” सुनिए जी.. बाहर वाला कमरा कब तक तैयार हो जाएगा?” सरिता कमरे के अंदर आते हुए प्रकाश से बोली।”दस बारह दिन और लगेंगे?” सरिता की तरफ बिना देखे ही प्रकाश बोला।
“अभी पूरी दीवार बननी बाकी है..आप दो चार मजदूर बढ़ा क्यो नही देते..काम और जल्दी हो जाएगा?” सरिता झुंझलाते हुए प्रकाश से बोली। “जैसी तुम्हारी मर्जी?”कहकर प्रकाश शान्त हो गया। वह सरिता से बहस नही करना चाहता था।वह रोज की किच-किच से तंग आ चुका था।
प्रकाश का मन अनगिनत अनसुलझे सवालों का जवाब ढूंढ पाने मे असमर्थ था। वह सोच रहा था।” क्या ये वही सरिता है..सीधी सादी शर्मीली..पांच वर्ष पहले वाली सरिता..जब वह इस घर मे आई थी..भैया भाभी बच्चे सभी लोग कितने खुश रहते थे..दो वर्ष पहले जब वह मां बनी..बस बदलने लगी उसकी सोच..वह भटक गई थी..या उसे कोई भटका रहा था..उसके घर के लोग..रिश्तेदार,समझ पाना मुश्किल था..जिस बड़े भैया भाभी ने उसकी शादी सरिता के साथ कराईं थी..हर वो फर्ज निभाया..जो मां बाप बच्चो के साथ निभाते है.. सरिता की नजर मे आज वो गंवार और असभ्य हो चुके थे,” वह चाहकर भी कुछ नही कर सकता था। सरिता की ज़िद के आगे वह मजबूर हो गया था। और एक हंसता खेलता घर टुकड़ों मे बंट रहा था।
रात के नौ बज रहे थे। “चलिए खाना तैयार है”सरिता ने प्रकाश से कहा। “मुझे भूख नही है..तुम खा लो”प्रकाश पलंग पर अपने बेटे आयुष को लेटाते हुए बोला।”आप को तो बस एक बहाना चाहिए..मुझे जलील करने का..हमेशा मेरा ही दोष नजर आता है आपको?” सरिता चिल्लाते हुए प्रकाश से बोली।
तभी बाहर की तरफ से गाना गाने और किसी महिला की खिलखिलाहट की आवाज सुनाई दी।” अरे ये मजदूर लोगो ने घर मे ही नौटंकी करना चालू कर दिया है?”सरिता गुस्साते हुए प्रकाश से बोली।” दिन भर काम करने के बाद बेचारे हंस बोल रहे है..तुम्हे तो किसी का हंसना बोलना पसंद नही है,”प्रकाश पलंग पर लेटते हुए बोला।”तुम लेटे रहो मैं अभी जाकर देखती हूं क्या हो रहा है?”वह अपनी आदत के अनुसार चुपचाप दबे पांव बाहर की ओर निकल गई।
सामने का दृश्य देखकर सरिता को आत्मग्लानि महसूस हो रही थी। भाई भाभी और देवर का प्रेम देखकर..छोटा भाई अपने भाई भाभी का पैर छूकर शर्मा रहा था। और वे दोनो कुछ बोलकर जोर जोर से हंस रहे थे। सामने उनका छोटा सा बेटा उछल-कूद मचा रहा था। सब कुछ बिल्कुल अलग था। भाभी बड़े प्यार से अपने पति और देवर को अपने हाथो से खाना खिला रही थी।वे दोनो भाई भी बीच-बीच मे उसे अपने हाथ से खाना खिला रहे थे। “कितने खुश हैं ये मजदूर लोग..दिन भर एक साथ कठोर परिश्रम करना..सभी एक दूसरे के प्रति समर्पित..न कोई लालच है न ईर्ष्या,” सरिता मजदूरों का आपस मे प्रेम और विश्वास देखकर खुद से ही बाते करने लगी। उसे इन गरीब मजदूरों का आपस मे प्रेम देखकर जीवन के सच का एहसास हो गया था।
सरिता चुपचाप वापस आकर पलंग पर लेट गई।”क्या हुआ बड़ी देर नौटंकी देखने लगी?”प्रकाश ने पूछा। सरिता की आंखो से आंसू छलकने लगे।”आप मुझे माफ कर दिजिए..बड़ी ही अच्छी नौटंकी थी..जिसने मुझे रिश्तों की सच्चाई का एहसास करा दिया..और मेरी आंखें खोल दीं?” सरिता प्रकाश की बाहों से लिपटकर जोर-जोर से रोए जा रही थी।
माता प्रसाद दुबे,
मौलिक एवं स्वरचित,