व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा में सबको पीछे छोड़कर सफलता के उच्चतम शिखर पर जा बैठने का स्वप्न इतना सम्मोहक होता है कि कई बार महत्वाकांक्षी मानव को उस लक्ष्य के सिवाय कुछ भी दिखाई नहीं देता। कदाचित यह लक्ष्य किसी ‘मृगमरीचिका’ के समान होता है, समीप पहुँचते ही और दूर दिखने लगता है।
मृगमरीचिका! …मरुस्थल में प्यास से व्याकुल हिरण को थोड़ी ही दूर पर जल से लबालब जलाशय दिखाई देता है किन्तु निकट पहुँचते ही वह कुछ और दूर चमकने लगता है। उस भोले जीव को पता ही नहीं होता कि पानी तो है ही नहीं, केवल आँखों का भ्रम मात्र है। प्यासा ही मर जाता है।
यह महत्वकांक्षा बहुधा कोमल भावनाओं एवं संवेदनाओं से ओतप्रोत लोगों को, जीते-जागते हाड़-माँस के पुतलों को कब यंत्रमानव बना डालता है, उन्हें स्वयं भान ही नहीं होता।
अति-महत्वाकांक्षी जाह्नवी इस साल आने वाले अपने जन्मदिन पर छत्तीस वर्ष की होने वाली थी, मगर उसे और उसके 37-38 वर्षीय पति पुनीत को अभी तक लगता था कि वे अपना परिवार बढ़ाने का निर्णय लेने के लिए पर्याप्त परिपक्व नहीं हैं। दोनों के ही मन-मस्तिष्क में यह बात घर करके बैठी हुई थी कि शिशु का जीवन में आगमन बहुत सारी समस्याओं को साथ लेकर ही होता है। नवजात से जुड़े अनेक उत्तरदायित्व होते हैं, जिन्हें उठाने की न तो उनमें योग्यता है, न ही सामर्थ्य है और न ही समय ही, क्योंकि अपनी-अपनी नौकरियों में सहकर्मियों को पछाड़ कर पदोन्नति के ध्येय के पीछे भागते हुए वे सामान्य दम्पत्ति नहीं रह गये थे, बल्कि किसी रेस में अन्तहीन लक्ष्य का पीछा करने वाले ऐसे घोड़े बन चुके थे, जिन्हें दूर दृष्टिगोचर हो रही विजयरेखा के अतिरिक्त कुछ दिखाई ही नहीं देता।
वैसे तो यह सुशिक्षित, सुदर्शन दम्पत्ति एक प्रतिष्ठित बहुराष्ट्रीय कंपनी में में महत्वपूर्ण और बड़ी जिम्मेदारी वाले पदों पर कार्यरत था, जहाँ बिना विशेष योग्यता, अथक परिश्रम और बिना तीव्र बुद्धि के कोई नहीं पहुँच सकता। और इसके बाद भी वहाँ स्थायी तौर पर टिके रहने के लिए जी-जान से डटे रहने की आवश्यकता थी, अन्यथा गलाकाट स्पर्धा के इस दौर में स्थिति ऐसी थी कि थोड़ा-सा चूके नहीं कि आपको मैदान से बाहर करके कोई दूसरा आपकी जगह ले लेगा।
जीवन में रुपये-पैसे, सुख-संसाधनों की कोई कमी नहीं रही थी। महानगर के एक पॉश एरिया की वीआईपी सोसायटी में 12वें माले पर उनका 3 करोड़ का 4BHK आलीशान फ्लैट था जहाँ ऐशोआराम के सारे साधनों का अम्बार लगा हुआ था। घर की प्रत्येक वस्तु से लेकर उनके रहन-सहन के ढंग से हर घड़ी ऐश्वर्य छलकता रहता था। क़रीबी रिश्तेदार उन्हें हाथों-हाथ लेने को तैयार रहते थे, उल्टे इन दोनों के पास ही किसी के लिए समय नहीं था, अतः सभी से लगभग कटे हुए ही रहते थे।
नाते-सम्बन्धियों की तो छोड़िए, उनके पास तो सप्ताहान्त को छोड़कर एक-दूसरे के लिए भी समय नहीं रहता था। आपस में ठीक से बातचीत भी नहीं कर पाते थे, प्रेम-मनुहार की तो बात ही क्या!
ऐसे ही बँधे-बँधाये एक नीरस ढर्रे पर उन दोनोबका जीवन गतिमान था और आयु की रेत उनकी बन्द मुट्ठी से बिना उनसे पूछे, धीरे-धीरे सरकती जा रही थी कि एकदिन अनायास ही उनके जीवन में एक अप्रत्याशित मोड़ आया, जिसने उनकी पूरी दुनिया उलट कर रख दी, उनकी सोच बदल कर रख दी। कदाचित यह उनके किसी सुकर्मों का ही फल था कि ईश्वर की कृपादृष्टि उन पर आ पड़ी थी।
हुआ यह था कि एक रविवार की सुबह एक किशोरी लड़की सुमन उनके पास काम की तलाश में आयी। वैसे तो उनके पास अलग-अलग कामों के लिए सेवक थे, मगर एक 24 घण्टे वाली स्थायी हाउसहेल्प की आवश्यकता उन्हें लम्बे समय से अनुभव हो रही थी।
इस आशय से उन्होंने मित्रों, सहयोगियों और परिचितों को बार-बार बोल कर रखा हुआ था।
जाह्नवी की एक सखी वैदेही ने सुमन को इसीलिए उनके पास भेजा था कि ख़ुद ही अच्छे से परख कर, सोच समझ कर रख लें चूँकि सुमन वैदेही के परिवार के लिए भी अपरिचित थी और उसके घर काम माँगने ही आयी थी। सुमन की शर्त काम के साथ रहने की जगह देने की भी थी, भले ही वेतन कम दें, जो वैदेही के घर में किसी को स्वीकार्य नहीं था तो उसे जान्ह्वी का ध्यान आ गया था।
जाह्नवी और पुनीत ने सुमन को जब देखा तो वह उन्हें बहुत कम आयु की अवयस्क जान पड़ी, मगर सुमन से यह शंका जाहिर करने पर उसने दृढ़तापूर्वक बताया कि उसने अभी हाल ही में अपने 18 वर्ष की आयु पूरी कर ली है, और वह अवयस्क नहीं है।
दोनों ने सुमन से और भी कई तरह की पूछताछ करने के बाद 3 दिन काम करवा कर देखने की बात कही, जिसे उसने तुरन्त मान लिया और उनसे पूछ कर उसी समय काम में जुट गयी।
घर की साफ-सफाई के लिए विमला और रसोई के बर्तन धोने के लिए प्रमिला आती थी और खाना बनाने के लिए महाराज था, पर चूँकि अभी उनके आने का समय नहीं हुआ था क्योंकि छुट्टी के दिन वे उन्हें देर से बुलाते थे।
कल रात वीकेंड पर उनके 2 मित्र परिवारों ने उनके साथ डिनर किया था, अतः रसोई एकदम अस्त व्यस्त थी, सिंक पर जूठे बर्तनों का ढेर पड़ा हुआ था। सुमन ने वहीं से अपनी शुरुआत की।
उसने फटाफट सारे बर्तन धो डाले, पोंछकर उन्हें यथास्थान जमा भी दिया, फिर पूरे घर को झाड़ू-पोंछा करके आधे-पौने घंटे में एकदम-से चमका डाला।
उसकी सभी कामों में फुर्ती, सफाई और कुशलता देख कर दोनों पति-पत्नी एक दूसरे को हैरानी से ताकते रह गये। उन्हें तो लग रहा था कि ये अबोध बालिका-सी लग रही दुबली-पतली लड़की जूठे बर्तनों के इस पहाड़ को आधा निबटा कर ही भाग खड़ी होगी, क्योंकि प्रमिला जब भी कभी ऐसे बर्तन ज्यादा होते थे, अक्सर बड़बड़ाने लगती थी,
“बाई जी, इस पहाड़ को देखकर मुझे तो चक्कर आ रहे हैं।”
अगले तीन दिनों तक सुमन झुग्गी बस्ती में रहने वाली अपनी दूर के रिश्ते की मौसी के घर से उनके घर काम करने आती रही। पूछताछ में उसने बताया कि उसके माता-पिता बचपन में ही गुज़र गये और वह कभी इस रिश्तेदार तो कभी उस रिश्तेदार के घर खानाबदोशों की तरह दिन गुज़ारते हुए बड़ी हुई है। मौसी बहुत ग़रीब है, मौसा भी निकम्मा है, कितने दिनों तक उन पर बोझ बनी रहूँगी।
अपने स्तर पर उन्होंने सुमन की जितनी भी पूछताछ, जाँच-पड़ताल हो सकती थी, कर डाली और उसके दिये विवरण को विश्वसनीय पाने के बाद कुछ हद तक संतुष्ट होकर उसको अपना सामान लाकर सर्वेन्ट रूम में शिफ्ट हो जाने को कह दिया जिसमें निजी शौचालय के साथ एक कोने में कामचलाऊ रसोई की भी व्यवस्था बनी हुई थी।
कुछ ही दिनों में तीनों के बीच अच्छा आपसी सामंजस्य हो गया। जाह्नवी और पुनीत घर की चिन्ता से मुक्त होकर जहाँ अपने-अपने जॉब में पूरा ध्यान दे पा रहे थे, वहीं सुमन भी इतनी अच्छी लोकेशन के इतने बड़े हवेलीनुमा घर में आराम से रह रही थी और घर के साथ-साथ उन दोनों की भी हर प्रकार से देखभाल कर रही थी। इस दौरान वह हर शनिवार को दोपहर से पहले ही घर के सारे काम निबटा कर उन दोनों की इज़ाज़त लेकर अपनी मौसी के घर चली जाती थी और सोमवार की एकदम सुबह आ जाती थी।
यह जाह्नवी व पुनीत के लिए भी अच्छा ही रहता था कि 2 दिनों के वीकेंड में उन्हें पर्याप्त स्पेस मिल जाता था जिसे वे भरपूर एन्जॉय करते थे। घूमने जाना, बाहर ही खाना खाना और देर रात तक दोस्तों के साथ समय बिताकर वापस लौटना, फिर अगले दिन देर तक सोकर अगले हफ़्ते के लिए दोबारा से फुलचार्ज हो जाना।
एक महीने के बाद जब सप्ताहांत में उन्होंने सुमन को उसकी तनख्वाह दी तो इतने सारे रुपये देख कर पहले तो उसके चेहरे पर ख़ुशियों की चाँदनी खिल उठी, फिर थोड़ी ही देर में न जाने क्या हुआ, वह किसी गहरी सोच में डूब गयी।
उसका चेहरा ताक रहे पति-पत्नी को एकदम से कुछ समझ में नहीं आया। फिर तय रुटीन के अनुसार जब आज उसने मौसी के घर जाने की बात नहीं कही तो दोनों ने ख़ुद से ही इस बारे में पूछ लिया। आज सुमन की प्रतिक्रिया ने उन्हें चौंका दिया। वह सिर झुका कर पाँव के अँगूठे से मार्बल के फर्श को कुरेदने लगी। उसके हावभाव से लग रहा था कि वह कुछ बोलना चाहती है, मगर किसी कारणवश झिझक रही है।
“सुमन, तुम्हें पैसे कम लग रहे हैं या कोई और बात है, जो भी हो खुल कर कह सकती हो!”
आखिरकार जान्ह्वी ने चुप्पी तोड़ते हुए पूछ ही लिया।
“या तुम्हें हम लोगों से कोई प्रॉब्लम हो, किसी भी तरह की… या काम ज्यादा हो जा रहा हो, तो भी बता सकती हो, हमारे घर की सदस्य जैसी हो अब तो तुम..!”
पुनीत ने भी दुविधा भरी दृष्टि से उसे देखते हुए नरम शब्दों में कहा।
“नहीं, नहीं मैडम…सर…ऐसी बात..नहीं है,…मैं तो… मुझे तो…म..मैं कहना चाहती थी..!”
सुमन हकलाते हुए बोली फिर चुप्पी लगा गयी।
दोनों पति-पत्नी समझ गये कि कोई छोटी-मोटी बात नहीं है, अवश्य ही कुछ बड़ा मुद्दा है, जिसे साझा करने का साहस यह लड़की नहीं कर पा रही है।
जान्ह्वी ने प्यार से सुमन का हाथ पकड़ कर सोफे में अपने बाजू बिठाया और बड़े कोमल स्वर में कहा,
“देख सुमन, तेरा तो हम नहीं जानते, पर बीते इस एक महीने में ही हमने तुझे बिल्कुल अपनी मान लिया है। …तूने जैसे हमारे घर को अपना समझ कर संभाला है, वैसे ही इस घर ने तुझे अपना लिया है। …अब तू भी बिना संकोच अपने दिल की बात हमसे बाँट लेगी तो अच्छा रहेगा!”
“भई हम लोग अन्तर्यामी तो कतई नहीं हैं कि किसी के मन की बात पढ़ लें… तुम्हें बोल कर ही बतानी पड़ेगी अपनी समस्या!”
पुनीत ने भी सहज हास्य के साथ माहौल को हल्का करना चाहा।
इतना सुन कर सुमन की हिम्मत जाग गयी थी शायद। और इसके बाद उसने धीरे-धीरे धीमी आवाज़ में जो कुछ बताया, सुनकर दोनों हक्के-बक्के रह गये। अपने कानों सुने पर उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था। ऐसा लग रहा था कि सुमन कोई रहस्यमयी फिल्मी कहानी सुना रही है।
सुमन ने भर आयी आँखों को पोंछते हुए कहा,
“सबसे पहले आप दोनों से माफ़ी माँगना चाहती हूँ! …मजबूरी में ही सही, अपने बोले हुए कुछ झूठ के कारण…मुझे गलत मत समझिएगा! …मैं लाचार थी, बेबस थी …डर रही थी, कि सबकुछ सच-सच बताऊंगी तो यहाँ भी काम नहीं मिलेगा मुझे…मुझे एक मजबूत छत की बहुत जरूरत थी..!”
“तू बिल्कुल मत डर बच्ची, तेरे सर से यह छत कभी नहीं छिनेगी…बिना संकोच हमें बता सबकुछ!”
पुनीत ने विश्वास भरे शब्दों में जब कहा, सुमन किसी धागे की रील की तरह खुलती चली गयी। अपने अतीत को उसने उनके सामने जस का तस परोस दिया।
सुमन वास्तव में अनाथ थी और झुग्गी-बस्तियों में जान पहचान वालों के बीच, कुछ लोगों के रहमोकरम और कुछ नराधमों के शोषण झेलते हुए किसी तरह समझदार हो गयी थी।
कुछ नराधमों ने तब से ही उसका शारीरिक शोषण शुरू कर दिया था जब वह स्त्री-पुरुष सम्बन्धों को समझती भी नहीं थी। तेरह-चौदह वर्ष की उम्र में ही वह एक बच्ची की माँ बन चुकी थी जो अभी ढाई-तीन साल की थी। इतने सारे लोगों ने उसके साथ ज्यादती की थी कि उस निरीह लड़की को यह तक पता नहीं था कि उसकी बच्ची का पिता कौन है। उसे पुरुषों से, दुनिया वालों से, यहाँ तक कि अपने-आप से भी नफ़रत हो चुकी थी और बच्चे के जन्म के बाद उसने मर जाने का निश्चय कर लिया था, मगर पैदा होते ही जब उसने मासूम बेटी के निष्कलंक मुखड़े को देखा तो दो बहुत सबल भावनाएँ उसके मन में उछालें मारने लगी। ममता से उसका आँचल भीग उठा कि इस निर्दोष का तो माँ की गोद और दूध पर पूरा अधिकार है, मैं छीनने वाली कौन? और फिर यह भी कि जो दुर्गति मेरी हुई है अनाथ होने के कारण, भविष्य में इसके साथ दोहरायी जायेगी। इस विचार ने उसे सिहरा दिया और उसने कसकर नन्हीं-सी जान को छाती से लगा लिया। “मेरी बेटी, तू अनाथ बिल्कुल नहीं है, जब तक तेरी माँ जिन्दा है…तेरे लिए किसी भी हद तक जाऊंगी मैं, सारे संसार की ख़ुशियाँ तेरी झोली में भर दूँगी!”
इस निश्चय ने उसे जीने की, संघर्ष करने की नयी वज़ह दे दी थी।
माँ के रूप में अपनी बेटी को ढंग से पालने की चिंता में उसने कई शरीफ और भले लोगों का दरवाजा खटखटाया था, जहाँ वह उनकी नौकरी भी कर सके तथा अपनी और मासूम बेटी टीया का सुरक्षित पालन पोषण भी कर सके। पर वह जहाँ भी काम माँगने जाती थी, दो ही परिणाम उसे मिलते थे। एक तो यह कि अपने आपको कुलीन और सभ्य बताने वाले लोग उसका सच जानते ही उसे दुत्कार कर भगा देते थे।
“यह शरीफों का घर है, तुझ जैसी पाप की गठरी को साथ रखकर अपना धर्म भ्रष्ट कौन करेगा?…फिर क्या ठिकाना तेरा कि तू यहाँ शराफ़त से रहेगी!”
कई लोग कह देते थे, “नहीं बाबा, ऐसे नाबालिग लड़की को काम में रख कर कौन जोख़िम ले, जबरन की कानूनी कार्रवाई में फँसने का डर रहेगा।”
तो कोई कहता था, “क्या पता कभी कुछ लफड़ा खड़ा हो जाये ऐसे परायी लड़की को घर में रखने से…इज्ज़त, मान-मर्यादा सब मिट्टी में मिल जाये!”
सुमन व्यंग्य भरी कड़वी हँसी हँस पड़ी जिससे दर्द ही दर्द छलक रहा था।
“नादान, निरीह बच्ची का शोषण करने में किसी को न तो कानून का डर सताता है, न समाज के लोकलाज का, लेकिन सहारा देने की बात पर बहुत कुछ आड़े आ जाता है!”
दूसरा परिणाम यह होता था कि उसकी मजबूरी का फ़ायदा उठा लेने की सम्भावना देखने वाले लोग सहर्ष उसे नौकरी पर रखने को तैयार हो जाते थे लेकिन शोषण झेल-झेल कर सुमन की छठी इन्द्रिय इतनी तीव्र हो चुकी थी कि पहले दिन ही उनकी कुटिल मंशा भाँप लेती थी और ख़ुद ही काम छोड़कर भाग जाती थी।
“ऐसे ही भटकते-भटकते आप लोगों तक पहुँच सकी हूँ…अब आप लोग ही मेरे और मेरी बेटी के भाग्यविधाता हैं…जैसा ठीक समझें, निर्णय करें। इस बार मैंने एक-एक शब्द सच कहा है, रत्ती भर भी झूठ नहीं!”
सुमन ने अपनी रामकहानी का समापन करते हुए कहा और सिर धरती पर गाड़ कर बैठ गयी, किसी अपराधिनी की तरह। अब वह अपनी क़िस्मत का फैसला सुनने का साहस जुटा रही थी।
सुमन की सारी कहानी सुनकर कौतूहल और अचरज के मारे जाह्नवी और पुनीत की हालत विचित्र हो गयी। वे किंकर्तव्यविमूढ़-से बैठे रह गये। सुमन के बताये अनुसार अनुमान लगाया जा सकता था कि यह अभी 16-17 साल की ही होगी, जन्मतिथि तो बेचारी को पता नहीं लेकिन सारी परिस्थितियाँ उसकी अल्प वयस्कता की ओर ही इंगित कर रही थीं। इतनी कम आयु में कैसे एक बालिका इतना साहस कर सकती है, दृढ़ निश्चय कर सकती है, ऐसे सबल निर्णय ले सकती है? जान्ह्वी और पुनीत के मन-मस्तिष्क में कई भावनाओं के सम्मिलित ज्वार उठ खड़े हुए थे। सोचने-समझने की शक्ति को पाला मार गया था।
फिर थोड़ी देर में जब उनकी चेतना सामान्य हुई, उन्होंने आसरा छिन जाने के भय से थरथर काँप रही सुमन को ढाँढस बँधाया। उसी समय उसे साथ लेकर उस झुग्गी बस्ती में गये जहाँ उसने अपनी नन्हीं-सी बेटी को अपनी मुँहबोली मौसी के पास रख छोड़ना कबूला था। अपनी आँखों से वहाँ का हाल देखा।
सुमन ने इस बार सच में तनिक भी झूठ नहीं बोला था। उसकी नन्हीं बेटी उसकी एक कृशकाय वृद्धा के साथ मैली-कुचैली हालत में बैठी थी। वृद्धा ने उसे खाने के लिए एक अल्युमिनियम के कटोरे में दाल-चावल दिये हुए थे, जिसे बच्ची ख़ुद अपने हाथों से धीरे-धीरे बिना एक दाना गिराये खा रही थी। वहाँ का दृश्य दोनों विस्फारित नेत्रों से देखते रह गये।
पुनीत ने तुरन्त ही कुछ निर्णय किया, जाह्नवी को अकेले में ले जाकर कुछ ज़रूरी बातें कीं, फिर सम्मिलित रूप से फ़ैसला करके दोनों ने सुमन को बच्ची सहित साथ चलने की अनुमति दे दी। वृद्धा भी बेसहारा थीं, उन्होंने उनकी व्यवस्था अपने दोस्तों द्वारा संचालित एक चैरिटेबल वृद्धाश्रम में करवा दी।
छोटी सी लड़की सुमन की दिलेरी, हिम्मत और कर्तव्यपरायणता ने उन दोनों को गम्भीरतापूर्वक सोचने पर विवश कर दिया।
जाह्नवी को अच्छी तरह से समझ में आ गया कि प्रकृति जब किसी को माँ बनाती है तो सन्तान के पालन-पोषण की बुद्धि और सामर्थ्य भी साथ ही दे देती है।
दोनों ने पहले तो सुमन और उसकी बच्ची को कानूनी तौर पर गोद ले लिया, उसके बाद अपने ख़ुद का परिवार बढ़ाने का निश्चय करके उस दिशा में पहला कदम भी बढ़ा दिया, अपनी निजी चिकित्सक डॉक्टर रोहिणी से लम्बी चर्चा के बाद सबकुछ तय करके।
अधिक उम्र के प्रभाव से उत्पन्न हुई कुछ असामान्यताओं के कारण डॉक्टर रोहिणी ने उन्हें आईवीएफ तकनीक का सहारा लेने का सुझाव दिया जिसे दोनों ने मान लिया। पहला प्रयास असफल रहा किन्तु दूसरी बार में जाह्नवी ने गर्भधारण कर लिया। चिकित्सकीय सलाह के अनुसार अब वह पूर्णतः बेड रेस्ट पर थी।
सुमन ने ख़ुद से आगे बढ़कर उसकी, पुनीत की तथा घर के देखभाल की पूरी जिम्मेदारी अपने ऊपर उठा ली।
यूँ तो उनके घर पर अन्य सभी कामों के लिए पर्याप्त नौकर-चाकर थे लेकिन गर्भवती स्त्री वह भी जो विशेष देखभाल पर हो, उसके लिए हर समय एक किसी अपने का होना बहुत जरूरी था। उनके अपने रक्त-सम्बन्धी भी थे, मगर जान्ह्वी और पुनीत जानते थे कि सभी पहले से अपनी-अपनी गृहस्थी की उलझनों में उलझे हुए हैं, कोई भी इतने लम्बे समय के लिए उनके पास नहीं रह सकता, साथ ही हर तरह की सेवा भी हर किसी के बस की बात नहीं है।
कर्तव्यनिष्ठ उस लड़की ने दिन को दिन और रात को रात नहीं समझा इन दिनों में। जिन्होंने उसे उसकी बच्ची सहित अपनाकर सुरक्षित और खुशहाल नयी ज़िंदगी दी थी, उनके प्रति अपने हिस्से का उत्तरदायित्व निभाने में वह रत्ती भर भी कोर-कसर नहीं रखना चाहती थी। सुमन के अनुसार यह एहसान का बदला चुकाना नहीं था बल्कि उसकी ख़ुशनसीबी थी कि उसे फरिश्ते जैसे लोगों की सेवा करने का अवसर मिल सका।
गर्भ के छठे महीने में एक समस्या उठ खड़ी हुई। कुछ विसंगतियों के कारण गर्भवती को खून की कमी हो गयी और पता चला कि उसके दुर्लभ समूह का रक्त ब्लड बैंक में उपलब्ध नहीं है, तब सुमन ने अपना रक्त समूह परीक्षण करवाने की विनती की और बहुत अचम्भे वाली बात हो गयी जब अस्पताल वालों ने बताया, सुमन का ग्रुप मैच हो गया है।
यह बहुत सुखद संयोग था, सुमन और जान्ह्वी के लिए। शायद प्रकृति भी उन्हें रक्त-सम्बन्धों में बाँधना चाहती थी, तभी यह स्थिति उत्पन्न हुई है, सब ने यही कहा।
समय तेजी से व्यतीत हुआ और जान्ह्वी के प्रसव की तिथि आ गयी। दोहरी ख़ुशी से उनका घर-आँगन गुलज़ार हो उठा। जुड़वाँ पुत्र-पुत्री को गोद में लेते ही हर्षातिरेक से पुनीत तो रो ही पड़े और जान्ह्वी… वह तो उन्हें एकटक देखे जा रही थी। एक रूखा-सूखा-सा बड़ी कम्पनी का बड़ा अफसर…अन्दर से इतना कोमल है, इतना संवेदनशील.., उसने तो कभी कल्पना भी नहीं की थी।
माँ-बच्चों के पूरी तरह से स्वस्थ होकर घर वापस आ जाने के बाद जब उन्होंने ईश्वर को धन्यवाद देने के उद्देश्य से घर पर माता की चौकी का आयोजन किया तो अपनी आराध्य मातारानी के साथ-साथ दोनों ने सुमन को उसकी बच्ची सहित पूजा की चौकी पर बिठाया और उनकी आरती करते हुए धन्यवाद दिया कि अगर मातारानी के आशीर्वाद की वर्षा बनकर सुमन उनके घर पर नहीं बरसती तो आज भी दोनों उसी मृगमरीचिका में फँसे रहते, आज भी वही नीरस ढर्रे की प्यासी जिंदगी को बेमन से ढो रहे होते। अगर सुमन नन्हीं टीया सहित उनके जीवन का हिस्सा नहीं बनती तो न तो मरीचिका का अन्त होता, न उनका परिवार पूरा हो पाया होता और न ही ज़िन्दगी की इतनी सारी नेमतें उनकी झोली में आतीं।
वहाँ उपस्थित सारा जनसमुदाय भावविभोर होकर हर्षातिरेक में कब तालियाँ बजाने लगा, उन्हें स्वयं समझ में नहीं आया।
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स्वरचित, मौलिक
नीलम सौरभ
रायपुर, छत्तीसगढ़