जोरू का गुलाम – ऋतु अग्रवाल

तुषा दीदी!आप,माँ और बच्चे खाना खा लीजिए। मैं आपके भैया और पापा जी के आने के बाद खा लूँगी।” राजिता ने खाने की मेज लगाते हुए कहा।

   “अरे भाभी! आप भी आ जाओ। साथ खाएँगे।”तुषा ने राजिता का हाथ पकड़कर कहा।

   “तो फिर रोटियाँ कैसे सकेंगी?”  माँ का स्वर थोड़ा तल्ख हो गया था।

    “अरे माँ! मैं और भाभी मिलकर रोटियाँ सेक लेते हैं फिर सब साथ बैठकर खाएँगे।” तुषा किचन की तरफ बढ़ते हुए बोली।

   “मुझसे ठंडी रोटी नहीं खाई जाएँगी और फिर ज्यादा बन गई तो बची रहेंगी। ऐसा कर राजिता, हमें तो तू गरम रोटियाँ ही खिला।” माँ ने तुषा़ का हाथ पकड़कर पास बिठाते हुए कहा।

राजिता रसोई में जाकर गरम रोटियाँ सेकने लगी।

तुषा हर बार यह नोटिस करती थी कि राजिता भाभी अकेले ही सारा काम करती। माँ उंगली भी ना छुआती थी किसी काम को।

रात को जब माँ और तुषा सोने लगे तो माँ  बतियाने लगी,”तुषा! तू बहू की आदत मत खराब कर। वैसे ही मयंक इसके आगे पीछे घूमता रहता है।अब देख,सुबह उठकर अपनी और बहू की चाय बना कर कमरे में ले जाएगा, फल सब्जी ले आएगा, रात को भी रसोई समेटने में इसकी मदद करता है और दिन में दो-तीन फोन तो करता ही है। पूरा जोरू का गुलाम बन गया है तेरा भाई।”

   माँ की इन बातों को सुनकर तुषा का मन खट्टा हो गया। जानती थी कि समझाने से तो माँ मानेगी नहीं। इन्होंने आज तक किसी की कोई बात समझी है क्या? हमेशा अपनी ही चलाई है। तब उसने अपने बच्चों को कुछ समझाया।

  अब जितने दिन तुषा मायके में रही, उसके बच्चे बार-बार कहते कि हम नानी के यहाँ आए हैं,अब नानी हमारे घर चलेंगी। माँ कहती,”अरे नहीं! मैं क्या बेटी के घर जाते अच्छी लगूँगी।”

  पर एक बात को बार-बार कहा जाए तो वह कहीं ना कहीं दिमाग में घर करने लग जाती है।



    बच्चों के साथ पापा जी और मयंक कहने लगे कि कुछ दिन के लिए चली जाओ,तुम्हारा दिल बहल जाएगा।सबके बार बार कहने पर माँ ने तुषा के घर जाने का कार्यक्रम बना लिया ।

  “तुषा! तुम बैठो, माँ !आप भी आराम से बैठिए।” तुषा के पति पंकज ने  सबको पानी पिलाते हुए कहा। माँ और तुषा ए.सी. की ठंडी हवा में अपनी थकान उतारने लगे। बच्चे धमाचौकड़ी करने लगे। दस मिनट में ही पंकज चाय नाश्ते और बच्चों के लिए बनाना शेक लेकर हाजिर हो गए। यह देखकर माँ का मुँह खुला का खुला रह गया। तुषा धीरे से मुस्कुरा दी।

  अब तो हर रोज माँ यह देखकर विस्मित होती रहती कि पंकज अपने ऑफिस जाने से पहले और आने के बाद घर के छोटे-मोटे काम जैसे कभी चाय बनाना, पौधों को पानी देना,बच्चों को कपड़े पहनाना और भी छुटपुट कामों में तुषा की मदद करता है। पहले तो माँ को अजीब लगा पर बेटी की मुस्कुराहट देखकर उन्हें दामाद का इस तरह मदद करना अच्छा लगने लगा।

“आज कोई रसोई में नहीं जाएगा। आज बंदा सबके लिए पकौड़े बनाएगा।”बेसन के घोल में सने हाथों से रसोई के दरवाजे पर खड़े पंकज ने मुस्कुरा कर कहा, “आज मेरी छुट्टी है, आज का नाश्ता मेरी तरफ से।” तो तुषा माँ का हाथ पकड़कर डाइनिंग टेबल पर ले गई। जल्दी ही पंकज पकौड़े और चाय की ट्रे के साथ आ गया। सब गरम पकोड़ों का स्वाद ले रहे थे कि मां बोली, “मेरा दामाद तो हीरा है हीरा। मेरी बेटी को कितना प्यार करता है?”

     “प्यार नहीं माँ इसे गुलामी कहते हैं। आप का दामाद तो जोरू का गुलाम है।” तुषा ने जोर से कहा।

   “तू पागल है क्या? भला अपने पति को ऐसा कहता है और उनका प्यार तुझे गुलामी लग रहा है।” माँ ने लगभग तुषा को डाँटते हुए कहा।

  “बस यही मैं आपको समझाना चाहती थी कि अगर पति पत्नी की थोड़ी मदद कर दे तो उसे सहयोग और प्यार कहते हैं ना कि गुलामी। जब आप जोरू का गुलाम वाला टाइटल भैया के लिए इस्तेमाल करती हैं तो भैया और भाभी का मन कितना आहत होता होगा?” उसकी आँखें भर आई।

  “जी माँ! अगर इतनी मदद पुरूष अपनी माँ और बहन की करता है तब तो कोई नहीं कहता कि माँ का गुलाम !बहन का गुलाम !पत्नी की जरा सी मदद करने करते ही उसे जोरू का गुलाम कहकर ताने जाते हैं। यह तो गलत है ना।”पंकज ने मां से मुखातिब होकर कहा।       

  “मेरे बच्चों पर हमेशा से यही होता आया है।पता नहीं क्यों समाज पुरुषों को इस प्रकार के ताने देकर प्रताड़ित करता है।” माँ के स्वर में अपराध बोध था।

“मेरी प्यारी माँ! जरूरी नहीं कि जो हमेशा से होता होता आया है वह हमेशा ही चलता रहे।हमें बदलाव की शुरूआत स्वयं से करनी होगी।” तुषा ने मां के गले में बाँहें डालते हुए कहा।

माँ अपने अपने आप को और अपनी सोच को बदलने का संकल्प को मन में धारण करके मुस्कुरा रही थी और बेटे को जोरू का गुलाम टाइटल देने के लिए मन ही मन शर्मिंदा हो रही थी।

स्वरचित

ऋतु अग्रवाल

मेरठ

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