*मैं गुम हो रहा था* – अर्चना नाकरा

मैं खाली ‘लिख लिख कर’ परिवार नहीं चला सकता था.. और बिना लिखे.. जी नहीं सकता था

कशमकश के उन पलों में मेरी एक दोस्त ने मुझे टैक्सी चलाने की सलाह दी !

कुछ जमापूंजी मेरी, कुछ उसकी.. ‘बस गाड़ी और सवारी चल पड़ी थी’

पढ़ा लिखा लेखक ‘हिन्दी दिवस’ पर भीतर से दम तोड़ रहा था

कहीं के बुलावे थे तो कहीं.. काव्य पढ़ना था

दिल मसोस कर एयरपोर्ट पर खड़ा सवारी की इंतजार कर ही रहा था कि एक मित्र का फोन आया एक जापानी को ‘बनारस ले जाना है आ जाओ’

लम्बी यात्रा पर विदेशी के साथ..

अंग्रेजी ठीक ठाक थी.. पर रास्ते भर… कैसे चलेगा?

महिपाल पुर के एक होटल से उस शख्स को लिया.. अंग्रेजी में पूछा..

वटस योर गुड नेम सर?

जवाब आया.. सुशी  मोयेशी..

मैंने थोड़ी और अंग्रेजियत झाड़ने के लिए पूछा.. सर (सीट आराम दायक है?) सीट इज़ कम्फ़र्टेबल?

(आप नाश्ता लेना चाहेंगे?)

वूड यू लाईक टू हेव ब्रेकफास्ट?

कुछ देर शान्ति रही..

ऐसा यात्री लम्बे सफ़र में गूंगे पन का आभास करा देता है…

मैंने एफ एम के कान मरोड़ने शुरू ही किये थे कि वो  हाथ से मेरा कंधा छूकर बोला… प्लीज!!

और किसी से फोन पर बात करने लगा…

मेरे हाथ जैसे’ स्टेयरिंग पर जाम हो गये थे’

वो बनारस युनिवर्सिटी में ‘हिन्दी दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित पखवाड़े में’ व्याख्यान देने जा रहा था

और मैं अदना सा लेखक… !!

‘रोज़ी रोटी के चक्कर में.. अंग्रेजियत झाड रहा था’

वो विद्वान…’ बनारस युनिवर्सिटी’ से

पी एच डी, कर जापान में हिन्दी का प्रचार कर रहा था

और मैं गुम हो रहा था अपने में..

उसने कहा ग़ज़लों का कलेक्शन हो तो चला देना.. बहुत पसंद है.. लौटते तक बादल भी छट चुके थे.. अपनी मातृभाषा पर गर्व ही नहीं अभिमान हो आया था!

जय मां भारती!

#अभिमान

लेखिका अर्चना नाकरा

(मौलिक)

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