लम्हें – कंचन श्रीवास्तव

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कौन कहता है अतीत की यादें  सुकून देते हैं वो तो वर्तमान के दर्द को और बढ़ा देते हैं जो दर्द से भरा हो।अब हमें ही देख लो किडनी जैसे असाध्य रोग के जूझ रहा हूं बिस्तर पर लेटे लेटे उब जाता हूं तो कभी कभार अतीत के पन्ने खोलता हूं ,पर पाता हूं कि वो और दर्द से भरा है ।

कोई एक लम्हा भी सुकून का नहीं मिलता।

कभी कभी सोचता हूं मेरी तकदीर ही ऐसी है।

तभी तो जहां तक टटोलता हूं तो  एक भी लम्हा  ऐसा कुछ नहीं पाता।जिसे सोचकर मुस्कुराहट आ जाए।

मुझे अच्छे से याद है पढ़ते पढ़ते ही पिता जी ने मेरी शादी कर दी थी।ये कहकर कि मैं खर्च उठा लूंगा , दादी की अंतिम इच्छा है कि नत पतोहू देखकर मरे।अब मैं उनके फैसले के आगे नतमस्तक हो गया।

और जवानी का पूरा लुफ्त भी न उठा पाया कि गृहस्थी में फंस गया हलाकि ब्याह के कुछ ही सालों बाद बाप बनने  के साथ ही एक सरकारी नौकरी मिल गई। पर कहते हैं ना कि खुशियां टिकाऊ नहीं होती बस वही हुआ।

 बाबू जी बहुत खुश हुए ,पर वो ये खुशी ज्यादा दिन तक सजो कर रख न सके ।और भगवान को प्यारे हो गए।

फिर तो बड़े होने के नाते जिम्मेदारियों का बोझ मेरे कंधे पर आ गया।



खैर कोई बात नहीं पत्नी का सहयोग अच्छा रहा इसलिए निभाने में कोई दिक्कत नहीं हुई पर कमाई से ज्यादा खर्च होने के कारण मैं कर्जदार भी है गया साथ ही मैंने महसूस किया कि बच्चों की जरूरतों को भी नज़र अंजार कर रहा हूं क्योंकि तब तक एक बेटा भी हो चुका था और पत्नी की बड़ी ख्वाहिश थी की अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाए ,पर हम वहन न कर सके।

जिससे कुछ दिनों तक मन मुटाव रहा पर धीरे धीरे सब ठीक हो गया 

किस्मत का लेखा दखो कि जब मैं जिम्मेदारियों से मुक्त हुआ तो अचानक पत्नी का भी साथ छूट गया।

एक रात सोई तो सोई ही रह गई उठी ही नहीं।ये मेरे लिए एक बड़ा झटका था।पर बच्चों का मुंह देखने मैंने अपने आप को संभाला ।साथ ही उन्हें भी ।उसके बाद से हम बच्चों पर पूरा ध्यान देने लगे।देते भी क्यों ना तब तक तो सबकी अपनी अपनी गृहस्थी हो चुकि थी।

कहते हुए तो शर्म आती है पर हमारे यहां की दिक्कत देखकर मां ने भी पल्ला झाड़ लिया था।

वो छोटे भाई के साथ रहने लगी।

न उन्होंने बिन मां के बच्चों को सहारा देने की कोशिश की और न मैंने उन्हें अपने यहां रहने की जबरदस्ती की।

और वैसे भी अब बच्चे बड़े हो गए थे तो रह लेते अकेले।

अकेले इस लिए कि मेरा तबादला अक्सर यहां वहां कहीं भी होता रहता , लिहाजा बच्चों को अकेले ही रहना पड़ता।तो वो आदी हो गए थे रहने के।

फिर एक वक्त ऐसा आया कि बेटी  नौकरी करने लगी और बेटा कंपटिशन की तैयारी ।

वक्त कितनी तेजी से बदल रहा था।

मैने भी सोचा चलो एकाध साल में रिटायर होकर बच्चों के पास स्थाई रूप से पहुंच जाऊंगा।तो बेटी की शादी करूंगा।

पर ये क्या रिटायरमेन्ट से कुछ महीने पहले ही मुझे खांसी ने अपनी गिरफ्त में लिया।

तो फिर वो ठीक न हुई और साथ साथ मेरे घर तक आई।

कभी एक छींक तक न आने वाले शख्स को पहले खांसी फिर वी.पी और बाद में हार्ड की बीमारी लग गई।



इससे मैं बड़ा परेशान रहने लगा।रहना वाजिब भी था , मन पसंद लड़का न मिलने के कारण बेटी की शादी जो नहीं कर पाया था और उम्र निकलती जा रही है।तो

उम्रदराज बेटी के साथ भी पीले करने है। ऐसे में घर वापसी पर लड़का ढूंढ़ने की जगह अस्पतालों के चक्कर लगाने लगे। चुंकि बुखार नहीं छोड़ रहा इसलिए जांच कराई गई तो कुछ महीने बाद पता चला किडनी की बीमारी है।

जो की दीमक की तरह शरीर और पैसा दोनों आहिस्ता आहिस्ता चट करने लगी।

पर कर ही क्या सकता हूं।

जिस पर कोई जोर नहीं उसके लिए परेशान होना बेकार है।

तो मैंने प्रण किया कि डाइलेसेस के साथ साथ घर बैठे ही फोन से लोगों से बात करूंगा और अपनी आखिरी जिम्मेदारी पूरी करूंगा। फिर मैंने अतीत के दर्द भरे पन्ने जो  वर्तमान के दर्द को सुकून नहीं बल्कि बढ़ा रहें थे उसे बंद कर दिया।

और अपने एक सहकर्मी जो कई साल पहले मेरे घर आया था और बच्चों से मुलाकात भी हुई थी उसे फोन लगाने ही जा रहा था कि उसका फोन स्वत: ही आ गया।

और उसने अपने बेटे के साथ घर आने की अनुमति मांगी

तो मैने दे दी।

वो आया और  मुझसे मेरी बेटी का हाथ मांगा तो मैंने नमः आंखों से उसे अनुमति दे दी।

फिर क्या था उसने तुरंत का तुरंत एक अंगूठी मंगवाया और बेटी को पहनवा दिया। फिर कुछ देर रह कर वो चला गया ये कहते हुए कि बेटे के लिए भी लड़की हम ही देंगे।

ये सुन मैंने चैन की सांस ली और सोचने लगा। अब मुझे अतीत से कोई गिला नहीं।माना वर्तमान कष्टमय है पर अचानक गर मुझे कुछ हो गया तो जिंदगी से कोई गिला नहीं  , खुशियों के  लम्हें भी साथ है।

 

स्वरचित

कंचन आरज़ू

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