इंसानियत का रिश्ता – करूणा मलिक  : Moral stories in hindi

सेवकराम  , बाहर क्यों बैठे हो ? अंदर आ जाओ । बारिश के साथ तेज़ हवाएँ चल रही हैं । हाँ मैडमजी , इस बार तो ज़्यादा तेज़ हवा चल रही हैं । देखो , भगवान की क्या इच्छा है ? शिखा को महसूस हुआ कि जैसे सेवकराम उसकी बात का जवाब न देकर अपने ही ख़्यालों में डूबा बोल रहा है । सेवकराम ! सुन रहे हो , अंदर बैठकर भी ड्यूटी हो सकती है ।

सर्दी की बारिश लग गई तो बीमार पड़ जाओगे । चाय पीओगे? आपकी बड़ी मेहरबानी मैडमजी , वरना मुझ जैसे छोटे से चपरासी के बारे में कौन सोचता है ? ऐसा क्यों कह रहे हो, सेवकराम ! छोटे और चपरासी की बात कहाँ से आ गई? ये लो चाय पी लो । कल रात से बारिश रुकने का नाम ही नहीं ले रही । रूकना तो बहुत कुछ चाहिए पर आदमी मजबूर है । कभी मोह में, कभी परिस्थिति से । हमारे हाथ में क्या है ? बस होने का भ्रम रहता है ।

सेवकराम की बहकी-बहकी बातें शिखा की समझ में नहीं आई पर हमेशा शांत रहने वाले सेवकराम का मन उद्विग्न था । सेवकराम को स्कूल के एक मेहनती, ज़िम्मेदार और ईमानदार चपरासी के रूप में पहचाना जाता था । संयोग की बात है कि शहर के जिस जाने-माने प्राइवेट स्कूल में शिखा ने नर्सरी से बारहवीं तक की पढ़ाई पूरी की, उसी में शिक्षा पूरी होने के बाद नौकरी मिल गई । स्कूल के हर बच्चे की तरह शिखा को भी सेवकराम अंकल सबसे अच्छे लगते थे ।

उसे आज भी याद है कि स्कूल के सभी बच्चे किस प्रकार “ अंकल-अंकल “ कहके उसे घेरे रहते थे । पाँचवीं तक जाते-जाते कब और कैसे अंकल से सेवकराम कहा जाने लगा , यह बात तो शिखा को भी याद नहीं है । हाँ, इतना ज़रूर याद है कि अंकल शब्द के संबोधन से उत्पन्न दूरियों का अंतर , नाम लेकर बुलाने से कितनी आसानी से मिट गया था । जब तक शिखा और उसके सहपाठी सेवकराम को घर की , मम्मी-पापा की , आस-पड़ोस की , आपसी लड़ाई-झगड़ों की और अध्यापकों की एक-एक बात न बता देते , उनका खाना हज़म नहीं होता था ।

सेवकराम! आपको पता है कि कल मैथ्स की मैम ने बिना बात के हमारी पूरी क्लास को डाँट दिया । मैम को कुछ याद तो रहता नहीं, हमारी कॉपी चेकिंग का दिन बुधवार है और कहने लगी कि तुमने कॉपी क्यों नहीं दी ? कोई बात नहीं, तुम्हारे टीचर हैं ना । कभी-कभी भूल हो जाती है । गुरू की बात का बुरा नहीं मानते । और सचमुच सेवकराम बच्चों के दिलोदिमाग़ से टीचर के डाँटने की बात बड़ी सफ़ाई से मिटा देते । सेवकराम ! कल दादी भाई के लिए नया कोट लेकर आई और मुझे उसका पुराना कोट दे दिया, मुझे ज़रा भी पसंद नहीं है । मैं तो नहीं पहनूँगी ।

हमेशा उसके छोटे कपड़े पहनने के लिए दे देते हैं । ना बिटिया रानी , नाराज़ नहीं होते , जो मिल बाँटकर खाते – पहनते हैं, उनके घर तो लछमी जी आती हैं । लछमीजी कौन होती हैं, सेवकराम ! धन की देवी होती हैं । जो बिना मतलब पैसा बर्बाद करता है, लछमीजी नाराज़ हो जाती हैं । भाई लंबा हो गया इसलिए उसके लिए तो लेना पड़ेगा पर तुम उसका कोट पहन सकती हो। शिखा को याद करके हँसी आ जाती है कि एक दसवीं पास चपरासी बाल मनोविज्ञान को कितनी बख़ूबी समझता था और वे सब भी सेवकराम की कही बातों पर कितना विश्वास करते थे ।

समय के साथ-साथ भोलापन समाप्त होता गया और सेवकराम के साथ होने वाले वार्तालाप में पुरानी पीढ़ी का स्थान नई पीढ़ी ने ले लिया । बरसों बाद जब एक अध्यापिका के रूप में शिखा ने अपने ही स्कूल में ज्वाइंन किया तो दिल में एक ख़ास ख़ुशी थी । अपने ही अध्यापकों के साथ एक सहकर्मी के रूप में कार्य करना उसे रोमांचित कर रहा था ।

अपने सभी टीचर्स से मिलकर और शुभकामनाएँ लेकर , अब शिखा की आँखें सेवकराम को ढूँढने लगी । पूछने पर पता चला कि मैदान की तरफ़ बैठा है । शिखा ने वहाँ जाकर जिसे देखा , वह सेवकराम तो उसकी कल्पना से परे था । सेवकराम ! पहचाना मुझे , शिखा, दो चोटी वाली मुटकी । हाँ हाँ, मैडमजी , नमस्ते । सेवकराम ! मैं तो तुम्हारी बिटिया हूँ । तुमने मुझे मैडमजी क्यों कहा ? क्यों नमस्ते की ? अब तो आप यहाँ मैडम हैं ।

और यही मेरी ड्यूटी है । शिखा कोशिश करके भी सेवकराम के दिए तर्कों से जीत न सकी । हमेशा साफ़ सुथरे कपड़ों में रहने वाले सेवकराम के कपड़े भी मैले दिखाई दे रहे हैं, दाढ़ी बढ़ी हुई है । उसके चेहरे की मुस्कान उदासी की चादर ओढ़े थी ।जिस दिन से शिखा यहाँ आई थी, उसने महसूस किया कि सेवकराम बहुत बदल गया है । शिखा चाहकर भी अपनी व्यस्तताओं के कारण किसी से उसके बारे में कुछ बात नहीं कर पाई ।

आज सेवकराम की बातों ने शिखा को बेचैन कर दिया कि आख़िर एक हँसते – मुस्कराते इंसान के बदलने के पीछे कौन सी मजबूरी छिपी है । छुट्टी के बाद शिखा ने गाड़ी स्कूल के गेट से निकाली ही थी कि सामने बस स्टाप पर खड़े सेवकराम पर नज़र पड़ी । बारिश अभी भी जारी थी । सेवकराम के पास जाकर शिखा ने कहा- सेवकराम ! बारिश हो रही है, आओ मैं तुम्हें छोड़ देती हूँ । नहीं मैडम जी , मैं चला जाऊँगा । अब मैं स्कूल से बाहर हूँ और मैडमजी नहीं , आपकी बिटिया हूँ—-

गाड़ी से उतरते हुए शिखा बोली । आज शिखा की ज़िद के आगे सेवकराम की एक न चली और वह गाड़ी में बैठ गया । इधर-उधर की बात करने के बाद सेवकराम ने आगे के मोड़ पर गाड़ी रोकने के लिए कहा पर शिखा ने ठान लिया था कि आज वह उसके घर जाकर ही रहेगी । दो- तीन संकरी गलियों को पार करके सेवकराम का घर आया । घर के नाम पर मात्र ईंटों का बना एक कमरा , पीछे बरामदा और वहीं टॉयलेट था ।

कमरे के एक कोने को ही रसोई घर का नाम दिया गया था । शिखा को इतना तो पता था कि सेवकराम का एक ही लड़का था । दोनों पति-पत्नी अपने बेटे को एक बेहतर भविष्य देने के लिए दिन- रात मेहनत करते थे । सेवकराम का बेटा उसी के स्कूल में पढ़ता था और शिखा का सीनियर था । पर घर की हालत जिस स्थिति को बयां कर रही थी, उससे देखकर तो ऐसा लगता था कि सेवकराम का परिवार तंगहाली में दिन गुज़ार रहा है ।

कुर्सी को अपनी पहनी हुई क़मीज़ की बाज़ू से साफ़ करते हुए सेवकराम बोला- बैठो बिटिया, दुलारी आती ही होगी । यहीं पास की दो- चार कोठियों में बर्तन साफ़ करने जाती हैं । उम्र तो नहीं रही पर , क्या करें बिटिया! वक़्त के मारे है । पर सेवकराम ! दुलारी आँटी को इस तरह घरों में जाकर बर्तन करने की क्या ज़रूरत है ?

गौरव भइया कहाँ हैं ? आपको भी अच्छी तनख़्वाह मिलती है । इतना सुनते ही सेवकराम की आँखों में पानी भर आया पर खुद पर क़ाबू करते हुए बोला – हाँ बिटिया, तुम्हें तो याद ही होगा कि गौरव पढ़ाई में कितना होशियार था । बारहवीं के बाद बी० टेक किया और वहीं आगे की पढ़ाई के लिए विदेश जाने का चस्का लग गया । मैंने बहुत समझाया कि कुछ साल नौकरी कर लो । तुम्हारी माँ की हालत ठीक नहीं रहती ।

बी० टेक में भी काफ़ी खर्च हुआ था । गाँव में भी माँ- बापू के लिए पैसे भेजता था । विदेश भेजने के लिए मुझ जैसे छोटे से चपरासी के पास भला कहाँ से पैसे आते । उसने बैंक से लोन लेकर जाने की ज़िद पकड़ ली । हमने भी सोचा कि चलो बड़ी नौकरी मिल जाने पर लोन तो उतार देगा । किसी न किसी तरह पैसों का इंतज़ाम करके भेजा पर पढ़ाई पूरी करके देश लौटने के आठ दिन पहले किसी ने मेरे…….बच्चे….को मार….. इतना कहते-कहते सेवकराम हिचकियाँ लेकर रोने लगा ।

शिखा के तो एकदम करंट सा लग गया । सेवकराम रो-रोकर आपबीती बताए जा रहा था पर शिखा के कानों के साथ पूरा शरीर सुन्न हो चुका था । पता नहीं, वह कब तक गुम होकर बैठी रही और सेवकराम अपने दिल में दबे दुख को बाँटता रहा । अगले दिन शिखा ने स्कूल के स्टाफ़ को सारी बात बताई तो सभी हैरान रह गए कि सेवकराम के बेटे के साथ हुए हादसे की तो जानकारी थी पर बेटे की शिक्षा के लिए लिया हुआ

बड़ा लोन चुकाने के लिए दोनों पति- पत्नी किस प्रकार अपनी ज़रूरतों की भी अनदेखी कर रहे हैं, इस बात का ज़िक्र सेवकराम ने कभी किसी के सामने नहीं किया था । दो दिन के भीतर शिखा के प्रयासों से सभी ने मिलजुल कर पैसे इकट्ठे किए और दो लाख रूपये की राशि उसके सैलरी अकाउंट में जमा करवा दी । साथ ही अध्यापकों ने शिखा को लोन की पूरी जानकारी पाने की ज़िम्मेदारी सौंपी ताक़ि ज़रूरत के अनुसार उसे सहायता दी जा सके ।

करूणा मलिक 

 

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