खुशी का रंग  –   रीता खरे

     सावन माह के आगाज के साथ ही प्रकृति के हरित रंग में रंगते ही पर्णिका के चेहरे ने हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी उदासी की चादर ओढ़ ली थी , सारी सखी सहेली हरी हरी चूड़ी पहनें , हाथों और पैरों में मेंहदी रचा कर अपने अपने मायके  सावन तीज मनाने ,भाई को राखी बांधने को जाने की तैयारी कर रही थी, पर वह सोच रही थी कि कितने वर्ष होने को आ रहे ‘ मैं एक बार भी सावन पर नहीं जा सकी, हर वर्ष कोई न कोई समस्या पहले से ही आकर खड़ी हो जाती है, भाई भी अभी छोटा ही है, वह भी हर वर्ष राखी बंधवाने की जिद्द करता और रोते रोते सो जाता , मां हर बार कहती जब भाई नहीं था, तो तू राखी बांधने को रोती थी, अब भाई है, तो वह बंधवाने को रोता है। सोचते सोचते पर्णिका की आंखों में आये आसूं न जाने कब नींद की गोद में समा गये ।

         दरवाजे पर दस्तक से उठ उसने सामने अमर को मुस्कुराते पाया, उसने अपने उदास चेहरे पर बरबस मुस्कराने का अभिनय करते हुये, ” क्या हुआ? आज इतनी जल्दी ? “

        ‘ सरप्राईज ‘

       ‘ मुझे नहीं चाहिये सरप्राईज ‘

     ”  सुनो तो , सुनकर खुशी से झूम उठोगी ” कहते हुये अमर ने उसे बाहों में भर लिया।

       ”  हां , मैं सोच रहा हूँ कि इस बार रक्षाबंधन पर मै अपनी ससुराल जाऊंगा, तुमने कितने वर्षों से भाई को राखी नहीं बांधी, मैंने रिजर्वेशन करवा लिया है, और छुट्टी भी ले ली है , कुछ दिन बाहर घूम आयेंगे, कल मां पापा भी आ रहे है, वे दोनों बच्चों को संभाल लेंगे , तो स्कूल भी नहीं छूटेंगे ।



     ”  क्या? ” आश्चर्य से वह बोल उठी !

” हां भाई हां .. मां ने ही यह कहा है, तभी मैंने रिजर्वेशन करवाया है, और यह भी कहा, बहू मेंहदी लगा कर ही मायके जाये, सावन में बिना मेंहदी लगाये मायके नहीं जाते हैं। । “

 उसकी खुशी का ठिकाना न रहा, सोच रही थी कि शादी के बाद कब अपने मैंहदी रचे हाथ देखे थे  याद ही नहीं, शायद आज तक नहीं ! जल्दी ही राजू पेट में .आया, तो सासो मां ने, ” ऐसे मे मेंहदी नहीं लगाते, फिर बच्चे की झालर है, मुण्डन नहीं हुआ । “

इसी बीच छोटू पेट में आ गया, फिर वही बात , और मेंहदी लगाना भूली बिसरी बात हो गया।

          मायके जाने की सारी तैयारी कर वह आज सोच रही थी कि कैसे मेंहदी लगवाने जाऊं, घर के काम खत्म ही नहीं हो रहे, सास ससुर के आने से तो काम और भी बढ़ गये हैं, तभी सासो मां के साथ एक 13 – 14 साल की लड़की को आते देख वह चौंक गई ।

          बहू यह बिटिया मेंहदी लगाती है, बाहर घर घर घूम रही थी. पर आजकल तो सब ब्यूटी पार्लर पर ही जाकर लगवाती है, तुम घर पर हीं दोनों हाथों में लगवा लो ।

          ” हां दीदी, लगवा लीजिये, मैं बहुत अच्छी लगाऊंगी, पसन्द न आये तो पैसे न देना, पर आपको   जरूर पसंद —

          मेरे कुछ कहने के पहले ही सासो मां, “लगा तो जल्दी, बातें बना रही है । “

          उसके नन्हें नन्हें हांथ मेंहदी के कोन पकड़ ऐसे चल रहे थे, जैसे वह कोई कलाकार हो, और देखते देखते उसने उसके दोनो हाथ बाहों  से हथेली तक भर दिये, वह कभी उसके चेहरे की मासूमियत और कभी अपने हाथों को देख रही थी ।

        ”  कितने पैसे दूं? “

        ” दे दो , दीदी, जो ठीक समझो, ” उसे तो मेंहदी लगवाने का रेट ही नहीं पता था., तो उसने २०० रुपये दे दिये,

  “दीदी पैरों मे और लगवालो, मेरा भी रक्षाबंधन मन जायेगा. छोटा भाई न जाने कबसे नये कपड़ों की जिद कर रहा है, मां कई दिनों से बीमारी के कारण काम पर नहीं गई, पैसे कहां से आयेगें , तो मैंने सोचा, भाई के नये कपड़ों के लिये मैं ही कुछ करती हूं। “



   उसकी भावनाओं एवं जज्बे को दिल से नमन करते हुये, ” नहीं मेरे यहां कन्याओं से पैर नहीं छुलवाते । ” उसे पांच सौ का नोट और बेटे के एक जोड़ी नये कपड़े और मिठाई देकर उसे ऐसा लग रहा था कि  उसकी मेंहदी का रंग उस लड़की के चेहरे पर खुशी का रंग बिखेर रहा है, उस खुशी के रंग मे पर्णिका को अपने भाई की मुस्कान नजर आ रही थी।

    रीता खरे

    मौलिक रचना

लघुकथा – ” खुशी का रंग “

      सावन माह के आगाज के साथ ही प्रकृति के हरित रंग में रंगते ही पर्णिका के चेहरे ने हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी उदासी की चादर ओढ़ ली थी , सारी सखी सहेली हरी हरी चूड़ी पहनें , हाथों और पैरों में मेंहदी रचा कर अपने अपने मायके  सावन तीज मनाने ,भाई को राखी बांधने को जाने की तैयारी कर रही थी, पर वह सोच रही थी कि कितने वर्ष होने को आ रहे ‘ मैं एक बार भी सावन पर नहीं जा सकी, हर वर्ष कोई न कोई समस्या पहले से ही आकर खड़ी हो जाती है, भाई भी अभी छोटा ही है, वह भी हर वर्ष राखी बंधवाने की जिद्द करता और रोते रोते सो जाता , मां हर बार कहती जब भाई नहीं था, तो तू राखी बांधने को रोती थी, अब भाई है, तो वह बंधवाने को रोता है। सोचते सोचते पर्णिका की आंखों में आये आसूं न जाने कब नींद की गोद में समा गये ।

         दरवाजे पर दस्तक से उठ उसने सामने अमर को मुस्कुराते पाया, उसने अपने उदास चेहरे पर बरबस मुस्कराने का अभिनय करते हुये, ” क्या हुआ? आज इतनी जल्दी ? “

        ‘ सरप्राईज ‘

       ‘ मुझे नहीं चाहिये सरप्राईज ‘

     ”  सुनो तो , सुनकर खुशी से झूम उठोगी ” कहते हुये अमर ने उसे बाहों में भर लिया।

       ”  हां , मैं सोच रहा हूँ कि इस बार रक्षाबंधन पर मै अपनी ससुराल जाऊंगा, तुमने कितने वर्षों से भाई को राखी नहीं बांधी, मैंने रिजर्वेशन करवा लिया है, और छुट्टी भी ले ली है , कुछ दिन बाहर घूम आयेंगे, कल मां पापा भी आ रहे है, वे दोनों बच्चों को संभाल लेंगे , तो स्कूल भी नहीं छूटेंगे ।

     ”  क्या? ” आश्चर्य से वह बोल उठी !



” हां भाई हां .. मां ने ही यह कहा है, तभी मैंने रिजर्वेशन करवाया है, और यह भी कहा, बहू मेंहदी लगा कर ही मायके जाये, सावन में बिना मेंहदी लगाये मायके नहीं जाते हैं। । “

 उसकी खुशी का ठिकाना न रहा, सोच रही थी कि शादी के बाद कब अपने मैंहदी रचे हाथ देखे थे  याद ही नहीं, शायद आज तक नहीं ! जल्दी ही राजू पेट में .आया, तो सासो मां ने, ” ऐसे मे मेंहदी नहीं लगाते, फिर बच्चे की झालर है, मुण्डन नहीं हुआ । “

इसी बीच छोटू पेट में आ गया, फिर वही बात , और मेंहदी लगाना भूली बिसरी बात हो गया।

          मायके जाने की सारी तैयारी कर वह आज सोच रही थी कि कैसे मेंहदी लगवाने जाऊं, घर के काम खत्म ही नहीं हो रहे, सास ससुर के आने से तो काम और भी बढ़ गये हैं, तभी सासो मां के साथ एक 13 – 14 साल की लड़की को आते देख वह चौंक गई ।

          बहू यह बिटिया मेंहदी लगाती है, बाहर घर घर घूम रही थी. पर आजकल तो सब ब्यूटी पार्लर पर ही जाकर लगवाती है, तुम घर पर हीं दोनों हाथों में लगवा लो ।

          ” हां दीदी, लगवा लीजिये, मैं बहुत अच्छी लगाऊंगी, पसन्द न आये तो पैसे न देना, पर आपको   जरूर पसंद —

          मेरे कुछ कहने के पहले ही सासो मां, “लगा तो जल्दी, बातें बना रही है । “

          उसके नन्हें नन्हें हांथ मेंहदी के कोन पकड़ ऐसे चल रहे थे, जैसे वह कोई कलाकार हो, और देखते देखते उसने उसके दोनो हाथ बाहों  से हथेली तक भर दिये, वह कभी उसके चेहरे की मासूमियत और कभी अपने हाथों को देख रही थी ।

        ”  कितने पैसे दूं? “

        ” दे दो , दीदी, जो ठीक समझो, ” उसे तो मेंहदी लगवाने का रेट ही नहीं पता था., तो उसने २०० रुपये दे दिये,

  “दीदी पैरों मे और लगवालो, मेरा भी रक्षाबंधन मन जायेगा. छोटा भाई न जाने कबसे नये कपड़ों की जिद कर रहा है, मां कई दिनों से बीमारी के कारण काम पर नहीं गई, पैसे कहां से आयेगें , तो मैंने सोचा, भाई के नये कपड़ों के लिये मैं ही कुछ करती हूं। “

   उसकी भावनाओं एवं जज्बे को दिल से नमन करते हुये, ” नहीं मेरे यहां कन्याओं से पैर नहीं छुलवाते । ” उसे पांच सौ का नोट और बेटे के एक जोड़ी नये कपड़े और मिठाई देकर उसे ऐसा लग रहा था कि  उसकी मेंहदी का रंग उस लड़की के चेहरे पर खुशी का रंग बिखेर रहा है, उस खुशी के रंग मे पर्णिका को अपने भाई की मुस्कान नजर आ रही थी।

    रीता खरे

    मौलिक रचना

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