एक बुढ़ापा ऐसा भी – पुष्पा जोशी Moral Stories in Hindi

 ‘अरी रजनी  यह क्या चाय में कितनी शक्कर डाली है, तुम्हारा तो दिमाग ही फिर गया है। साठ साल की हो गई हो, थोड़ा सठिया गई हो।’  रजनी कपड़े सुखा रही थी। उन्हें सुखाना छोड़कर आई और बोली ‘अच्छा जी, मैं सठिया गई हूँ, और आपका दिमाग तो बिलकुल सही है कल चश्मा ऑंखों पर चढ़ाए पूरे दो घण्टे उसे  ढूँढते  रहै। मैं भी मजा लेती रही, वरना मैंने तो पहले‌ ही देख लिया था। पर आप  जो बात-बात पर मुझे कहते हो ना कि मैं सठिया गई हूँ, मुझे अच्छा नहीं लगता।’   रजनी की त्यौरिया चढ़ गई थी।    ‘पर, मुझे तो अच्छा लगता है ना, तुम्हें चिढ़ाने में मजा आता है रज्जो!

आगे से नहीं कहूँगा। अच्छा अब गुस्सा छोड़ो और यह चाय पीलो आधी मैंने पी ली है। अब ज्यादा नहीं पी पाऊँगा।’  रजनी ने चाय का गिलास उठाकर चाय पी और कहा- ‘चाय तो अच्छी बनी है, मीठी कहाँ है? बेकार ही मुझे सठिया गई हो, सठिया हो कहते रहते हो। ‘   ‘तुम सीधी तरह से मानती कहाँ हो,

अगर मैं कहता कि आधी चाय तुम पी लो तो क्या तुम मानती। क्या मुझे नहीं पता कि आज दूधवाला अभी तक नहीं आया है, बचे हुए दूध की तुमने मेरे लिए पूरा गिलास चाय बनाई  क्योंकि तुम्हें मालुम है कि मैं सुबह एक गिलास चाय पीता हूँ। तुम्हें भी तो चाय की जरूरत थी। मुझे पता है तुमने चाय नहीं पी।’    ‘तो मैं थोड़ी दैर से पी लेती, दूध वाला आता ही होगा। बेकार में बात का बतंगड़ बना दिया।’ रजनी ने बनावटी गुस्सा दिखाते हुए कहा। चेहरे पर आई झुर्रियों के साथ उसके गोरे कपोल पर लालिमा आ गई थी। यह प्यार था

दोनों के बीच जो बढ़ती उम्र में और प्रगाढ़ होता जा रहा था।दूध वाला आ गया नीरज दूध लेकर आया और बोला-  ‘तुम कपड़े सुखा दो, मैं चाय बनाता हूँ फिर साथ में पीऐंगे।’  उम्र के इस पड़ाव पर दोनों एक दूसरे का ध्यान रखते। नीरज सेवानिवृत्त हो गया था, मगर समय गुजारने के लिए एक दुकान पर बहिखाता लिखने का काम करता था। जीवन अच्छे से गुजर रहा था। इसका कारण था उनका आपसी तालमेल और एक दूसरे पर अटूट विश्वास। 

                    ये तो हुई नीरज और रजनी के वर्तमान जीवन की झलकी। और अब एक नजर इनके अतीत के पृष्ठों पर डालते हैं। दोनों बेहद सादगी प्रिय, खुशमिजाज, जिन्दादिल और दूरदर्शिता से काम लेते थे। व्यर्थ आडम्बरों से दूर जीवन के वास्तविक धरातल पर जीने वाले नीरज और रजनी हमेशा हर माहौल में खुश रहते थे।

नीरज एक बैंक में क्लर्क  की नौकरी करता था, और रजनी एक कुशल ग्रहणी थी। नीरज का बचपन एक छोटे से गॉंव में बीता।उसके  पिता रामदयाल जी का व्यवसाय था खेती करना, खुद के खेत थे और वे मेहनती थे। नीरज के दो बड़े भाई थे धीरज और कमल। रामदयाल जी ने तीनों बच्चों को पढ़ाने की कोशिश की ताकि वे अच्छी नौकरी कर सके, मगर धीरज और कमल का पढ़ाई में मन ही नहीं लगता था। आठवीं के बाद ही उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी, और पिता के साथ खेती करने लगे। रामदयाल जी ने बहुत समझाया मगर वे नहीं माने। नीरज पढ़ने में होशियार था। उसने बी. काम. की परीक्षा अच्छे नंबरों से पास की प्रतियोगी परीक्षा उत्तीर्ण की और उसे बैंक में नौकरी मिल गई।

धीरज और कमल की शादी हो गई थी। रमा, और पद्मा पढ़ी लिखी नहीं थी। नीरज की  भी शादी हो गई, रजनी बी.ए. पास संस्कारी लड़की थी। वह घर के माहौल के हिसाब से रहती थी और घर के काम भी व्यवस्थित रूप से करती थी। पर, रमा और पद्मा पता नहीं क्यों उसका खार करती थी, उससे ठीक से बात नहीं करती थी।

रजनी ने नीरज के सामने यह बात नहीं कही। नीरज की नौकरी पास के शहर में थी,वह चाहता तो वहीं रहने लगता, मगर वह अपने परिवार के साथ रहना चाहता था। वह सुबह सात बजे घर से निकलता, बस से शहर जाता और रात की नौ बजे घर आता। शादी के पॉंच साल हो गए थे, रजनी को कोई सन्तान नहीं थी। रमा और पद्मा दोनों के दो- दो बच्चे थे। वे रजनी को ताना देने में नहीं चूकती थी। रजनी उनकी हर बात को हल्के में लेकर उड़ा देती। वह उनके बच्चों को ही अपना समझती थी। सोचती बुढ़ापे में

, ये बच्चे ही सहारा देंगे। नीरज की माँ का देहांत हो गया और रजनी की जेठानियों का साम्राज्य हो गया । दोनों मिलकर रजनी को हमेशा कुछ न कुछ कहती रहती थी। नीरज सुबह सात बजे घर से निकल जाता, तो रात की नौ बजे घर वापस आता। रजनी अगर बाजार का कोई काम होता तो बच्चों से करवा लेती थी। गाँव का माहौल था, घर की बहुओं का बाहर बजार में घूमना मर्यादा के खिलाफ था। रमा और पद्मा को यह बात अखरती थी कि उनके बच्चे रजनी का काम करें। 

             एक बार रजनी को तेज बुखार था, उसने मोहन (दिव्या का बेटा) से दवाई लाने को कहा तो वह बोली मेरा बेटा दिनभर तुम्हारा काम करेगा तो पढ़ाई कब‌ करेगा? उसने बेटे को दवाई लेने नहीं जाने दिया। रजनी की ऑंखों में ऑंसू आ गए। जब नीरज घर आया तो उसने रजनी से‌ कहा कुछ दवाई क्यों नहीं ली, किसी से मंगा लेती। रजनी कुछ नहीं बोली।

उसकी बड़ी भाभी ‘बोली भैयाजी आप तो दिनभर घर पर रहते नहीं हो ,आपके बच्चे भी नहीं है। हमारे बच्चे कब तक आप दोनों का काम करेंगे। आप भी शहर जाते समय काम बता जाते हो। रजनी भी दिनभर काम बताती है, ऐसा कब तक चलेगा।’ छोटी भाभी बोली ‘और नहीं तो क्या हमारे बच्चे पढ़ाई करे या दिनभर आपका काम ही करते रहै।रजनी से कई बार कहा, पर उसे समझ ही नहीं आता कि अपनी कुछ ओर व्यवस्था करे, न आपसे कभी कुछ कहती है।

‘ नीरज के पैरों के नीचे से जैसे जमीन खिसक गई, उसे सपने में भी यह उम्मीद नहीं थी। वह सोच रहा था कि वह जो बच्चों के कपड़े, खिलौने साड़िया और अन्य सामान लाता है वह तो ये भाभियाँ प्रेम से रख लेती है, और आज रजनी के लिए दवाई मंगाने के लिए मना कर दिया। वह कुछ नहीं बोला बस इतना कहा- ‘भाभी मैं जल्दी व्यवस्था कर लूँगा, आपको हमारा काम नहीं करना‌ पड़ेगा।’ वह रजनी के लिए दवा लाया उसे दवा दी।

उसके सिर पर हाथ रखा और पूछा -‘रजनी तुमसे भाभी इतना कहती थी, तो तुमने मुझसे कुछ कहा क्यों नहीं? उसके स्नेहिल स्पर्श को पाकर रजनी के अश्रु बहने लगे। वह बोली- ‘नीरज !हमारे बच्चे नहीं है, मैं इन बच्चों को ही अपना मानती हूँ। जब हमारा बुढ़ापा आएगा तो ये ही तो हमें सम्हालेंगे।’  ‘तुम बहुत भोली हो रज्जो आज तुम्हारी बिमारी हालत में जो तुम्हारे लिए दवा नहीं ला सके वे बुढ़ापे में क्या तुम्हारा साथ देंगे।

क्यों चिन्ता करती हो? मैं हूँ ना तुम्हारे साथ। भविष्य की चिंता में हम अपने वर्तमान की खुशियों को क्यों खोए। जब बुढ़ापा आएगा उससे भी निपट लेंगे। बस तुम मेरे साथ रहना।’ उसने रज्जो के दोनों हाथों को स्पर्श किया तो रज्जो ने उन हाथों को कसकर थाम लिया। यह मौन स्वीकृति थी रज्जो की जिसे नीरज ने महसूस किया। एक पल के लिए ऑंखें चार हुई, दोनों में एक चमक थी। यह स्वीकृति, यह चमक आज इस उम्र में भी बरकरार है। 

            दूसरे दिन नीरज और रजनी शहर आ गए। सम्पत्ति को लेकर भी कोई विवाद नहीं किया। किराये के एक छोटे से‌ कमरे में अपनी गृहस्थी की शुरुआत की। नीरज ईमानदारी से‌ कमाता। रजनी मितव्ययी थी। कुशलता से घर चलाती और बचत भी करती। दोनों सादगी से रहते, एक दूसरे पर अटूट प्रेम और विश्वास की डोरी थामें दोनों अपने गृहस्थ जीवन में खुश थे।

उन्होंने अपना एक सर्व सुविधा युक्त मकान बनवा लिया। नीरज का प्रमोशन हो गया था। दोनों का खर्चा ज्यादा नहीं था। उनके घर के पास एक गुरूकुल था, जहाँ अनाथ बच्चे रहते थे। और उन्हें वहाँ पढाया भी जाता था। नीरज और रजनी यथा सम्भव उन बच्चों की मदद करते।  उनके कपड़े, किताबे, खाद्य सामग्री या जिस वस्तु की उन्हें जरूरत होती, गुरूकुल के आचार्य से पूछकर उन्हें प्रदान करने की कोशिश करते। सप्ताह में हर रविवार को उनसे मिलने जाते और उनसे बातें करते।

बच्चों को भी अच्छा लगता और ये दोनों भी खुश थे।जीवन बहुत अच्छी तरह चल रहा था। दोनों अपने स्वास्थ के प्रति जागरूक थे। नीरज सेवानिवृत्त हो गया तो उसने एक दुकान में बहीखाता लिखना शुरू किया। अगर वो चाहता तो घर बैठे आराम से जीवन यापन करता, उन दोनों के लिए तो पर्याप्त धन था, मगर वह उन बच्चों की सतत मदद करना चाहता था।

इसके लिए उसने कुछ स्कीम में पैसा भी लगाया था, ताकि जब वो न रहैं तब भी एक निश्चित रकम उन अनाथ बच्चों को मिलती रहे। एक बार रजनी का स्वास्थ्य खराब हो गया, वह रविवार को अनाथ आश्रम नहीं जा पाई तो सारे बच्चे उससे मिलने घर पर आए और कहा -‘आपको दवाई लाना हो, या कुछ भी काम हो आप हमसे कहना, हमें काम करने में खुशी‌ होगी।’  सबने अपने फोन नंबर नीरज को दिए। नीरज ने कहा -‘बच्चों हमारा तुम्हारे सिवा है कौन? अभी तो हम सक्षम है।

पर जब असमर्थ हो जाए, या हम दोनों में से कोई चला जाए तो उसका ध्यान रखना।’ कहते हुए नीरज भावुक हो गया था। बच्चों ने कहा अंकल आप और आंटी चिन्ता न करें, हम सब आपके है, आपने जो स्नेह दिया वह अनमोल है।आप जाने की बात न करें अंकल आप दोनों हमेशा स्वस्थ रहैं, आपका छत्र हमारे सिर पर बना रहै।

‘ नीरज ने कहा अरे तुम तो भावुक हो गए, हम अभी कहीं नहीं जाने वाले‌ पूरे सौ साल जिऐँगे , क्यों रज्जो! सही कहा ना मैंने? रजनी के होटो पर मुस्कान तैर गई। बच्चे वापस चले गए तो नीरज ने कहा अभी भी चिन्ता करती हो अपने बुढ़ापे की?’ ‘नहीं जी ! आज तो इतने सारे बच्चे मेरे हैं। पर मेरे लिए आज चाय तो आपको ही बनानी पड़ेगी।’     ‘ठीक है भाई मैं बनाता हूँ, तुम दवाई लो और जल्दी अच्छी हो जाओ।’ रजनी के गोरे कपोल  पर इस उम्र में भी लालिमा छा गई थी। 

प्रेषक-

पुष्पा जोशी

स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित

#बुढ़ापा

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