कभी फ़ुर्सत मिले तो: – मुकेश कुमार (अनजान लेखक)

वकील साहब कभी फ़ुर्सत मिले तो… चल साले ज़ुबान लड़ाएगा वकील साहब से? पुलिस घसीटते हुए ले जा रही है योगेश को।

पसीना-पसीना हो उठ कर बैठ गए वकील साहब। उनकी पत्नी को मालूम था, इसके बाद वकील साहब को दोबारा नींद नहीं आती है। बिस्तर से निकल कर चाय बनाने लगी गई।

दो कप चाय ले आई, वकील साहब की तरफ़ चाय बढ़ाते हुए पुछी:

वही सपना था क्या?

हाँ, लग रहा था सब अभी हो रहा है।

आख़िर बात क्या है?

तुम्हें पहले भी बोला है न, की इन सब में मत पड़ो?

हाँ, बताया है, लेकिन कुछ तो ग़लत है न?

पता नहीं, मैं वकील हूँ, ग़लत-सही सोचने लगा तो भूखा मर जाऊँगा।

नहीं, ऐसा हो, ज़रूरी नहीं।

छोड़ो, तुम नहीं समझ पाओगी।

नहीं, आज जानना है मुझे, आपको बताना ही पड़ेगा।

बहुत ख़ुशनुमा गाँव था, हर किसी के पास अपने ज़रूरी अनाज के लिए पर्याप्त खेत थे। घर का कोई न कोई सदस्य सरकारी नौकरी में था तो बाक़ी के खर्च भी पूरे हो जाते। गाँव के बाद खेत थे, खेतों को पार करने के बाद दूसरे गाँव के खेत शुरू हो जाते। खेतों को पार करने के बाद आता था स्कूल।



स्कूल के बाद चार-पाँच किलोमीटर बाद आता कॉलेज।

चूँकि लोग साइकिल से कॉलेज जाते थे तो खेतों के मेड़ से जाने पर रास्ते भी छोटे पड़ते और मेहनत भी कम लगती।

खेत में मौसम के अनुसार फ़सल लगी रहती। कहने का मतलब खेत अधिकतर हरे ही रहते।

खेत ही तो काल बने योगेश के लिए। न उसके पुरखों के पास ज़्यादा उपजाऊ वाले खेत होते न योगेश की जीवन लीला समाप्त होती। वरना उस गाँव में तो सभी की जाती भी एक थी और बिरादरी भी एक।

मुंशी को भिजवाया था रघुनाथ बाबू ने, उस गहिडा खेत के बदले टाँड वाली दोगुनी ज़मीन दे रहे थे योगेश के पिताजी को। लेकिन नारायण बाबू ने हाथ जोड़ कर मना कर दिया।

मुंशी तो था ही भेड़िया का जुठन चाटने वाला सियार, रघुनाथ बाबू को मिर्च मसाला लगा कर सुना दिया। सुनाता भी क्यों नहीं? उस खेत के अदला-बदली होने पर एक मोटी बख़्शीश जो मिलती।

तब से रघुनाथ तिलमिलाया हुआ था और नारायण को बेइज्जत करने का मौक़ा ढुँढ रहा था।

दो साल बाद वो मौक़ा भी आया जब मुंशी की बेटी ने उसी कॉलेज में दाख़िला लिया जहाँ योगेश उस से दो साल वरिष्ठ था। वो भी साइकिल से रोज़ कॉलेज जाने लगी। अब समय का खेल मान लिया जाए या तक़दीर का लिखा की गाँव से योगेश ही इकलौता कॉलेज जाता था बाक़ी सभी के बच्चे बड़े शहर के कॉलेज में पढ़ते थे।

इस गाँव से अब दो लोग कॉलेज जाने लगे। इस उम्र में लोग राजनीति कहाँ समझ पाते हैं, ज़्यादातर तो दिल के कच्चे और तक़रीबन मन के सच्चे होते हैं।

दोनों के उम्र ने असर दिखाना शुरू कर दिया। इतने क़रीब आ गए की दुनिया की नज़र से डरने लगे, कहीं किसी की नज़र न लग जाए।

दिल में उछल रहे तरंगों और मचल रहे जज़्बातों से मजबूर हो कर कभी-कभी दोनों धान के पौधों की ऊँचाई से ढँके मेड़ पर बैठ कर बातें करते।



पता नहीं कैसे मुंशी को इसकी भनक लग गई और यहीं से शुरू हो गया राजनीति का खेल।

रघुनाथ तो मुंशी रूपी सियार का भेड़िया मालिक था। एक दिन सियार और भेड़िये ने अपने चमचों सहित योगेश और पल्लवी को आलिंगन में समाए पकड़ लिया। बात उतनी भी बड़ी नहीं थी, चाहते तो पंचायत में दोनों की शादी करा दी जाती, जैसा की पंचायत के फ़ैसलों में होता है। दिक़्क़त ही क्या थी? दोनों एक ही जाती के थे, न ऊँच-निच का रोना न समाज का झंझट।

लेकिन बात तो गहिडा खेत और बख़्शीश की थी न।

भेड़िए ने सियार को आनन-फ़ानन में थाना दौड़ाया और चमचों को हाथ की खुजली मिटाने का आदेश दिया। जब तक थानेदार आया तब तक योगेश के होंट फट चूके थे, शरीर पर काले धब्बे बन चूके थे और क़मीज़ लाल हो चूकी थी।

कोतवाली ले जाने के बाद उस पर बलात्कार का मुक़दमा लगा दिया गया।

थानेदार साहेब भी भेड़िये का सियार बन गए थे। भला बैग में रूपए उन्हें बुरे कैसे लगते। सियार को मुफ्त का गोश्त कभी बुरा लगा है कभी?

बात बढ़ती ही गई, नारायण सियार को गहिडा खेत देने को भी राज़ी हो गए और पल्लवी को बहु बनाने को भी लेकिन भेड़िया अपने अहम से बाहर न निकल पाया।

इन सब में पल्लवी की क्या मजबूरी थी ये तो वही जाने, लेकिन उसने एक बार भी सच बता कर योगेश को बचाना ज़रूरी न समझा।

नारायण ने गहिडा खेत सरपंच को गिरवी दे कर पैसों का उपाय किया। एक वकील नियुक्त किया। वकील भी इमानदार और निडर। उसने सारे छानबीन किए, सारे जरुरी काग़ज़ात, डॉक्टरी रिपोर्ट जमा किए। नारायण को भरोसा दिलाया की योगेश बेक़सूर बरी हो जाएगा।

पहली सुनवाई की तारीख़ आने में तीन दिन बाक़ी थी, एक दिन नारायण ने वकील को भेड़िये के मोहल्ले से निकलते देखा।

इधर कैसे आना हुआ वकील बाबू?

तुमसे ही मिलने आ रहा था नारायण।

मेरे घर का रास्ता तो उधर से है, आप तो रघुनाथ के घर तरफ़ दिखे।

वो मैं रास्ता भूल गया था।


ख़ैर, कहिए कैसे आना हुआ? मुझे बुला लेते किसी से बोल कर।

नहीं, ऐसे ही तुम्हारा गाँव देखने आ गया था।

पहली सुनवाई की तारीख़ में सियार का वकील बढ-चढ़ कर बोल रहा था। पल्लवी बेपरवाह हो कर सब बता रही थी किस तरह जानवर बन कर योगेश टूट पड़ा था। योगेश का वकील एक सवाल करने की कोशिश करता और दूसरा वकील हावी हो कर चुप करा देता। योगेश के वकील ने बेगुनाही के एक भी काग़ज़ नहीं दिखाए। नारायण रोता हुआ वकील को देख रहा था और योगेश भरी आँखों से पल्लवी को।

सियार, भेड़िया और पल्लवी की जीत हुई। हथकड़ी से बंधे योगेश को पुलिस ले जा रही थी तभी योगेश कुछ कहना चाह रहा था, शायद “वकील साहब फ़ुर्सत मिले तो सोचना, बेगुनाह को जान बुझ कर फँसा कर कैसे सुकून से जियोगे”

“मेरी बेगुनाही को गुनाह में तब्दील करने के मिले पैसों से कब तक खुश रह पाओगे?”

वो वकील मैं था। बहुत बड़ी रक़म मिली थी रघुनाथ से, उन्हीं रूपयों से यह घर बनाया था।

जेल जाने के दूसरे दिन ही योगेश ने बिजली के तारों को पकड़ कर जान दे दी थी। कहना मुश्किल है, पल्लवी के दिए लांछन से टूटा था या मेरे फ़रेब से। लेकिन उसका दोषी मैं भी हूँ। तब से न चैन से सो पाया हूँ न किसी को बता पाया था।

मुकेश कुमार (अनजान लेखक)

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