाक रेडी होइए और चलिए”।
वीर मन ही मन बुदबुदाते हुए तैयार होकर बाहर निकल आया। पत्नि पहले से ही गाड़ी में बैठी उसका इंतजार कर रही थी।
“मैडम आ…प (वीर अपनी पत्नि को मैडम और प्यार में कभी कभी आप बोलते थे) कहीं बाहर जा रहीं हैं “?
जवाब की जगह सवाल कर दी “आपको ऐसा क्यूं लगा” ?
“ये…बै..ग देखकर” ।
वो पति को प्यार से मुस्कुरा कर देखी फिर शीशे के बाहर देखने लगी। बाहर काफी ठंड थी । कोहरे और ठंड की वजह से आवाजाही कम थी। कोहरे के कारण बाहर कुछ दिखाई नहीं दे रहा था तो वो आंख फार फार बाहर देखने की कोशिश में लगी थी।
वहीं वीर के मन में न जाने कितने सवाल उमर घुमड़ रहा था आखिर बात क्या है ?और बैग लेकर ये जा कहां रही है? इस बैग में है क्या ? कोहरे में बाहर आंख फार कर किसे तलाश रही है ? जब नहीं रहा गया तो सवाल कर दिया।
“मैडम मेरे बेचैन मन को शांत करना आपका फर्ज है “।
पत्नि प्यार भरी चंचल नैन से उसकी आँखों में अपनी प्रश्न भरी आँखें टीका दी ?
“आप करना क्या चाहती हैं ?और जाना कहां है ? इस बैग में है? क्या कुछ बताएंगी या खामोश रहकर यूं बड़ी बड़ी आंखों से घूरकर मेरी जान लेने का इरादा है “।
“अरे रे रे रोको रोको गाड़ी रोको “।
वीर हड़बड़ा कर ब्रेक मारते ही चींइइइइइं करके कार रुक गई। वीर के कुछ समझने बोलने के पहले ही वो…
कार के रुकते ही दरवाजा खोलकर तेजी से भागी और एक रिक्शे पर ठंड से कांपते बुढ़े को कंबल उढ़ा रही थी।
वहीं पास में ही गोद में छोटी बच्ची की कलेजे से सटाए एक महिला पतली और फटी हुई चादर ढांके जमीन पर ठिठुरी बैठी थी ।
उसको भी कंबल उढ़ाई और बच्ची को एक स्वेटर देकर “बोली पहना दो”।
दौड़ती आई और बोली “अब सीधा गंगा घाट किनारे वाले मंदिर चलो वहां बहुत सारे गरीब होंगे “।
वीर निःशब्द एक आज्ञाकारी बालक की तरह उसके कहेनुसार चलता जा रहा था।
वीर मन ही मन सोच रहा था कितनी दया भावना है इसके दिल में इतनी सारी तैयारियां कर ली और मुझे बताया तक नहीं शायद इसलिए कि कहीं मैं मना न कर दूं ।
“वैसे स्वेटर ,कंबल, चादर देकर तुमने ये सही किया ऋतु ”
“हमलोग कितने सारे कपड़े पहनकर रजाई कंबल में दुबके हिटर जलाए कमरे को गरम करके रहते हैं । इनके बारे में कभी सोचा ही नहीं की ये बेचारे बाहर खुले में बच्चों के साथ इस जानलेवा ठंड में कैसे रहते हैं”।
“वैसे ये शानदार ख़ूबसूरत आइडिया तुम्हें आया कहां से” ?
“हूं…. कल मैं जब दूध लाने जा रही थी , तो उस बुढ़िया को ठंड से कांपती अपनी बेटी को देख कर आसमान की ओर देखकर करुण स्वर से कह रही थी”।
हे प्रभु अब कभी किसी को गरीब बना कर धरती पर मत भेजो।
“वीर हमारे पास जो भी है सब ईश्वर का दिया हुआ है न , हम इंसान भी तो उनके ही बनाए हुए है।
ईश्वर की प्रेरणा से हमने जो कमाया है उस पर इनका भी थोड़ा तो अधिकार बनता है न।
और फिर कितने सारे कपड़े ऐसे हैं जिन्हें हम इस्तेमाल नहीं करते जरुरत नहीं पड़ती , फिर भी हम खरीदकर कर जमा कर लेते हैं “।
आज इनकी जरूरतों को पूरा कर उनकी आंखो में जो चमक और खुशी दिखी , वो देखकर मेरे दिल को इतनी खुशी और सुकून मिला है न , जो आज से पहले कभी मुझे महसूस नहीं हुआ था । कहते हुए ऋतु ने वीर के कंधे पर अपना सिर टिका दिया और वीर प्यार से उसके हाथ को चूम लिया।
मौलिक स्वरचित
रीता मिश्रा तिवारी
Very nice poem excellent performance