एक जोड़ी आंखें – डा उर्मिला सिन्हा: Moral stories in hindi

जनवरी के सर्द महीने में मेरा सर्वांग जल रहा है-एड़ी से चोटी तक मैं क्रोध , घृणा और अपमान की भीषण ज्वाला में दग्ध हो रहा हूं। कहां  कमी रह जाती है……? इस विषय पर कई बार सोंच चुका हूं। अभी तंदूरी भट्ठी की तरह जलते तन मन से कोई भी सुकून देने वाली बात नहीं सोंची जा सकती है —

यह मेरी क्षुब्ध आत्मा अच्छी तरह जानती है।एक एक को देख लूंगा–अपनी तनी हुई मूंछों पर अनजाने ही हाथ फेरने लगता हूं। मुझे अत्याधिक गुस्से में देख मेरा वर्दीधारी ड्राईवर कीमती कार का दरवाजा खोल बिल्कुल सिकुड़ कर खड़ा हो जाता है। मेरे नसों का तनाव ढीला पड़ने लगा है ।

शायद भयभीत ड्राईवर को देख मेरे अहं को संतुष्टि मिलती है।
  पिछले तीन वर्षों से इस कम्पनी की नौकरी कर रहा हूं ।अति विशिष्ट पदों पर मेरी काबिलियत का डंका कुछ ऐसा बजा कि इस डूबती कम्पनी को मेरी तीव्र आवश्यकता महसूस हुई। उन्हें विश्वास था कि इस देशी कम विदेशी अधिक फर्म की उखड़ती हुई सांसों को मेरा मजबूत कंधा ही नवजीवन दे सकता है।

उन्होंने आनन फानन में मुझे आफर दे डाला। खतरों से खेलना मेरी फितरत है। जैसे कोई डॉक्टर मृतप्राय रोगी को स्वस्थ कर स्वर्गिक आनंद का अनुभव करता है उसी प्रकार  बिखरी ,टूटी , आर्थिक रूप से लाचार किसी भी कम्पनी को नये व्यवस्थित चमचमाते रूप में दुनिया के सामने पेश कर मैं अभिभूत हो उठता हूं।जब बड़े बड़े बिजनेसमैन,व्यवस्थापक , जाने माने हाई फाई चेहरे मेरे पीठ पर शाबासी का हाथ फेरते हैं तब मेरे चौड़े होंठ आन्तरिक खुशी से थोड़े और चौड़े हो जाते हैं।

“अब आज इससे अधिक सोंचने की स्थिति में नहीं हूं।” मैंने अपनी पीठ कार के सीट से सटा दी है।टूटन का यही एक क्षण है जब मैं किसी अप्राप्य के लिए बेचैन हो उठता हूं।प्रयासी आत्मा तड़प उठती है।
: इधर मेरी मेहनत फिर रंग लाई है-एकबार ऐसा प्रतीत होता है कि मेरे प्रतिद्वंदियों का मनोबल टूटा है।किरचों किरणों में बिखरा मेरा व्याकुल तन मन अपनी सफलता का संजीवनी पी आत्मविश्वास से लबरेज है।

मातृविहीन मैं पिता के कठोर अनुशासन में पला बढ़ा। मेरी बुद्धि इतनी कुशाग्र थी कि कभी भी किसी परीक्षा में द्वितीय स्थान पर नहीं रहा। जहां भी कोशिश की प्रथम स्थान पर रहा।”शायद उसके पीछे मेरी स्वर्ग वासी मां का आशीर्वाद है या पिता के कठोर अनुशासन का प्रतिफल।”
मेरी छोटी सी गलती पर पिता मुझे कठोर दंड जरूर देते थे शायद यही मेरे अवचेतन मन में बैठा है मैं भी अपने मातहतों को क्षमा नहीं कर पाता।क्षमा मेरे शब्द कोष में है ही नहीं ।दण्ड देकर मुझे आत्मतुष्टि मिलती है।मेरा जुझारू व्यक्तित्व जब-तक अपनी बात मनवा नहीं लेता चैन की सांस नहीं लेता। परिणाम सर्वविदित है मेरे क‌ई। दुश्मन उठ खड़े होते हैं ।मगर उनकी कुटिल कुचक्रो को मैं अपनी तेज रफ्तार कार्रवाईयों से कुचल डालता हूं।
कामयाबी, कामयाबी और कामयाबी यही मेरे जीवन का मूलमंत्र है। समृद्धि और प्रगति के इस आयाम पर पहुंचकर भी मेरा मन कुछ खोजता सा है।

मनचाहा हासिल नहीं होने पर अपने आदर्श और उसूल के प्रति हृदय में श्रद्धा नहीं रह पाती। मेरी खुशियां विनष्ट होने लगती है। शक्ति छिन्न भिन्न होने लगती है। मैं पुनः अंधकार में भटकने के लिए विवश हो जाता है। मेरे अवचेतन मन में किस अलभ्य की चाह है मैं जान नहीं पाता…..।

अपने आप को पिंजरे में कैद पंछी की तरह पाता हूं।जो फड़फड़ा सकता है उड़ नहीं सकता। मेरे समक्ष कार्य क्षेत्र का विस्तृत आकाश पड़ा है उड़ान भरने के लिए —किंतु कभी कभी अपने पंखों में उस उत्साह , उमंग का सर्वथा अभाव महसूस करता हूं जो उनमुक्त गगन में विहार करने के लिए आवश्यक है। आखिर क्या चाहता हूं मैं ? क्या चाहिए मुझे ?


घर देर से लौटता हूं। दफ्तर, फाइलें,देशी -विदेशी हस्तियों के साथ आवश्यक बैठकें, शराब,कबाब, पार्टी, ठहाके मन से चाहे बेमन से अपने पेशे के उसूलों का पूरा ख्याल रखता हूं । लड़खड़ाते कदमों से घर पहुंचता हूं।खाकर लौटा हूं सभी जानते हैं। पत्नी को कमरे में नहीं पाकर चौंक उठता हूं। आवाज लगाना चाहता हूं किन्तु गला प्यास से जल रहा है ।”पानी ,ठंढा पानी “आवाज लड़खड़ा जाती है। अधिक पी लेने से मितली सी आ रही है।

इतनी रात गए पत्नी कहां जा सकती है । किसी से पूछना चाहता हूं पर इच्छा नहीं होती।
सेवक पानी का गिलास आगे बढ़ाता है, एक ही घूंट में सारा पानी पी जाता हूं। पत्नी जया का फिर भी अता-पता नहीं। सिगरेट सुलगा लेता हूं। गहरी सांस लेकर धुंआ छोड़ता हूं।धुंए के बादल में कुछ खोजने का प्रयास करता हूं। क्या……?

कुछ समझ नहीं पाता । हरबार कि तरह इस बार भी मैं मेरी खोज अधुरी रहती है। पैरों में चप्पल डाल –“एक चक्कर राहुल के कमरे का लगा लूं__”बुदबुदाते हुए बेटे के कमरे का दरवाजा परे ढकेल देता हूं। अंदर नाइटवल्व का दुनिया प्रकाश फैला हुआ है। मेरी पत्नी जया और बेटा राहुल एक दूसरे से लिपट गहरी नींद में
सोये हुए हैं। कीमती और खूबसूरत अलंकरणों से सजा हुआ है।दुधिया रोशनी में जगमगाता हुआ कमरा किसी परीलोक की तरह प्रतीत हो रहा है।

“जया, राहुल “मैं चीखना चाहता हूं । तभी मेरी नजर अपने ग्यारह वर्षीय पुत्र राहुल और पत्नी जया के शांत, सौम्य, संतुष्ट चेहरे पर पड़ती है। मां से _लिपटा राहुल कैसे चैन की नींद सो रहा है। पुत्र को अपने अंक से लगाए जया भी किसी गरिमा मयी देवी से कम नहीं लग रही है। मेरी आंखें उनके इस रूप को जी भरकर देखना चाहती है। एक अद्भुत सम्मोहन से वशीभूत हो चुका हूं। मैं जया के सार्थक मातृत्व और राहुल के निश्छल बालपन के सम्मिश्रण से अभिभूत हो जाता हूं।

मेरी चीख गले के अन्दर घुटकर रह गई।
मातृविहीन मैं कभी भी मां के अंक लगकर नहीं सोया , मां के प्यार को नहीं जाना । अपने मित्रों को अपनी मां के लाड़ प्यार में पलते देखता तो इर्ष्या  सी होती। मां मेरे लिए दुर्लभ वस्तु थी। अन्य बच्चों को पिता प्रदत्त दण्ड मिलता तो मां के आंचल की ठंढी छांव भी मिलती। पर मेरी कहानी अनोखी थी।
  पिता मारते डांटते फिर प्यार भी जताते किंतु उसमें सिर्फ कर्त्तव्य पालन होता  । हृदय की शांति नहीं। मुझे यहां अद्भुत शांति मिल रही थी। मां बेटे के चेहरे से आंखें हटाने का मन नहीं कर रहा था।नशा हिरन हो चुका था। वात्सल्य प्रेम का अनुपम उदाहरण मेरे सामने था। कलेजे में पहली बार मां के नहीं होने का अभाव टीस बनकर उभरा। मैंने बैठने के लिए। कुर्सी खिंची।चर्र की आवाज से जया उठ बैठी। सामने मुझे देख चौंक उठी मैंने उसके सुख स्वप्न में बाधा डाली थी अतः क्षमाशील हो उठा।
“क्या बात है जया।”
“अरे, राहुल थोड़ा डर गया था।”
“क्यों’! मैं चिंतित हो उठा।
“कुछ नहीं दिनभर डरावना कामिक्स पढ़ेगा तो क्या होगा। चलिए।”
“नहीं, तुम यहीं सो जाओ कहीं राहुल फिर डर गया तो ……”मुझे चिंतित देख जया को आश्चर्य होता है।
“नहीं, नहीं बच्चा है “कहती जया अपने कमरे में आ गई। मैं भी पीछे पीछे आ गया।जया तो सो ग‌ई पर मुझे नींद कहां। आज पहली बार जाना कि बच्चा डर भी सकता है।उसे मां के लाड़ प्यार की जरूरत होती है। इस घटना के पूर्व कभी भी राहुल इस तरह की बचकानी हरकत करता तो मैं उसे बुरी तरह झिड़क देता था।जया का बच्चे को अत्याधिक लाड़-प्यार मुझे चोंचले लगते। पिछले पंद्रह सालों से जया मेरे साथ है। मेरे विस्फोटक क्रोध को अच्छी तरह जानती है किन्तु इस अप्रत्याशित क्रोध के पीछे क्या कारण है नहीं जानती ; मैं भी तो नहीं समझ पाता।
पिता जी को बराबर दौरे में रहना होता था। मैं सात आठ साल का बच्चा नितांत अकेले रहता ।पढ़ता,स्कूल जाता और जो खाने पीने की चीजें रख जाते खा लेता। सोते समय डर लगता तो चादर से मुंह ढांप आंखें मींच लेता जोर से।
बरसात के मौसम में कड़कती, कौंधती बिजली और तेज बारिश के बीच एक बार मैं डर गया था।भय से होंठ नीले पड़ ग‌ए। कंपकंपा के तेज बुखार चढ़ आया । पिता जी दौरे से लौटे ।दवा दारू की। मैं ने रोते हुए कहा”पिता जी आप नहीं रहते हैं तो मुझे बहुत डर लगता है।”
“डर….!”
“हां, पिता जी ,डर से ही मुझे बुखार चढ़ आया था ..”; मैं गिड़गिड़ा उठा।पता नहीं मेरे बात का पिता जी पर क्या असर हुआ। तड़-तड़ दो जोरदार थप्पड़ मेरे दोनों गालों पर पड़ा।
“बेवकूफ डरता है । आगे से कभी डरा तो हड्डी पसली एक कर दूंगा।”बड़बड़ाते हुए पिता जी उठकर बाहर चले गए ।रोता हुआ मैं मार खाकर चुप हो गया। यकीन मानिए उसदिन से मेरा डर सचमुच गायब हो गया। मैं उस पत्थर के टुकड़े के समान था जिसे पिताजी सदृश जौहरी ने घिस घिसकर चारों ओर से नुकीला बना दिया था।

जो किसी के सिर में छेद कर सकता था, कपड़े फाड़ सकता था । मुट्ठी में भर लेने पर हथेली लहुलुहान कर दे सकता था। मेरे हृदय का स्नेह स्रोत कब का सुख चुका था । अनुशासन, कठोरता, निर्ममता , लक्ष्य सिद्धि। यही मेरा पर्याव बन चुका था।
कंपनी के काम से जबलपुर जा रहा हूं ।साथ में पत्नी और राहुल भी है। इनके साथ जाने का भी एक कारण है । विभागीय कार्य निपटाकर अपने पैतृक गांव जाउंगा। थोड़ी सी जमीन और एक पुराना मकान है बेचने की बात पक्की कर ली है।
प्राईवेट कंपनियां पैसा और सुविधाएं तो देती हैं मगर काम भी बड़ी बेमुरव्वत से लेती हैं।

मेरा अंग अंग टूट रहा है। दिमाग की नसें तनी हुई हैं। यही वह क्षण है जब मैं अपने आप को टूटता महसूस करता हूं। पत्नी मेरे तनावों को दूर करने का प्रयास करती है मगर वह कर्त्तव्य प्रेरित होता है । मेरी उपलब्धियों पर वह फूली नहीं समाती किंतु नाकामियों के लिए मुझे ही जिम्मेदार समझती हैं। खुलकर कुछ बोल नहीं पातीं । शायद मेरे तल्ख और अहंकारी स्वभाव के कारण।
कल्ह मुझे शहर लौटना है। पुश्तैनी मकान,जमीन भी कल ही राजिस्ट्री कर दूंगा।बचा खुचा समान कबाड़ी के हाथों बेंच देना है।भला, मेरे भव्य बंगले में इन टूटे-फूटे बेकार की वस्तुओं का क्या काम!
  “देखिए तो यह कौन है?”जया कबाड़ से एक पुरानी तस्वीर उठा लाई है।
“देखूं..”कौतूहल वश तस्वीर मैंने अपनी हाथों में ले ली। तस्वीर काफी पुरानी थी। उचित देखभाल के अभाव में उसका कचूमर निकल गया था।”मां मेरी मां की है यह फोटू…”अत्याधिक उत्तेजना से मैं कांपने लगता हूं। विस्मृत  मां की दुर्लभ तस्वीर मेरे सामने थी । सीधी सादी मां की दो बड़ी बड़ी स्फटिक सी आंखें मेरे चेहरे पर गड़ी हुई थी।

निर्जीव फोटो से मृत मां की एक जोड़ी आंखें मुझे निहार रही थी। एक तेज , शीतल ,स्निग्ध किरण मेरे ह्रदय के आर पार हो रहा था। मेरे समस्त भ्रान्तियों का उपचार उन एक जोड़ी आंखों की मूक भाषा में थी। इन्हीं आंखों की चमक खोजता था मेरा प्यासा मन।
  मैं जब उपलव्धियों की ऊंचाइयों को छूता था या फिर चक्रव्यूह में फंसता था तो शायद इन्हीं आंखों की रौशनी ढूंढता था जो मुझे सही रास्ता दिखाए। उसी एक जोड़ी आंखों की तलाश थी मुझे वह आज पूरी हुई।मृगमरीचिका की तरह मेरा प्यासा ,दग्ध ह्रदय यत्र तत्र भटका करता था । मुझे मेरी मंजिल मिल गई। अब मुझे कोई भी पराजित नहीं कर सकता। मेरे साथ मेरी मां की एक जोड़ी आंखें जो है स्नेह कवच के रूप में।
“मैं यह मकान नहीं बेचूंगा।”
“क्यों ,….” जया चौंक उठी।
“इसे स्मारक बनाऊंगा , मां और पिता जी का। यह मेरे माता-पिता का मंदिर है। दो महीने की छुट्टी ले रहा हूं । अपने पूर्वजों के इस धरोहर का पुनरूद्धार कराउंगा।”
जया मेरी बातों में सच्चाई का अंश पाकर  टुकुर-टुकुर मेरी ओर देखने लगती है..
  .किस्मत का खेल देखिये मैं अपनी पुश्तैनी हवेली बेचने आया था और आज अपनी माँ की एक जोड़ी आंखों  से साक्षात्कार ने मेरा हृदय परिवर्तन कर दिया… अब पुरखों की  निशानी का  पुनरुद्धार कराऊंगा।

सर्वाधिकार सुरक्षित मौलिक रचना -डाॅ उर्मिला सिन्हा©®

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