मैं यह अन्याय नहीं कर सकता –  विभा गुप्ता 

  एमबीए करते ही वरुण को दिल्ली के एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी मिल गई।रहने की व्यवस्था होते ही उसने अपनी माँ वसुधा जी को भी अपने पास बुला लिया।दरअसल वरुण के पिता एक सरकारी मुलाज़िम थें।वरुण जब पाँच वर्ष का रहा था,तभी उसके पिता की मृत्यु हो गई थी।उसकी माँ के लिए अकेले बेटे का पालन-पोषण करना बहुत कठिन था।वसुधा जी इंटर पास थीं,इसलिए पति की जगह वाली नौकरी तो उन्हें नहीं मिल सकती थी, लेकिन उसी ऑफ़िस में वे सुपरवाइज़र की पोस्ट पर काम करने लगीं थीं।रहने के लिए उन्हें सरकारी क्वाॅटर मिला हुआ था।उन्होंने सिलाई का काम सीखा हुआ था,इसलिए ऑफ़िस से आकर और छुट्टी वाले दिनों में वे आसपास वालों के कपड़े सिल दिया करती थीं जिससे उनकी ऊपरी आमदनी भी हो जाती थी।

            वरुण अपनी माँ की संघर्षभरी ज़िंदगी को देख रहा था।उसने ठान लिया कि वह मेहनत से पढ़ाई करके अपने पैरों पर खड़ा होगा और उसने ऐसा किया भी।स्कूल से लेकर कॉलेज की सभी परीक्षाओं में वह अव्वल रहा।इस बीच में माँ-बेटे ने जीवन के कई उतार-चढ़ावों का सामना भी किया।ग्रेजुएशन के बाद वरुण को एमबीए कराने के लिये वसुधा जी को आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा।उनके रिटायरमेंट का समय नजदीक था,सो लोन नहीं मिला लेकिन कहते हैं ना कि जहाँ चाह वहाँ राह।वसुधा जी के ऑफिस के ही एक सहकर्मी ने उन्हें एजुकेशन लोन लेने का सुझाव दिया।वरुण के लोन को उसके शैक्षिक अंकों के आधार पर आसानी से मंजूरी मिल गई।उधर वरुण को एमबीए की डिग्री मिली इधर वसुधा जी भी अपनी नौकरी से सेवानिवृत्त हुईं और बेटे के साथ रहने लगीं।

            वीणा भी उसी कंपनी में काम करती थी।एक दिन एक मीटिंग में वरुण से उसका परिचय हुआ और फिर उनकी मुलाकातें होने लगी।दोनों अपरिचित कब एक-दूसरे के करीब आ गये,उन्हें पता ही नहीं चला।

           एक दिन लंच करते समय वीणा ने वरुण को बताया कि वह मेरठ की रहने वाली है।घर में पिता और एक बड़ा भाई है।दो साल पहले माँ की डेथ हो गई थी और तब से पिताजी उसकी शादी की चिंता में हैं।यहाँ वह पीजी में रहती है जो उसके पिता को पसंद नहीं।वरुण उसके इशारे को समझ गया।शनिवार की शाम को उसने वीणा को अपनी माँ से मिलवाया।माँ ने तो हमेशा अपने बेटे की खुशी ही चाही थी,बेटे की पसंद को भला कैसे ना कह देती।दोनों ने अपने परिजनों की उपस्थिति में कोर्ट- मैरिज कर ली और फिर अपने रिश्तेदारों और ऑफ़िस के कलिग्स को एक शानदार पार्टी दे दी।



      अब वीणा भी वसुधा जी के परिवार की हिस्सा बन गई थी।ज़िन्दगी की गाड़ी मजे से चल रही थी।इसी बीच वसुधा जी एक पोता और एक पोती की दादी भी बन गई।पोता- पोती के साथ खेलने और उन्हें प्ले स्कूल लाने-ले जाने में उनका समय बीतने लगा।वरुण ने यूएस की एक कंपनी में जाॅब के लिए एप्लाई किया था जो दो बार रिजेक्ट होने के बाद तीसरी बार में एक्सेप्ट हो गया।वह बहुत खुश हुआ।बेटे की तरक्की पर वसुधा जी भी बहुत खुश थी।

           वरुण ने वीणा को यूएस जाने की तैयारी करने को कहा,साथ में कहा यह भी कहा कि माँ भी हमारे साथ चलेंगी।यह सुनकर वीणा नाराज़ हुईं लेकिन उसने ज़ाहिर नहीं किया।वसुधा जी अब उसे बोझ लगने लगीं थीं।रात को डिनर के बाद वह वरुण को समझाने लगी कि माँ वहाँ जाकर क्या करेंगी।वहाँ के मौसम और खानपान में वो एडजेस्ट नहीं कर पाएँगी।अनन्या और आयुष भी अब बड़े हो गयें हैं,हमारे ऑफ़िस जाने के बाद तो वो बोर हो जाएँगी।यहाँ रहेंगी तो…।

    ” हाँ, ये बात तो सही है लेकिन उनका खर्च..।” वरुण ने पत्नी की बात का समर्थन करते हुए पूछा।वीणा को अपना फेंका पासा निशाने पर लगता नज़र आया।उसने त्वरित जवाब दिया, ” इसमें चिंता कैसी, हर महीने हम पैसे भेज दिया करेंगे।न हो तो किसी को उनकी देखभाल के लिये भी रख देंगे।” ” जैसा तुम कहो ” कहकर उसने अपना निर्णय माँ को भी बता दिया।सुनकर वसुधा सन्न रह गई।बेटे के लिए ही तो जीती आई थी,भला आज उसकी तरक्की में बाधक कैसे बन जाती।उसने वरुण की हाँ में हाँ मिला दिया।



        एक दिन वरुण के पास बचपन के मित्र प्रतीक का फ़ोन आया।वरुण ने उससे कहा कि तुम तो जर्मनी जाने वाले थे, फिर..। ” तू आकर मिल तो सही ” कहकर प्रतीक ने उसे करोलबाग के एक रेस्ट्रां का पता मैसेज किया।दोनों मित्रों ने बैठकर पुराने दिनों की बातें की,फिर वरुण ने उससे जर्मनी का किस्सा पूछा तो प्रतीक बोला, “तेरे कहने पर मैं जब गाँव गया और पिताजी की हालत देखी तो मेरा कलेजा मुँह को आ गया।मुझे खुद पर बहुत ग्लानि हुई।माँ के देहांत के बाद पिताजी ने कितने कष्ट सहकर मुझे और दीदी को पाला था,अपनी तरक्की की चाह में मैं कैसे उन्हें भूल गया।यार, तेरा बहुत-बहुत शुक्रिया! उस दिन अगर तू मुझे ये नहीं कहता कि मैं अपने पिता के साथ अन्याय कर रहा हूँ तो शायद आज पिताजी..। पता है वरुण, मेरी तबीयत…।” प्रतीक अपनी बात कहे जा रहा था और वरुण सोचने लगा, छुटपन में उसके चेहरे पर अक्सर ही फोड़े-फुंसी निकल आते थें।उसके चेहरे को देखकर जब बच्चे उसे चिढ़ाते तो वसुधा जी उनकी माँओं से लड़ पड़ती थीं।तेज बुखार में भी वह वरुण को तैयार करके स्कूल ज़रूर भेजती थीं।खुद दो साड़ियों में ही पूरा साल निकाल देतीं लेकिन वरुण के लिए हर त्योहार पर वे नये कपड़े अवश्य खरीदती थीं।ऐसी त्यागमयी माँ को अकेले छोड़ कर क्या वह अपनी माँ के साथ अन्याय नहीं कर रहा है? वो मुँह से तो कुछ नहीं बोली लेकिन अकेलेपन का भय तो उन्हें सता ही रहा होगा।उस दिन ऑफ़िस में जब बॉस ने चाय की प्याली टूटने पर चंदू(चपरासी) की सेलेरी से पैसे काटने की बात कही थी तो वह बाॅस से लड़ पड़ा था कि यह तो सरासर अन्याय है।एक प्याली टूटने पर गरीब की तनख्वाह काट लेना कहाँ का इंसाफ़ है और आज खुद ….।  ” तुम सुन रहे हो ना ” 

         प्रतीक की आवाज़ पर वरुण की तंद्रा टूटी।वह  प्रतीक से ‘फिर मिलने’ का कहकर घर की ओर चल पड़ा।उसके हाथ स्टीयरिंग पर थें, आँखे सड़क देख रहीं थीं लेकिन उसका मन कहीं और था।उसकी अंतरात्मा उसे कचोट रही थी।दिन में ऑफिस का काम और रात में जाग कर सिलाई का काम करने से उसकी माँ की आँखों में काफ़ी तकलीफ़ होती थी लेकिन उन्होंने कभी उफ्फ़ तक नहीं किया और अभी तो मोतियाबिंद होने के कारण एक आँख से उन्हें स्पष्ट दिखाई भी नहीं देता।वो कैसे इतना निष्ठुर हो गया।नहीं, अब मैं अपनी माँ को अकेले हर्गिज़ नहीं छोड़ूँगा।तभी उसकी नज़र एक वृद्धा पर पड़ी जो लाठी के सहारे सड़क पार करने का प्रयास कर रही थी।न जाने क्यों, उस वृद्धा में उसे वसुधा जी नज़र आईं।

         घर आकर जब उसने वीणा से कहा कि माँ भी साथ चलेंगी तो वीणा गुस्से से तमतमा उठी।उसने कहा, “यह तो तुम मेरे साथ अन्याय कर रहे हो।” वरुण चीखा, “



तुम्हारे साथ अन्याय! माँ ने मेरे लिये अपना जीवन न्योछावर किया है,उन्हें इस तरह अकेले छोड़ देना उनके साथ अन्याय न होगा।” वीणा का स्वर तीखा हो गया, ” हर माँ यही करती है,उन्होंने नया क्या किया?” सुनकर वरुण तिलमिला उठा, बोला, ” कुछ दिन पहले तो तुम्हीं अपने भाई को कह रही थी कि पापा को इस उम्र में अकेले गाँव छोड़ आये।उनके साथ यह अन्याय करते हुए आपको शर्म नहीं आई।अपनी सहेली मीनाक्षी को डाँट रही थी कि छोटी बच्ची से उसका बचपन छीन कर काम कराना एक अपराध है।लोगों को तो न्याय- अन्याय पर लंबा लेक्चर देती हो और अब वही अन्याय तुम मुझे अपनी माँ के साथ करने को कह रही हो।लेकिन कान खोलकर सुन लो,मैं अपनी माँ को किसी भी कीमत पर अपने से अलग नहीं करूँगा।” कहकर वह ऑफ़िस की फ़ाइलों को अलमारी में रखने लगा।वरुण की बात सुनकर वीणा स्तब्ध थी।उसे एहसास हुआ कि सलाह सिर्फ़ देने के लिये ही नहीं होता,उस पर अमल भी करना पड़ता है।

            वसुधा जी बेटे के कमरे के बाहर खड़ी सुन रही थीं।बेटे का निर्णय सुनकर वह खुशी से रो पड़ी।मन ही मन भगवान को धन्यवाद देते हुए बोली कि ऐसा बेटा सबको दे।अपने कमरे में आकर लेट गई और सोचने लगी, आज उनकी वजह से बहू-बेटे में झगड़ा हुआ है,क्या यह सही है? वे वरुण की माँ हैं तो वीणा की भी सास हैं।बहू को दुखी करके तो वे भी उसके साथ एक प्रकार का अन्याय ही कर रहीं है।उन्होंने निश्चय किया कि सुबह होते ही बेटे को अकेले यूएस जाने के लिए कह देंगी।

      अगली सुबह वसुधा जी बेटे के पास जा ही रहीं थी कि वीणा ने आकर उनके पैर पकड़ लिये।रोते हुए कहने लगी, ” थोड़ी देर के लिए मैं स्वार्थी हो गई थी।मैं कैसे भूल गई कि मैं भी एक माँ हूँ।कल को अगर आयुष मुझे अकेला छोड़ दे..।मुझे माफ़ कर दीजिये माँजी।” ” लेकिन वीणा, मैं वहाँ क्या..।” वसुधा जी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाईं थी कि वीणा बोली, ” हम सभी को आपका साथ और आपके आशीर्वाद की ज़रूरत है।आपकी इच्छा होगी तो हम जाएँगे, नहीं तो अपना देश भी बहुत अच्छा है।” कहकर वह हँसने लगी।वसुधा जी को लगा, जैसे कहीं वीणा के तार झनझना उठे हों।उन्हें आत्मिक-सुख की अनुभूति हुई।उन्होंने वीणा को अपने हृदय से लगा लिया,तभी दोनों बच्चे जिनके चेहरों पर दादी के न जाने से उदासी छाई थी, अब मुस्कुराते हुए दादी से लिपट गये।

                                  — विभा गुप्ता 

 

             किसी को तकलीफ़ पहुँचाना या अपशब्द कहना ही अन्याय नहीं होता,बल्कि तकलीफ़ देने की सोचना भी अन्याय ही होता है,नाइंसाफ़ी होती है।

 

       # अन्याय 

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