कंजूस पापा* – गोपेश दशोरा

ऐसी बात नहीं कि पापा कुछ नहीं दिलाते थे, पर जब भी कुछ दिलाते थे… हे भगवान्! इतनी दुकानों के चक्कर और इतना मोल भाव कि कभी-कभी तो हमें लगता था, कि हमने कुछ मांग कर ही गलती कर दी। छोटी-मोटी दुकानों तक तो ठीक वो तो शॉपिंग मॉल और कम्पनी आउटलेट पर भी भाव करने से नहीं चूकते। सेल्समेन मन ही मन गुस्सा होता पर चेहरे पर मीठी सी स्माइल के साथ कहता “सॉरी सर नहीं हो पायेगा।” अभी पिछले रविवार को ही मेरे लिए क्रिकेट का बेट लेने मॉल चल दिए, वहीं पड़ोस के शर्मा जी भी मिल गए। (पहले ये बता दूं कि शर्मा जी पापा के साथ ही काम करते है और उनका लड़का मोनू मेरे ही साथ स्कूल में पढ़ता है। हम दोनों को ही क्रिकेट का शौख है और दोनों ही ने बेट के लिए दो हफ्तों से घर में थोड़ा माहौल बना रखा है।) हां तो वो भी बेट लेने आए थे और हम भी। दुकान में घुसते ही पापा ने कह दिया ये तो महंगी दुकान लगती है। वो शर्मा जी से बतियाने लगे और मैं और मोनू बेट देखने लगे। क्या बेट थे यार… गजब।

तभी एक बेट पर नजर पड़ी तो आँखें खुली की खुली रह गयी। सचिन तेन्दुलकर के ऑटोग्राफ वाला बेट वो भी सिंगल पीस। बस अब तो यही लेना है। मैं और मोनू दोनों अपने-अपने पापा के पास लपके और उस बेट को लेने की जिद करने लगे। पापा आए और उसका दाम पूछा और जैसे उबल पड़े, पांच हजार… क्यूं मजाक करते हो भाई क्या सोने का बेट है। दुकानदार ने बताया कि उस पर सचिन तेन्दुलकर का ऑटोग्राफ है, इसलिए महंगा है। पर पापा कहां मानने वाले थे, उलझ पड़े अरे सचिन ने कौनसा यहाँ आकर साइन किया है, वो तो छपा हुआ है उस पर। तभी शर्मा जी पीछे से आए और बोले “क्या गुप्ता जी बेट पसन्द नहीं आया, भई मोनू तो जीद पे अड गया है कि बेट तो यही वाला लेगा।” उन्होंने भी उसका दाम पूछा और जेब से पांच हजार निकाल कर दुकानदार के हाथ में धर दिए, और दूकानदार ने बेट मोनू के हाथों में। और मैं बस खड़ा देखता ही रहा, मेरे सामने मेरे सपनों का बेट मोनू के हाथों में था।

शर्मा जी फिर बोले “गुप्ता जी मेरे लिए तो बच्चों की खुशी ही सबसे बड़ी है, भई हम दिन-रात काम आखिर करते किसके लिए है, उनकी खुशी के लिए ही तो ना।” इतना कह कर वो तो लौट गए। पर मेरा मन अभी भी उसी में अटका था। लौटते समय मैंने पापा से कोई बात नहीं, स्थिति को भांप पापा कहने लगे “अरे बेटा तुम निराश ना हो, अपने मोहल्ले में वो दुकान है ना वहाँ भी ऐसे ही बेट मिलते है, अभी दिला दूंगा, आज तो बेट लेकर ही घर चलेंगे।” आखिर वहाँ पहूँचे और पन्द्रह सौ का बेट बारह सौ में लेकर घर पहूँचे। बेट तो वैसा ही था पर सचिन का साइन…।


अगले सप्ताह हमारी परीक्षाएं भी शुरू होने वाली थी इसलिए बेट पर ज्यादा घमासान नहीं हुआ। परीक्षाएं खत्म होने के साथ ही स्कूल भी बन्द हो गया…. लॉक डाउन लग गया। देश में कोरोना का कोहराम मचा था और घर में हमारा। जो मम्मियां हमें सण्डे को भी नहीं झेल पाती थी, उन्हें हर दिन हमें झेलना था और हमें, पापा को। दरअसल पापा की प्राइवेट जॉब थी और उनके सेक्शन में वर्क एट हॉम सम्भव था नहीं, तो कम्पनी ने ये कह कर घर बिठा दिया, कि नौकरी नहीं जाएगी पर जब तक फैक्ट्री चालु नहीं हो जाती, घर ही रहना है वो भी बिना तनख्वाह के। पापा को टेन्शन तो थी, पर उन्होंने कभी उसे हमारे सामने नहीं आने दिया।

दिन में टी.वी. और सुबह शाम क्रिकेट में पता ही नहीं चला कब एक महिना निकल गया। एक रोज दिन में टी.वी. देखते समय अचानक दरवाजे पर घण्टी बजी। हम सभी चोंक गए, अभी ऐसे माहौल में कौन आया होगा? मैंने दरवाजा खोला तो देखा शर्मा अंकल खड़े थे, साथ में आण्टी भी थी। मैंने नमस्ते कर उन्हें अन्दर बुलाया। वो आए और पापा के साथ वाले सौफे पर बैठ गए। मैं भी वहीं था। शर्मा अंकल कुछ बैचेन लग रहे थे। कुछ कहना चाह रहे थे, पर कह नहीं पा रहे थे। तभी पापा ने मुझे अन्दर जाकर खेलने के लिए कहा। मेरे मन में ना जाने कितने सवाल उठ रहे थे। मैं गया, पर दरवाजे के पीछे जाकर खड़ा हो गया। शर्मा अंकल लगभग रोने की स्थिति में थे। आण्टी ने तो मम्मी से मिलकर रोना शुरू भी कर दिया था। शर्मा अंकल कहने लगे “गुप्ता जी आपको तो पता ही है, कम्पनी ने घर बिठा दिया है। कब बुलाएगी, कुछ पता नहीं। एक महिना तो जैसे तैसे निकाल लिया पर….. अब थोड़ी दिक्कत आ रही है। अगर थोड़ा पैसा मिल जाता तो…. मैं कम्पनी शुरू होते ही सारे लौटा दूंगा।”


पापा मुस्कुराए और कहने लगे “शर्मा जी पैसे तो मैं दे दूंगा, मगर माफ करना, मैं कुछ कहना भी चाहता हूँ। सारी कॉलोनी, अपना स्टाफ, यहाँ तक कि मेरे बच्चे भी मुझे कंजूस कहते है। क्योंकि मैं मौल भाव करता हूँ, दो-चार दुकानों में सस्ते के चक्कर में भटकता हूँ। पर सच तो यह है शर्मा जी, इस समय के लिए ये सब करना पड़ता है। समय कह कर तो आता नहीं, उसके लिए तैयारी तो हमें पहले से ही करनी होगी ना। एक दिन आपने कहा था कि हम दिन-रात बच्चों की खुशी के लिए ही तो काम करते है.. गलत! हम उनके भविष्य को सुरक्षित करने के लिए काम करते है। अपने सपनों, अपनी ख्वाहिशों को दरकिनार कर उनके लिए एक-एक पैसा जोड़ते है। अभी वो थोड़ा गुस्सा हो सकते है, लेकिन आज जैसी स्थिति कभी इनकी आ गई तो क्या, हम देख पाएंगे। थोड़ बचत की आदत डालों गुप्ता जी। ये समय शायद यही सिखाने के लिए आया हो।”

अब गुप्ता अंकल की आँख के आंसू सारी मर्यादाएं तोड़ बह निकले थे। उन्होने मान लिया कि माता-पिता पहला कर्तव्य अपने बच्चों का भविष्य सुरक्षित करना होता है, ना कि उनकी हर चाही अनचाही मंागों को पूरा करना। पापा ने उठ कर उनको गले लगाया और अलमारी से पच्चीस हजार रूपये निकाल कर दे दिये। साथ ही यह भी कहा कि और जरूरत पड़े बेहिचक बता देना। शर्मा अंकल और आंटी बहुत खुश हो रहे थे, पर पापा के सामने नजर नहीं उठा पा रहे थे।

जब वो चले गए, तो मैं गया और सीधा पापा के गले में अपने दोनों हाथों को डाल, उनकी गोद में बैठ गया। पापा ने एकदम आश्चर्य से मेरी और देखा, और पूछा क्या हुआ? मैंने कहा “कुछ नहीं अपने कंजूस पापा पे प्यार आ रहा है।” उन्होंने आश्चर्य से फिर मुझे देखा और मुस्कुराने लगे। मैंने फिर कहा “पापा आप ऐसे कंजूस ही रहना।” वो फिर मुस्कुराए और मेरे माथे को चूमते हुए अपने सीने पर मेरे सर को रख, मेरे गालों पर हाथों से हल्की-हल्की थपकिया देने लगे।

-गोपेश दशोरा

उदयपुर, राजस्थान

नोटः रचना स्वरचित है।

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