मसालों की खुशबू – डॉ. पारुल अग्रवाल : Moral stories in hindi

आज सिया बहुत खुश थी क्योंकि आज उसका कई सालों का सपना पूरा होने जा रहा था। उसने बचपन से अपनी माँ का संघर्ष देखा था। आज उसे अपने बीते कल का एक एक पल याद आ रहा था।असल में जब वो सिर्फ़ सात साल की थी तभी उसके पापा एक दुर्घटना में चल बसे थे। तब उसकी मां ने अकेले उसका और उसकी छोटी बहन का लालन पालन किया था।

उसे याद है कैसे पापा के जाने के बाद सब लोगों का व्यवहार उनके लिए बदल गया था। जहाँ दादी के घर में उसकी माँ और उन दोनों बहनों को अपशगुनी बोला गया। पापा के भाईयों ने संपत्ति के लालच में उन्हें पापा की तेहरवी के तुरंत बाद माँ के मायके जाने के लिए बोला गया।

अपना गम भुलाकर अपनी बेटियों के लिए माँ ने दादा दादी के सामने हाथ जोड़कर बोला भी कि ये तो आपके ही मंझले बेटे आकाश की निशानी हैं इनका सोचकर ही इस घर में आसरा दे दीजिये। तब वहां सभी ने दुत्कारते हुए माँ को बोला कि ये तो लड़कियाँ हैं इनसे कौनसा वंश चलना है

अगर इनकी जगह बेटे होते तो अलग बात होती और वैसे भी कल को इन दोनों ने भी तुम्हारी तरह किसी लड़के को अपने जाल में फंसाकर शादी कर ली तो हमारी तो इज़्ज़त पर पूरी तरह दाग़ लग जायेगा। पहले ही आकाश के तुम्हारे जैसी गरीब परिवार की लड़की के साथ शादी करने पर हमारी कम बदनामी नहीं हुई थी।

ये तुम और तुम्हारी बेटियों के खराब गृहों का ही असर है जो हमारा बेटा हम लोगों को छोड़कर चला गया। तुम्हारे कुछ गुण तो तुम्हारी बेटियों में भी आये होंगे। कल को उनकी वजह से कुछ ऊँच नीच हो गई तो हमारे तो परिवार का तो नाम हमेशा के लिए खराब हो जायेगा।

दादा दादी ने भी कहा कि हमारा क्या भरोसा हम आज हैं कल नही,वैसे भी इस महंगाई के ज़माने में दो लड़कियों की लिखाई पढाई से लेकर शादी ब्याह की ज़िम्मेदारी लेना बहुत बड़ी बात है। आकाश के भाईयों को अपने परिवार भी देखने हैं ऐसे में वो तुम्हारी बेटियों का खर्च उठाएंगे या अपने बच्चों का सोचेंगे। अब रिया की माँ उन लोगों की और बातें नहीं सुन सकती थी। उनको अब एक एक पल वहाँ बिताना भारी लग रहा था। 

रिया की माँ ने उसका और उसकी बहन का हाथ थामा और थोड़ा सा जरूरी समान लेकर वहाँ से निकल पड़ी। मायके भी नहीं जा सकती थी क्योंकि वहाँ अब उनके माता पिता भी जीवित नहीं थे। सिर्फ भाई भाभी थे जो दुनियादारी की वजह से आकाश की मृत्यु के पश्चात कुछ आखिरी रस्में निभाने तो आ गए थे पर एक बार भी उन्होंने उन माँ बेटी के पास बैठना उचित ना समझा। वैसे भी रिया की माँ बहुत स्वाभिमानी थी। बेटियों की खातिर उन्होंने अपने ससुराल वालों के सामने थोड़ी विनती कर ली थी वरना किसी के भी सामने हाथ फैलाना उन्हें स्वीकार नहीं था। 

वो निकल पड़ी उस रास्ते पर जिसकी मंज़िल और गलियां उन्हें भी नहीं पता थे। समझ नहीं आ रहा था कैसे चलेगा सब? रिया तो फिर भी थीडा बहुत समझ रही थी पर उसकी बहन काफ़ी छोटी थी। भूख और प्यास से तीनों का बुरा हाल था। ऐसे में रिया की मां को अपनी एक बचपन की दोस्त का ख्याल आता है।

उसको लगता है कि एक बार रिश्तें झूठे पड़ जाएं पर दोस्त हमेशा काम आते हैं। अगर थोड़े दिन का रहने का इंतज़ाम हो जाए तो बाकी वो फिर इसी बीच कुछ काम ढूंढ लेगी। यही सोचकर उसके कदम बखुद उसके घर की तरफ मुड़ गए। माँ की उस दोस्त ने शादी नहीं की थी और अकेले रहती थी।

उस समय मोबाइल हर किसी के पास नहीं था। वो लोग माँ की उन दोस्त के पास पहुँचे तब उन्होंने खुशी खुशी घर में  जगह दी पर साथ साथ ही ये भी कहा कि अभी सिर्फ पंद्रह दिन वो यहाँ हैं फिर उनका ट्रांसफेर दूसरे शहर में हो गया है। माँ ने कहा कि पंद्रह दिन में वो अपने और अपनी बेटियों के खाने और रहने लायक कुछ प्रबंध कर लेंगी।

इस तरह एक नई शुरुआत हुई। रिया की माँ मीरा बहुत ज्यादा नहीं पढ़ पाई थी क्योंकि स्नातक पूरा होते होते पापा और उन्होंने प्रेमविवाह कर लिया था। पापा भी स्नातक पूरा होते ही घर के व्यापार में लग गए थे जिसमें ताऊजी और चाचा ने उनको अलग थलग ही रखा। दादाजी का व्यवहार भी प्रेम विवाह के बाद उनके प्रति काफी बदल गया था। इस तरह से परिवार के साथ भी वो लोग उपेक्षित ही थे। पर पापा और माँ एक दूसरे के पूरक थे। दोनों साथ थे तो ज़िंदगी के ये पल भी आराम से निकल रहे थे। 

पापा के जाने के बाद माँ बिल्कुल अकेली पड़ गयी थी पर उन्होंने हम बहनों की वजह से अपने सारे गम भुला दिये और जुट गई हमारे सुनहरे भविष्य की नींव रखने में। माँ ने अपनेआप से वादा किया था कि वो एक सप्ताह के अंदर कुछ ना कुछ काम ढूंढ ही लेंगी। उनके लिए कोई काम बड़ा या छोटा नहीं था।

खाना वो बहुत अच्छा बनाती थी। उनके बनाये खाने की हर कोई तारीफ़ करता था। माँ की सहेली ने भी उनको यही सलाह दी पर अभी अपना खुद का काम शुरू करने के लिये आवश्यक धनराशि नहीं थी। माँ सुबह काम खोजने के लिए निकली पर अभी तक कुछ भी आशा के अनुरूप नहीं हुआ था।

वो पास के एक मन्दिर की पेड़ की छाँव में बैठी ही थी तभी देखा मन्दिर की रसोई में खाना बनाने वाले मुख्य रसोइये के घर में कुछ काम आ जाने से वो अभी तक नहीं पहुँचा था।वह बड़ा मन्दिर,जो कि किसी ट्रस्ट द्वारा संचालित था और उस दिन कोई विशेष दिन था जिस पर परिसर में भंडारा आयोजित किया जाना था। पुजारी जी को परेशान देखकर रिया की माँ ने खाना बनाने की पेशकश की। पहले तो पुजारी जी थोड़ा सोच में पड़ गए फिर कोई चारा ना देखकर रिया की माँ को खाना बनाने के लिये बोल दिया। बस उस दिन ज़िंदगी ने करवट ली। 

माँ के हाथ के जादू ने सबका दिल जीत लिया। उस दिन के खाने के स्वाद से ऐसा लगा मानो स्वयं माँ अन्नपूर्णना सबकी भूख मिटाने अवतरित हो गयी हों। रिया की माँ को मन्दिर की रसोई में खाना बनाने का काम मिल गया। माँ को दिन शाम के भोग और विशेष अवसर पर खाना बनाना था। माँ को वेतन के साथ साथ अपने परिवार के सदस्य के लिए भी खाना ले जाने की अनुमति थी। मन्दिर के परिसर में ही रहने की व्यवस्था भी हो गयी थी।

इस तरह जीवन की गाड़ी कुछ हद तक पटरी पर आ गयी थी। माँ ने अगले दो दिनों में दोनों बहनों का पास के सरकारी स्कूल में एडमिशन करवा दिया।अभी की माँ की नौकरी से इतना खर्चा तो खींचतान से इतना खर्चा तो निकल सकता था पर अभी भी बहुत कुछ था जो माँ अपनी बेटियों को देना चाहती थी। माँ ने किसी तरह थोड़ा पैसा हर महीने बचाकर एक खाने का ठेला जहाँ बहुत सारी कंप्यूटर कंपनी के ऑफिस थे वहां लगाना शुरू किया।

वहां वो सुबह के समय रिया और उसकी बहन को स्कूल भेजने के बाद चाय,मैगी और पराठे बनाकर बेचने लगी। दिन के भोग बनाने के पहले वो मन्दिर पहुँच जाती और शाम को संध्या आरती के बाद का भोग बनाने के बाद फ़िर से रात को ठेला लगाती। उसके बनाये पराठे लोगों को पसंद आ रहे थे।

माँ के हाथ के खाने में लोगों को घर का स्वाद आने लगा। अकेली माँ ने अपने बलबूते पर बेटियों के आने वाले कल की स्वर्णिम बुनियाद रख दी थी। माँ ने उनके लिए सुविधा जुटाने के लिए दिन रात एक कर दिये थे। माँ का काम चल निकला था। अब ठेले ने छोटे से ढाबे का रूप ले लिया था। अब रिया और उसकी बहन की पढाई और बाकी ख़र्चे आराम से पूर्ण होने लगे थे। 

माँ के हाथ का स्वाद और स्वादिष्ट खाना बनाने के गुर रिया में भी आये थे। अच्छे संस्थान से होटल प्रबन्धन का कोर्स करके एक बड़े पांच सितारा होटल् में शानदार वेतन पर उसको नौकरी मिल गयी थी।अब रिया का सपना था कि अब वो अपनी माँ के नाम पर बड़ा सा रेस्टोरेंट खोले, जहाँ की सभी खाने की वस्तुओं में माँ के स्वाद की ही झलक मिले।

नौकरी के दो साल के अंदर उसने अपनी माँ के नाम से होटल खोलने के लिए जगह देखनी शुरू कर दी। लोन के पारित होते ही उसने माया खाना खज़ाना के नाम से होटल की नींव रखी। अगले एक साल में होटल तैयार हो गया। इस बीच छोटी बहन भी इवेंट आयोजक के पद पर कार्य करने लगी। माँ के नाम से होटल रिया का माँ के लिए सरप्राइज़ था। जिसको रिया माँ के जन्मदिवस पर उन्हीं के हाथ से उद्घाटन करके उपहार में देना चाहती थी। उस विशेष दिन के लिए साज सज्जा की सारी ज़िम्मेदारी रिया की छोटी बहन ने ले ली। 

रिया अपने दादा दादी का पक्षपाती व्यवहार और साथ ही साथ ताऊ और चाचा द्वारा पापा का हिस्सा हड़पने के लिए माँ को जली कटी सुनाकर घर छोड़ने पर मज़बूर करना नहीँ भूली थी। वो उन लोगों को भी निमंत्रण देने गई। वो लोग उसको पहचाने नहीं थे तब रिया ने कहा कि मैं वही हूँ जिसके माता पिता को आपने प्रेम विवाह करने के बाद अपने से अलग-थलग कर दिया था और उसे और उसकी छोटी बहन को लड़की जात बोलकर अपनाने से भी मना कर दिया था।

रिया ने ये भी कहा ध्यान से देख लीजिये,मैं किसी लड़के के साथ भागी नहीं बल्कि आप सभी को आमंत्रित करने आई हूँ। आना जरूर क्योंकि सारा खाना का स्वाद वही मिलेगा जो आप लोग मेरी माँ से उसको मुफ़्त की नौकरानी समझकर बनवाकर खाते थे। सबकी नज़रें झुकी हुई थी। रिया के सामने बोलने की किसी की हिम्मत नहीं थी।

घर आकर रिया बहुत सुकून में थी। अभी वो ये सोच ही रही थी कि तभी उसके मोबाइल की घंटी बजी। मोबाइल की घंटी के बाद वो अपने आज में वापिस आई। फोन उसकी छोटी बहन का था जो कह रही थी कि होटल के उद्घाटन और माँ के जन्मदिवस की सारी तैयारी हो गई है और साथ ही साथ उसका एक दोस्त जो मीडिया में है वो कल का सारा कार्यक्रम रिकॉर्ड करेगा।

रात के बारह बजते ही रिया और उसकी छोटी बहन ने माँ को जन्मदिन की बधाई दी और कहा कल आपको हमारे साथ चलना है। पहले तो माँ ने कहा कि उसको मन्दिर भी तो जाना है क्योंकि अब भले ही वो वहाँ नौकरी नहीं करती थी पर भगवान के भोग के खाने का निरीक्षण करने जरूर जाती थी। तब रिया और उसकी बहन ने कहा कि सिर्फ कल के लिए उन्होंने भगवान से अनुमति ले ली है। अब उन्हें अपनी बेटियों के साथ ही चलना होगा। 

अगले दिन जब रिया और उसकी बहन माँ को होटल वाली जगह लेकर पहुँचे तब वहाँ माया खाना खज़ाना का बड़ा सा बोर्ड और चारो तरफ अपनी ही तस्वीर लगी देखकर वो आश्चर्यचकित हो गई। वो कुछ सोचती उससे पहले ही रिया ने माइक पर घोषणा की मेरी माँ के नाम से खुला ये होटल उनके मसालों की खुशबू दूर-दूर तक पहुॅचायेगा।

माँ की आँखों में खुशी के आँसू आ गए। माँ ने खुशी-खुशी उद्घाटन किया और दोनों बेटियों को गले से लगा लिया। आज इस कार्यक्रम में रिया के पापा के परिवार के लोग भी आए थे।  वो रिया की माँ से मिले तब उन्होंने सिर्फ यही कहा कि आप लोग आए अच्छा लगा पर मैं अब उन संबंधों को पीछे ही छोड़ आई हूँ।

अब सब कुछ पहले जैसा नहीं हो सकता। मैं तो अपने मसाले की खुशबू अपने परिवार तक ही रखना चाहती थी पर आप लोग ही उसका मान नहीं रख पाए। वैसे भी एक औरत सब झेल सकती है पर अपनी संतान के प्रति लांछन नहीं सहन कर सकती। आज रिया ने माँ को उनका खोया सम्मान वापिस लौटा दिया था। अगले दिन के समाचार पत्र में मीरा खाना खज़ाना के ही चर्चे थे। 

दोस्तों कैसी लगी मेरी कहानी? ज़िंदगी कभी भी मोड़ ले सकती है बस अपने हुनर पर भरोसा और धैर्य रखना पड़ता है। 

डॉ. पारुल अग्रवाल, 

नोएडा

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