कलकतही (कहानी) –     डॉ उर्मिला सिन्हा

 चूड़ियां सुहाग का प्रतीक। सुहागिनों की पहली पसंद।कुंआंरियों का सुनहरा भविष्य। मैं जब भी चूड़ियां खरीदने चूड़ी के दुकान पर आती हूं , मेरे मानस पटल में बचपन की एक धुंधली सी तस्वीर उभर आती है—कलकतही की।

कलकतही कोई और नहीं बल्कि एक चूडीहारिन थी।उसका छोटा सा टोकरा हरी,लाल,नीली,पीली,प्लेन और कामदार चूड़ियों से भरा रहता था।छोटे से गांव में कलकतही का वह छोटा सा टोकरा नहीं था बल्कि सुंदरियों के नाजुक कलाईयों का श्रृंगार था।

    कलकतही गांव में प्रवेश करते ही आवाज लगाती “ले लो चूड़ियां हरी,नीली, पीली धानी और बासंती रंग चूड़ियां…..!”

    ललनाओं की सांसें थम जाती। आंखों के सामने रंग बिरंगी चूड़ियां झिलमिलाने लगतीं। बच्चे वाली अपने बच्चों को दौड़ाती कलकतही को बुलाने के लिए , नवविवाहिताएं अपनी सास ननद का मुख निरेखने लगती बड़ी आस और ललक से।

  हम बालिकाएं चौपाल में गोटी,एकट दुकट खेल रही होंती या किसी के गुड्डे-गुड़ियों का व्याह रचाया जा रहा होता । कभी आम के गाछी (बगीचे) में दोल्हा -पाती का खेला भी जमा रहता।मगर कलकतही की मधुर ,खनकती आवाज़ हम दूर से ही पहचान लेती। बड़ी सुरीली और तेज आवाज थी,”चूड़ियां ले लो चूड़ियां।”

  हम जिस हाल में रहतीं भाग खड़ी होती कलकतही के पीछे।तेज दौड़ने के कारण मेरी सांसे धौंकनी की तरह चल रही होती ,माथे पर पसीना चुहचुहाने‌ लगता। मैं लपककर उसका दामन थाम लेती।”पहले मेरे घर चलो…”बेचारी कलकतही पेशोपेश में। तभी जमींदार साहब का सेवक आ खड़ा होता ,”मालकिन बुला रही है,चलो पहले हवेली”धमकी देता।

    “आती हूं जरा बिटिया के यहां जरूरी काम था ,बस आधे घंटे में आती हूं।”

   अन्ततः जीत मेरी ही होती और कलकतही बहाने बना कर मेरे साथ मेरे घर पहुंच जाती।”पहले मैं पहनूंगी चूड़ियां”!

“हां , बेटी लो तुम्हीं से बोहनी करूंगी…”




वह रंग बिरंगी छोटी छोटी चूड़ियां जो विशेष तौर पर मेरे लिए ही शहर से लाई होती मेरी पतली सींक सी कलाईयों में पहनाने लगती।मेरा रोम रोम पुलकित हो उठता।

   “पहले मोल तोल तो कर लो “दादी टांग अड़ाती।उनको कलकतही से मेरा इतना मेल जोल कत‌ई नापसंद था।इसे मैं भी समझती थी और कलकतही भी। फिर भी कौन सी अदृश्य डोर थी जो हमें बांधे हुई थी। कलकतही के सानिध्य में मैं मातृविहीन बालिका स्नेह का अथाह सागर पाती । उसके आंचल की सुगंधि में मुझे मां का प्यार मिलता।वह मेरे सिर पर ऐसे हाथ फेरती जैसे मैं उसकी कोख जायी बेटी हूं।

“मालकिन बिटिया को चूड़ियां मैं अपनी खुशी के लिए पहना रही हूं । पैसे नही लूंगी चिंता मत करो…”वह बड़े इत्मीनान से उतर देती।

“तो क्या खैरात में बांटेगी !, हमारे पास देने को पैसे नहीं हैं क्या….?”दादी तमक उठती।

“ऐसा नहीं है मालकिन मेरा भी तो कुछ हक बनता है बिटिया पर ।इसकी शादी में सब वसूल लूंगी।…!’वह बड़े प्यार से दादी को समझाती।

   खैर, मुझे इन बातों से क्या __भर हाथ चूड़ियां पहन कूदती फांदती घर से भाग खड़ी होती। मैं अपने दादा जी की लाडली थी।”दादा जी चूड़ियां..!”

“, अच्छा इतना सुंदर …;”दादाजी मुझे गोद में उठा लेते।

“मुझे और चूड़ियां लेनी है ….”; मैं लाड़ लगाती।

“ले लो मना किसने किया है?”

“दादी ने”मैं तुनक उठती।

“तेरी दादी तो भोली है उसके बातों का क्या बुरा मानना । मैं तुम्हें दिलवाऊंगा और चूड़ियां …”!

 तत्पश्चात दादाजी अपने काम में लग जाते । मैं।  भी उनका निर्देश भूल , दादी की शिकायत कर संतुष्ट हो सहेलियों को चूड़ियां दिखाने   , उन्हें ललचाने  दौड़ पड़ती।




  उस जमाने में इतनी महंगाई नहीं थी ।मगर लोगों के पास इतने अधिक पैसे भी नहीं थे।खेत खलिहान में उपजने वाले अन्न की कीमत भले ही उनकी नजरों में उतनी न हो लेकिन पैसे को वे कसकर पकड़ते ।

  कलकतही को चूड़ियों के चयन में महारथ हासिल था। शहर से ऐसी-ऐसी रंगीन चूड़ियां छांट छांट कर लाती कि ललनाओं का दिल भर रंग की चूड़ियों पर आ जाता।

प्लेन चूड़ियां सस्ती होती जबकि कामदार चूड़ियां महंगी। बड़ी उम्र की महिलाएं ज्यादा प्लेन चूड़ियां ही पहनती “काम काज में टूट जायेगा अब इस उम्र ‌ में कौन चोंचले करें …”उनका तर्क होता।

मगर नववधूओं की नजरें कामदार चूड़ियों पर ही टिकतीं। तुरंत की व्याही वधूए भी एक हाथ लंबा घूंघट से झांककर अपनी पसंद की चूड़ियों पर हाथ रख देती इशारा स्पष्ट होता ,”मैं तो यही चूड़ियां लूंगी।”

बिचारी कंजूस सास का जी सांसत में। कलकतही अपने ग्राहकों को कभी भी कीमत पर नाराज़ नहीं होने देती । खुद घाटा सहकर खरीद से भी कम कीमत पर भी बहू बेटियों का मन रखने के लिए चूड़ियां पहना देती। उसके बाद ललनाओं के मुखड़े पर छाई प्रसन्नता उसे असीम संतोष प्रदान करता। ऐसा नहीं था कि इस गांव में कोई दुसरी चूड़ी वाली नहीं थी।मगर अन्य चूड़ी वालियों की न चूड़ियों में वह जगमगाहट थी न और न बातों में वह मिठास।

 कलकतही जहां तक मुझे याद है सांवले रंग की मंझोले कद की औरत थी।सुरमा लगी काली आंखें मगर एक एक अंगुल अंदर की ओर धंसी हुई। दोनों गाल भी पिचके हुए ।पान जर्दे से काले पड़े दांत । दोनों कानों में चांदी के क‌ई क‌ई छल्ले। हाथों में चांदी की दो दो चूड़ियां। अधपके घुंघराले बालों का जूड़ा। साधारण साड़ी में अति साधारण स्त्री। लेकिन लोगों के दिल में उसके लिए बेपनाह मुहब्बत थी।

   वह जब भी हमारी हवेली में आती दादी से ज़रूर बकझक होता। इसके बावजूद दादी कलकतही को भरपेट भोजन खिलाती। गाछी का सबसे मीठा आम उसे देती।केला,पपीता, अमरूद जो भी बगीचे का फल होता उसे देती।

  गर्मियों में उसका सूखा मूंह देख दादी प्यार जताती,”इस धूप में घर से निकलती क्यों हो?”

“चूड़ियां बेचूंगी नहीं तो खाऊंगी क्या।”कलकतही के बातों में अथाह पीड़ा होती।वह बात बदल देती। दादी भी उदास हो जाती पता नहीं क्या समझकर।

“अब शादी विवाह का मौसम है मालकिन , बहु-बेटियां आस लगाए बैठी रहेगी।”

 कलकतही मुझे कुछ खाने के लिए देती तो दादी बहाने से मुझे खाने नहीं देती थीं। मुझे धमका देंती ,”कलकतही पूछे तो कहना अच्छी बनी थी।”

  मैं नन्ही बालिका दादी की दोहरी नीति को समझ नहीं पाती थी। अतः स्वीकृति में सिर हिला;भाग खड़ी होती।

एक दिन अपना कौतूहल शांत करने के लिए दादा जी से पूछ बैठी,”दादी मुझे कलकतही के हाथ का पका खाने क्यों नहीं देती……!”




दादा जी बेसाख्ता हंस पड़े। मुझे आश्चर्य हुआ , यह भी कोई हंसने की बात है।”तुम्हारी दादी अनपढ़ है।उनको समझाना पत्थर पर सिर मारना है। कुछ कुंठा पाले हुई हैं । खैर, तुम्हारी उम्र इन बातों की समझने की नहीं है।”

  मैं ने वहां से खिसकने में ही अपनी भलाई समझी।वह तो मुझे कालेज जाने पर पता चला कि कलकतही उसके माता-पिता का दिया हुआ नाम नहीं था वरन जमाने का दिया हुआ पहचान पत्र था।उसका पति कलकत्ता शहर के किसी  थाने में दारोगा था। प्यारी सी एक बेटी थी। वे अपनी बीवी पर जान छिड़कते थे मगर उनकी बेगम बेवफा निकली। हमारे इलाके के एक चूडीवाले से दिल लगा बैठीं। यह कैसा इश्क था जिसमें न अपने रौबदार शौहर के इज्जत का ख्याल रखा न मासूम बच्ची के तड़प का।दारोगाईन ने ने आव देखा न ताव जो पति की। कमाई नगदी,ऊंजी पूंजी , जेवरात थे लेकर भाग आई अपने तिरहुतिया के साथ….!

  दारोगा जी ‌ने पहले तो खोज खबर में कोई कसर नहीं छोड़ी। छोटी बिटिया जब मां को खोजती उनका मुंह कलेजे को आता।

   परंतु जैसे ही पत्नी के बेवफाई का पता चला उनका स्वाभिमानी दिल टूट गया।”औरत की जात की बिसात ही क्या”जग हंसाई के पहले ही अपनी बदली करवा ली।

  खैर, इधर जब कलकतही का स्वार्थी प्रेमी जब उसे लेकर अपने घर पहुंचा तो वह मुंह के बल गिरी। कहां वह दारोगा जी की पत्नी मुंह खोलने की देरी थी तुरन्त हुक्म बजा लिया जाता। और यहां घर क्या मुर्गी का दड़बा था। प्रेमी की पहली पत्नी और पांच बच्चे थे। इसके आने से घर में ऐसा कोहराम मचा कि पूछिए मत।

     इश्क वही जो सिर पर चढ़ कर बोले। एक व्याहता स्त्री का परपुरुष से लगाव का नतीजा क्या निकलता। कलकतही बुरी तरह छली गई थी। उसके लाए हुए धन पर उसके सौत का अधिकार था। जिसके लिए उसने अपना दोनों लोक बिगाड़ लिया था वह अब‌ उससे भरमुंह बात तक नहीं करता था।वह रोती अपना सिर पीटती।जब दारोगा जी के इज्जत, प्यार, विश्वास का ख्याल आता उसका कलेजा दरक उठता। कमजोरी के किन क्षणों में ऐसा पातक कदम उठा लिया।वह पश्चाताप की अश्कों से लवरेज हो गई।”हे ऊपरवाले।वह किस मुंह से वापस जाये। पति क्या माफ कर पायेंगे। बेटी समाज में ‌कौन सा मुंह दिखायेगी।” उसने अपने पांव पर खुद ही कुल्हाड़ी मारी है। इसमें ऊपरवाले की मर्जी है। या उसके पिछले जन्म के पापों का फल।

   प्रेमी के किनारा करते ही वह भूखों मरने लगी।जिसको कभी भूना काजू,तली मछली ,सिंक कबाव खाने की इच्छा नहीं होती थी वह सूखे चने के लिए तरह गई। जिसके बक्से रेशमी साड़ी से भरी रहती थी ; मखमली गद्दे पर नींद नहीं आती थी वह जमीन पर सोकर गुजारा करने लगी। 

“गढ़ा हुआ घास कितने दिन…..”कलकत्ता से लाया सामान समाप्त होने लगा। बाकी पर सौत ने कब्जा कर लिया।दाने दाने को मोहताज कलकतही ने थककर अपने प्रेमी का व्यवसाय चूड़ियां बेचने का अपना लिया।चूडीहार लंबी बिमारी के बाद एड़ियां रगड़कर मरा। कलकतही ने उसका मुंह भी नहीं देखा। जिस चेहरे के आकर्षण में  वह अपना सुनहरा संसार छोड़ आईं थीं वहीं उसे बर्बादी का सबब जान पड़ता।

  “वह चूड़ियां बेंचकर अपना पेट पालने लगी। शायद मुझमें वह अपनी बेटी का रूप देखती थी।”

   आज इन बातों के इतने साल बीत गए । सब-कुछ बदल गया ।न‌ अब मेरी नासमझी की उम्र है और न चूड़ियों के प्रति वह ललक।मगर गुमराह चूड़ीहारिन  कलकतही की यादें भूली बिसरी दर्द भरी नगमों की तरह आंखों के सामने आ ही जाता है _कभी -कभी ……!

मर्यादा तोड़ने का दंड कलकतही को भोगना ही पड़ा। 

 

#मर्यादा 

सर्वाधिकार सुरक्षित  मौलिक रचना–डा उर्मिला सिन्हा©®

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