नई नवेली बहू सुरभि घर में आ चुकी थी। आशा जी का बेटा सौरभ उसे ब्याह कर लाया था। सुरभि और सौरभ एक ही ऑफिस में साथ काम करते थे।
आशा जी एक शांत, गहरे व्यक्तित्व की स्वामिनी थी। माथे पर बिंदी, बालों का जूड़ा, दोनों हाथों में सिर्फ एक एक सोने की चूड़ी, गले में चेन और तन पर साधारण साफ-सुथरी साड़ी या फिर कभी सूट।
सौरभ के पिता का नाम था रविंद्र। वे अक्सर बीमार रहते थे। सुरभि ने नोटिस किया कि उसके सास-ससुर अलग-अलग कमरों में रहते हैं और आपस में कभी बात भी नहीं करते। सासूजी उन्हें खाना पानी और दवाई तो देती थीं, और उनसे बोलती नहीं थी।
सुरभि नई नवेली होने के कारण कुछ भी पूछ नहीं पाती थी। धीरे-धीरे वक्त बितता रहा। 1 दिन उसके ससुर की हालत बहुत खराब हो गई उन्हें अस्पताल में दाखिल करवाना पड़ा। तीन दिन बाद वह घर वापस आए, लेकिन आशा जी बिल्कुल शांति थी, उनके चेहरे पर कोई शिकन तक ना थी। सुरभि हैरान थी कि पति के बीमार होने पर पत्नी कैसे इतना शांत रह सकती है। उसने अपने पति सौरव से पूछना चाहा, लेकिन वह बात को टाल गया।
जब वह सौरभ से सवाल कर रही थी तब आशा जी ने सब कुछ सुन लिया था। उन्होंने रात को सब के सो जाने के बाद सुरभि को अपने कमरे में बुलाया।
आशा जी-“आओ बैठो सुरभि बेटा, मैं जानती हूं जब से तुम ब्याह कर आई हो तब से तुम्हारे मन में कुछ सवाल उमड़ रहे हैं आज मैं तुम्हारे सवालों का जवाब देने की कोशिश करती हूं।”
“मेरी शादी 31 वर्ष पहले रविंद्र के साथ हुई थी। वह एक बहुत उत्साहित और तरक्की पसंद आदमी था। जैसे किसी व्यक्ति को जुआ खेलने का, किसी को शराब पीने का या किसी को पैसे का नशा होता है वैसे ही रविंद्र को तरक्की करने का नशा था। वह चाहता था कि ऑफिस में जल्दी-जल्दी तरक्की पाते हुए वह ऑफिस का बॉस बन जाए। इसके लिए वह कुछ भी कर सकता था और वह अपना काम भी पूरी लगन से करता था, लेकिन उसके अंदर धैर्य बिल्कुल नहीं था।
यह बात रविंद्र का बॉस अच्छी तरह समझ चुका था कि तरक्की का नशा रविंद्र के सिर चढ़कर बोल रहा है। वह रविंद्र को जानबूझकर 1 साल में दो बार तरक्की दे चुका था और इधर विवाह के 1 वर्ष के भीतर सौरभ भी पैदा हो चुका था।
बॉस ने रविंद्र को अपने ऑफिस की एक और शाखा खोलकर उसे उस ऑफिस का बॉ बनाने का लालच दिया और बदले में उसने मुझे पाने की इच्छा रखी ।
पहले तो रविंद्र अपने बॉस के ऊपर भड़क गए पर बाद में ना जाने क्या कह कर उसने रविंद्र का ब्रेनवाश कर दिया और वह घर आकर मुझसे वही बात कहने लगे। उस दिन हमारी बहुत लड़ाई हुई और मैं सौरभ को लेकर मायके चली गईं।
मेरे मायके वालों को भी रविंद्र का ऐसा सोचना बहुत ही हैरान कर गया। उन्हें ऐसे पढ़े-लिखे लड़के से ऐसी उम्मीद नहीं थी।
थोड़े दिन बाद रविंद्र आए और मुझसे रो-रो कर माफी मांगी। मैं उनके साथ वापस घर आ गई। सुबह जब मेरी आंख खुली तो मैं उसके बॉस को अपने पास लेटा हुआ देखकर सन्नाटे में आ गई। वह कुटिलता से मुस्कुरा पर मेरी ओर देख रहा था। रविंद्र ने रात को मेरे खाने में कुछ मिला दिया था जिसे खाकर मैं गहरी नींद में सो गई थी, और उसका पूरा फायदा उठाया गया था। सुरभि, तुम समझ सकती हो कि उस समय मैं कितना अपमानित महसूस कर रही थी। मुझे लग रहा था कि काश! धरती फट जाए और मैं उस में समा जाऊं। जिंदगी में इतना अपमान मेरा कभी नहीं हुआ था। एक रात में सब कुछ बदल गया था। मैंने सोचा अब मैं और जी नहीं सकती। मेरा मर जाना ही ठीक है। पर फिर मुझे मेरे बच्चे का ख्याल आया और मैं घायल नागिन की तरह फुंफकार उठी। मैंने जल्दी से इधर-उधर देखा तो मुझे एक बड़ी सी सेफ्टीपिन दिखाई दी। मैंने देर न करते हुए तुरंत उसे उठा लिया क्योंकि मैं उस राक्षस की आंखों को फोड़ना चाहती थी। लेकिन उसने अपनी बाजू को आगे करके अपनी आंखों को तो बचा लिया , पर अपनी बांह को मेरे घातक हमले से बचा न पाया। मैंने सेफ्टीपिन उसकी बांह में गाढ़ दी और एक लंबी लकीर खींच दी। वह दर्द से बिलबिला उठा और रक्त की धारा बह निकली।
वह बाहर की तरफ भागा और सीधा अस्पताल पहुंचा। अपनी करतूतों के कारण वह डॉक्टर को यह भी नहीं पता सकता था कि किसी ने मुझे सेफ्टीपिन से घायल किया है।
पूरे 6 महीने तक उसका इलाज चला और इस बीच उसने रविंद्र पर ऑफिस में एक बड़ी रकम का गबन करने का झूठा इल्जाम लगाकर रविंद्र को 10 साल के लिए जेल भिजवा दिया। मेरे हमले से चिढ़कर उसने ऐसा किया था।
डायबिटीज होने के कारण उसका वह घाव कभी नहीं भर पाया और उसमें कीड़े पड़ गए, जहर फैलने के कारण वह मर गया।
रविंद्र जेल में रहकर जब वापस आया तब वह बहुत कमजोर हो चुका था। उसके जेल जाने पर मैंने खुद मेहनत करके सौरभ को काबिल बनाया। कितनी भी मुश्किलें आई मैंने रविंद्र के पैसों को हाथ तक नहीं लगाया।
रविंद्र के जेल से वापस आने पर मैंने उसे साफ साफ कह दिया कि हमारा रिश्ता खत्म हो चुका है। पति-पत्नी की रक्षा करता है उसे बेचता नहीं है। तुम पति कहलाने के लायक नहीं हो और ना ही इस घर में रहने के लायक हो, फिर भी मैं तुम्हें इस घर में रहने दे रही हूं। तुम्हें खाना पानी और दवा भी मिलता रहेगा। तुम्हारे सारे अधिकारों को मैंने आग लगा दी है और अगर मैं तुमसे पहले मर जाऊं तो मेरी चिता को हाथ भी मत लगाना।”
रविंद्र ने कहा-“क्या तुम मुझसे इतनी नफरत करती हो?”
मैंने कहा-“तुम तो मेरी नफरत के काबिल भी नहीं हो।”
तब से आज तक मै ऐसे ही रहती हूं। यह बिंदी, चूड़ियां यह तो सिर्फ दुनिया को दिखाने के लिए दिखावा है।”
यह सब कुछ बता पर आशा जी रोते-रोते चुप हो चुकी थी।
सुरभि सब कुछ जान कर हैरान थी। उसके पास कुछ भी कहने के लिए शब्द नहीं थे। वह उठी और आशा जी के पैर छूकर उनके गले से लग गई।
स्वरचित
गीता वाधवानी दिल्ली
कितना गिर सकता है कोई, महज तरक्की पाने के लिए। कोई नपुंसक ही ऐसा घिनौना कद. उठा सकता है।
Absolutely