फैसला – संगीता त्रिपाठी : Moral stories in hindi

 कितना अच्छा लगता हैं जब कोई तुम्हे “यू डीज़र्व “कह तुम्हारा हौंसला बढ़ाता हैं। कुछ उदास स्वर में कल्पना ने कहा तो मै चौंक पड़ी। हमेशा सब के बीच हँसने खिलखिलाने वाली कल्पना के मुँह से पहली बार ये उदास स्वर सुना।

   कल्पना एक बढ़ती उम्र की महिला, जो हमेशा एनर्जी से भरी रहती।जिसके पास आ सब अपना दुख -दर्द भूल जाते।घर से भी वो सबको सुखी लगती थी । कमी भी तो कोई नहीं थी। बढ़ती उम्र के दो बेटे, दोनों ही अच्छी शिक्षा ले कर अच्छी जॉब में आ गये थे। बड़े बेटे के ब्याह में तो हम सहेलियों ने खूब मस्ती की। कहीं कल्पना से ईर्ष्या भी हुई। इतना केयर करने वाला पति, हर समय आवाज देते रहते। प्यारी सी एक बहू, दूसरी भी चंद दिनों में आने वाली हैं, सब कुछ तो हैं कल्पना के पास, फिर ये उदासी क्यों..? मन के प्रश्नों को विराम दे, मै अपने घर के काम में मशगूल हो गई।

        पर जाने क्यों, इस बार कल्पना की उदासी छू गई।मैंने फैसला कर लिया उसकी उदासी का कारण जान कर रहूंगी।

अगले दिन काम खत्म कर मै बिना पूर्वसूचना के कल्पना के घर पहुंची। कॉलबेल पर हाथ रखा ही था कि अंदर से आती आवाज ने मुझे रोक दिया।

“तुम दिन भर करती क्यों हो,घर के कामों के लिये नौकर हैं, फिर भी कभी शर्ट का बटन टूटा मिलेगा तो कभी खाना समय पर नहीं बना होता हैं। जबकि अब तो बहू भी रसोई में रहती हैं “खीझते हुये केशव बाहर निकले,

   मुझे देख हतप्रभ हो गये।अपने को संयत कर बोले -अरे पूनम जी, कब आई।

शायद वो जानना चाहते थे कि मैंने उनकी बात तो नहीं सुनी।

“जस्ट अभी आई हूँ भाईसाहब, कल्पना के साथ थोड़ा बाहर जाना था तो उसे लेने आई हूँ।” थोड़ा राहत की सांस ले वे बोले, “अच्छा कल्पना ने तो बताया नहीं, उसे बाहर निकलना हैं “

       “उसे भी नहीं पता भाई साहब, वो तो मुझे अचानक कुछ खरीदना था तो मैंने सोचा कल्पना की पसंद अच्छी हैं तो उसे ले लूँ.”।

           तब तक कल्पना भी बाहर आ गई। उसकी पनीली ऑंखें देख मुझे अच्छा नहीं लगा। कल्पना को तैयार होने को कह, मै बैठ कर पत्रिका पढ़ने लगी। कल्पना की बहू पानी का गिलास ले आई। तब तक कल्पना तैयार हो आ गई थी। पनीली ऑंखें काजल की बारीक़ रेखाओं में छुप गई थी होठों पर गहरी लिपस्टिक, अनकही व्यथा को अपने शोख रंग में छुपाने में सफल हो रही थी।मेरा मन उदास हो गया.., स्त्री की ये कैसी विवशता है, उदासी पर भी बड़ी खूबसूरती से मुस्कान का मेकअप कर लेती।

     यूँ अचानक मॉल क्यों जाना पूनम, कल्पना ने पूछा तो मै बोल पड़ी -“तेरे साथ कॉफी पीने का मन कर रहा था।” अरे कॉफी तो मै तुझे घर में ही पिला देती।”

 मै कैसे कल्पना को बताती, मेरा लेखक मन, कल्पना की उदासी जानने को व्याकुल हैं,।

   “छोड़, घर में तेरी बहू भी रहती, फिर हम मस्ती कहाँ कर पाते, गंभीरता कएक्टिंग करनी पड़ती।”

          मै और कल्पना मॉल पहुँच गये, शॉपिंग करके हमेशा की तरह कॉफी शॉप में बैठे। तब मैंने कल्पना से पूछा। पहले तो कल्पना टालती रही फिर टूट गई,

“सब को लगता हैं मेरे पति मुझे बहुत प्यार करते हैं, तभी तो इतना ध्यान रखते हैं, पहले मै भी इसे केशव का प्यार समझती थी, बाद में समझ में आया ये प्यार नहीं, वे बेहद पजेसिव है मेरे प्रति,उनको हर काम अपने हिसाब से चाहिये। मै अपनी मर्जी से कुछ नहीं कर सकती।अगर वे कहेँगे पार्टी में मुझे नीली साड़ी पहननी हैं तो मुझे वही साड़ी पहननी पड़ती, मै अपनी मर्जी से कोई रंग या ड्रेस नहीं पहन सकती हूँ। उनको कभी लगता ही नहीं कि मै कोई काम उनके बिना अच्छे से कर पाऊँगी। मै कुछ भी ख़रीद कर लाऊँ केशव सबमें कमियाँ निकाल देते हैं।मुझे बाहर ही नहीं घर में भी मिसेज केशव के चोले में रहना पड़ता हैं।परजीवी का नाम सुना हैं ना, बस केशव मुझे वही बना रखा हैं,मेरे अंदर इतना आत्मविश्वास ही नहीं रहा कि मै उनके बगैर कोई काम ठीक से कर पाऊं। क्योंकि मै घर में रहती हूँ। मुझे इतना अनुभव कहाँ..।अब मुझसे कभी -कभी बर्दाश्त नहीं होता। पर घर की शांति के लिये चुप रह जाती हूँ।”

    . “कल्पना भाई साहब ऐसे तो नहीं लगते “.।

   “वही तो दिक्कत हैं, बाहर उनका व्यवहार इतना अलग होता हैं, कोई मेरी बात पर यकींन नहीं करेगा। सबको बाहर की चीजें ही दिखती हैं”।

     “तुमने विरोध क्यों नहीं किया कभी “मैंने आक्रोश से कहा 

     “किया था, पर सबने मेरी ही कमी बता कर चुप करा दिया। ये सब छोटी -मोटी बातें हर घर में होती हैं, एडजस्ट करना सीखो “।

        “चल इसका भी कोई उपाय करते हैं”..,कह मैंने कल्पना का मूड ठीक करने की कोशिश की।

कॉफी पी हम घर लौट आये। मन में बहुत प्रश्न थे। क्या कल्पना की व्यथा ठीक हैं। हमारी पीढ़ी वो पीढ़ी हैं, जिसे ये समझा कर ससुराल भेजा जाता था। वही तुम्हारा घर हैं। सब कुछ तुम्हे ही देखना हैं। माँ -बाप, भी बेटी की परेशानियों से हाथ खींच लेते थे। हम में से बहुत सी महिलायें हैं,जिनकी दुनिया पति और बच्चों के सिवा कुछ और भी हैं, पता नहीं। बहुत से ऐसे टैलेंट हैं जो, बच्चों की परवरिश और घर -परिवार सँभालने, अच्छी बहू, पत्नी,माँ बनने के चक्कर में खो जाते हैं। उनका भी कोई मान -सम्मान हैं ये भी वो भूल जाती हैं, या ये कह लो, इसे घर की शांति के पीछे रखती हैं। किसी एक को तो अपना अहम छोड़ना पड़ता हैं।

         कल्पना की प्रॉब्लम को मैंने अपनी दूसरी सहेली से डिस्कस किया। कल्पना बहुत अच्छा गाती थी।

हम सब सहेलियों ने फैसला लिया,कल्पना की पहचान उसे खुद बनाने के लिये प्रेरित करेंगे.।”

    “ना बाबा इतने समय बाद मुझसे शुरुआत नहीं होगी, साथ ही पति का गुस्सा कौन सहन करेगा “कह कर कल्पना ने पल्ला झाड़ अलग होना चाहा,

    “कल्पना जहाँ चाह होती है, वही राह भी निकलती है “

    कल्पना ने हथियार डाल दिया, पुराने हारमोनियम की धूल झाड़ एक बाऱ कल्पना फिर उठ खड़ी हुई।

       थोड़ा केशव जी ने हल्ला जरूर मचाया पर कल्पना ने अपनी कोशिश जारी रखी, व्यवधान आते रहे पर लगन से रास्ते के हर कांटे दूर कर वो आगे बढ़ी।

     अब कल्पना पहली वाली नहीं रही। उदासी छोड़ अब वो दिल खोल कर हँसती हैं, क्योंकि उसे अपना वजूद जीना आ गया। अपनी खुशियों की पहचान आ गई।साथ ही समझ में आया समय के साथ उसने अपनी खुशियों के लिये फैसले किये होते तो आज अवसाद की ओर ना जाती।

  “थैंक्स पूनम, अगर तुम साथ ना देती तो आज मैं यहाँ ना पहुँचती “एक बाऱ प्राइज लेने जाते समय कल्पना ने भरी आँखों से कहा।

  “यू डीजर्व डिअर “हौले से उसे हाथों को थपथपाते पूनम बोली.

केशव जी को भी समझ में आया,अब वक्त बदल गया है,हद से ज्यादा पजेसीव होना, रिश्तों को तोड़ने का काम करता हैं, क्योंकि अति तो हर चीज की बुरी होती हैं। दूसरी बात घर चलाने वाली महिला भी उतने सम्मान की अधिकारी हैं, जितने आप। आप बाहर काम करते हैं तो महिला घर के अनगिनत कार्य करती हैं। आप सिर्फ अपना काम करते हो, वो घर के हर सदस्य का कार्य करती हैं,इस लिये सम्मान की हक़दार होती है।

      बदलते वक्त के साथ बदलने में ही भलाई है…., आत्मसम्मान से जीने के लिये कुछ कठिन फैसले लेना जरूरी होता है।

                               —संगीता त्रिपाठी 

   #फैसला 

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