समझौता – कुमुद चतुर्वेदी

मुहल्ले के बच्चे बड़े आश्चर्य से उस साधु जैसी वेशभूषा जैसे आदमी को देख रहे थे।वह आदमी लंबी और घनी सफेद सन सी दाढ़ी व मूँछों के साथ ही गेरुये वस्त्र भी पहने हुए था।उसका साधु जैसा रहन सहन होते हुए भी सिर पर हैट और पैरौं में जूतों के साथ हाथ में एक सुंदर नक्काशीदार चाँदी की मूठ वाली छड़ी भी थी।बच्चों के साथ उनकी माँ भी उसको देख दो पल जरूर ठिठक जाती थीं। वह आदमी अपनी ही धुन में जाने क्या धीरे धीरे  गुनगुनाता और छड़ी घुमाता चला जा रहा था।दोपहर का समय था और मुहल्ले के कामकाजी आदमी जॉब पर जा चुके थे। घर में बस गृहणियाँ,वृद्ध और बच्चे ही थे। कुछ बच्चे किसी घर के बाहर झाँकते या खेलते दिख जाते थे।

          अचानक वह आदमी एक घर के सामने रुका और दरवाजा खटखटाने  लगा।अंदर से दरवाजा खुला और एक वृद्ध औरत ने उसे देख पीछे हटते हुए  कहा”कौन,क्या चाहिये?”वह आदमी आगे बढ़ा और वृद्धा के पैर पकड़कर बोला “अम्माँ,मैं जगन”,अम्माँ अचानक यह सुन उस आदमी के गले लग जोरों से रोने लगी”हाय बेटा तुम कहाँ चले गये थे?कोई ऐसे भी अपनी गृहस्थी,बच्चों और बूढ़े माँ,बाप को छोड़कर जाता है क्या?तुम्हें कितना खोजा हम सबने,दस साल बाद तुम आये हो तो इस वेश में।तुम्हें मैं अब कहीं नहीं जाने दूँगी।” जगन भी रोने लगा बोला”अम्माँ मेरी मति मारी गई थी। जाने मेरे ऊपर उस महंत ने कैसा जादू कर दिया था कि मैं उसकी बातों में आ गया था जब होश आया तो बहुत देर हो चुकी थी मैं उसके फंदे में पूरी तरह फँस चुका था,अम्माँ अब मैं कहीं नहीं जाउँगा मुझे माफ कर दो।”अम्माँ बोलीं” हाँ बेटा  अब हमें भी तेरे ही हाथों से मुक्ति मिलेगी  मरने पर।तुम्हारी दोनों बेटियाँ पढ़लिख कर नौकरी कर रही हैं। तुम्हारे बापू बिल्कुल अशक्त और लाचार हो चुके हैं,सारा घर बहू ने ही सँभाला हुआ है।वह यदि पढ़ी लिखी न होती और नौकरी न करती तो हम सब तो  इतने सालों में भूखों ही मर जाते।चलो बेटा हाथ मुँह धोकर कुछ खा पी लो।बापू भी तब तक जाग जायेंगे तब मिल लेना।”


        यह सुन जगन आँगन के नल से हाथ,मुँह धोकर आया तब तक माँ ने जलपान की प्लेटें लगा एक गिलास में दूध भी लाकर टेबल पर रख दिया था तभी अंदर से छड़ी टेकते वृद्ध सोहनलाल भी बाहर आ गये।वे जगन को देख थोड़ा अचकचाये पर जब पत्नि ने बताया कि  जगन लौट आया है तो वे भी आश्चर्य से देखते ही रह गये तभी जगन ने उनके पैर पकड़ कहा”मुझे माफ कर दो बापू,पता नहीं मेरे दिमाग में जाने क्या फितूर आ गया था और मैं साधुओं की मंडली के साथ ही चला गया था।पर वहाँ मुझे आप सब बहुत याद आते रहे,रात को सपनों में आप सबको देखता तो खूब रोता और वापिस आने का मन करता परंतु महंत जी ने मुझ पर पहरा लगा रखा था,जब महंत की मौत हो गई तब ही मैं वहाँ से निकल पाया हूँ।अब मैं कहीं नहीं जाउँगा बापू।”यह सुन सोहनलाल भी उसको गले लगा आश्वस्त कर आँगन में पड़ी खाट पर जा बैठे।जगन भी कुर्सी पर बैठ निश्चिंत हो जलपान करने लगा।

           थोड़ी देर बाद जगन की दोनों बेटियाँ एकसाथ घर में घुसीं,और गेरुये वस्त्रधारी आदमी को देख थोड़ा रुकीं पर फिर अंदर आईं तो उनकी दादी ने दोनों को अपने पास बुलाकर जगन का परिचय दिया कहा”अपने पिता का आशीर्वाद लो बेटा”।जगन भी दोनों की ओर बड़े प्रेम से आगे बढ़ा तभी वे दोनों पलटकर अंदर कमरे में चुपचाप चली गईं।जगन ठगा सा देखता रह गया तभी उसकी माँ बोली “कोई बात नहीं बेटा उनकी माँ आती होगी वह उनको समझा देगी ,अब वे भी बेचारी क्या जानें तुमको।तुम गये थे तब तो वे बहुत छोटी भी तो थीं,भूल गईं हैं वे  तुम्हें ।”जगन फिर बैठकर जलपान करने लगा।बगल में बैठीं अम्माँ पूरे गाँव,मुहल्ले के किस्से विगत बीस सालों के उसे याद कर करके सुनाती रहीं।

          तभी बहू सावित्री ने घर में प्रवेश किया और एक अजनबी को देख थोड़ा ठिठकी।उसे देख अम्माँ खुश हो बोलीं “आओ बहू देखो तो कौन आया है?” सावित्री अपने कंधे का बैग उतार सिर पर पल्ला सँभाल अम्माँ के पास आ जगन को देख वापिस मुड़कर जाने लगी कि तभी अम्माँ ने उसका हाथ पकड़ रोका और बोली”बहू इसे माफ कर दो,अरे सुबह का भूला यदि शाम को घर आ जाये तो भूला नहीं कहलाता।ये बहुत शर्मिंदा है।अब हमारे परिवार में खुशियाँ लौट आई हैं बढ़कर स्वागत करो।”सावित्री ने अम्माँ के हाथ जोड़कर कहा”अम्माँ यदि मैं कुछ गलत बोलूँ तो मुझे माफ करना, मैं अपने जीवन में बहुत आगे बढ़ चुकी हूँ,मुझे अब किसी सहारे की जरूरत नहीं है।जब हमें बेसहारा कर ये आँख बंदकर चले गये थे हमारे बारे में कुछ नहीं सोचा तो अब हम क्यों किसी के बारे में सोचें ?हम अब खुद को सँभाल जीना सीख गये हैं तो फिर क्यों अपने जीवन को फिर से अतीत की ओर ढ़केलें?”तभी अम्माँ फिर बहू के हाथ जोड़ कुछ कहना चाहती थीं कि बहू ने उनके पैर पकड़ लिये और फिर  बोली”अम्माँ आप मुझसे अब कुछ न कहें, मैं आपसे विनती करती हूँ।इसके सिवाय आप जो भी कहेंंगी मैं सिर झुका मानूँगी।”



        अब अम्माँ ने हारकर अपने पति सोहनलाल की ओर देखा जो खाट पर बैठे चुपचाप सब देख रहे थे।अम्माँ बोलीं”तुम बहू से कुछ कहते क्यों नहीं?दस साल बाद बेटा आया है तो अब क्या उसे फिर से जाने दें?”सोहनलाल बोले “तुम और बहू दोनों ही अपनी जगह सही हो। बहू भी गलत कहाँ है?जब उसे सहारे की जरूरत थी बच्चियाँ छोटी थीं तब ये साहबजादे साधु बन भाग गये घर से और अब जब बहू ने घर कुशलता से सँभाल लिया तो फिर आ गये।अब आखिरी निर्णय बहू ही लेगी,जो वह कहेगी हम सबको मानना होगा।बोलो बहू तुम क्या चाहती हो?यह सुन बहू हाथ जोड़कर बोली”बापू जी और अम्माँ जी मैंने जिस दिन से इस घर में कदम रखा उसी दिन से आप दोनों को अपना माता ,पिता ही माना कभी आप दोनों की बात न काट  हमेशा आज्ञा की तरह माना पर आज मैं जो कहने जा रही हूँ उसके लिये माफी चाहती हूँ।बापूजी ने निर्णय मेरे ऊपर छोड़ा है तो मैं भी उनकी बात का सम्मान करते हुए कहती हूँ कि आप लोग अपने बेटे को घर में रख सकते हैं  पर मुझसे उनका कोई संबंध नहीं होगा।ये आपके बेटे और बच्चियों के पिता के रूप में इस घर में आराम से रह सकते हैं बस।”यह  कहकर सावित्री अपने ससुर और सास के पैर छूकर अंदर कमरे में चली गई।जगन सिर झुकाये बैठा सब सुनता रहा।

#समझौता

……..कुमुद चतुर्वेदी.

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