कभी-खुशी-कभी-गम – कुमुद चतुर्वेदी

भैया का ट्रांसफर भोपाल हो गया था,पर माँ वहाँ जाना नहीं चाहती थीं। कारण यहाँ ग्वालियर में ही उनकी दो बेटियाँ भी थीं मैं बस आगरा थी सो बच्चों की छुट्टियों में ही जा पाती थी।परंतु भैया भी मजबूर थे उनको अकेले कहाँ छोड़ते बुढ़ापे में।खैर भैया भाभी और माँ को लेकर भोपाल चले गये।वहाँ जाकर माँ बीमार पड़ गईं।एक तो घर छोड़ने का दुख साथ ही बेटियाँ भी दूर हो गईं अब।मेरी भी बेटी की शादी हो चुकी थी और बेटा मेरे साथ ही जॉब की तलाश में था।मेरी बेटी की भी पहली डिलीवरी होने को थी।वह ससुराल में थी।

        ग्वालियर से दोनों बहनें भोपाल जाकर माँ को देख आई थीं परंतु मैं मन होते हुए भी नहीं जा पा रही थी।उस समय तक मोबाइल भी नहीं आये थे बस लैंडलाइन ही थे किसी किसी घर में। मैं नौ बजे रात का इंतजार करती फिर बेटे के साथ टेलीफोन एक्सचेंज पर जाकर भाई सा.से माँ के समाचार पूँछती थी ,हफ्ते में एकाध बार।टेलीफोन एक्सचेंज भी घर से दूर ही था।भाई सा.या बहनों के फोन भी पड़ोसी के यहाँ आते जिससे माँ के समाचार मिल जाते थे।मैं बहुत चाहते हुए भी भोपाल नहीं जा पा रही थी अकेले के कारण।माँ भोपाल दिसम्बर के आखिरी हफ्ते में गईं थीं और अब मार्च आ गया था परंतु उनकी तबियत में कोई सुधार नहीं था हालत गिरती जा रही थी। 

          पाँच मार्च को करीब बारह बजे सामने पड़ोस में भाई सा. का फोन आया मुझे बुलाया।मैंने रिसीवर उठाया तो छोटी बहन ने बताया माँ नहीं रहीं सुबह।मैं तो रोने लगी तब पड़ोसन ने मुझे सँभाला और बहन ने पूरी बात बताई।मैं दिसम्बर में उनसे ग्वालियर मिलकर आई थी,अब कभी नहीं मिलेंगीं माँ यह सोच बहुत रोई।घर आकर निढ़ाल लेट गई।बेटा और पति भी दूसरे कमरे में जाकर लेट गये।परंतु माँ,बाप के जाने का दुख वही जानता है जिसने भुगता है।

           करीब चार बजे बेटा मेरे पास आकर बोला”मिश्रा जी के यहाँ दीदी के ससुर का फोन आया है कि दीदी के बेटा हुआ है दोपहर को तीन बजे।”यह सुन मैं आश्चर्यचकित रह गई कि वाह रे ईश्वर तेरी लीला भी विचित्र है।

      नोट…यह मेरी आपबीती और सत्य घटना है।अब मेरा नाती पच्चीस साल का हो चुका है पर यह दैवीय लीला हम लोग कभी नहीं भूलेंगे।

                       ……….कुमुद चतुर्वेदी.

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