दोहरे मापदंड – गीतांजलि गुप्ता

“रसोई का सारा सामान फिर से इधर उधर रख दिया, कितनी बार बताया रोली मुझे मुश्किल होती है।” लता देवी अपनी बहू पर झल्ला रही थीं।

“माँ ऐसे समान रखने से कुछ ज़्यादा जगह हो जाती है।” रोली अपनी सफ़ाई देते हुए बोली।

“तुझे कितनी जगह चाहिए, काम तो अधिकतर मैं ही करती हूँ। उसके लियें मेरे हाथों लगी चीजों की जगह बदलने से मैं परेशान होती हूँ। अब मैंनें फिर से सब जमा लिया है, अब इधर उधर मत करना।” आँखें तरेर कर बहू को हिदायत दे लता देवी अपने कमरे में चली गईं।

उदास मन से रोली भी अपने कमरे में चली गई। हर दिन का यही बबाल था ज़रा सी कोई चीज़ इधर से उधर की नहीं कि लता देवी बिफरी नहीं। रोली के भी अरमान थे घर को सजाने के एक साल हो गया शादी को पर सास उस के साथ एक मिनट को नहीं निभाती। उसकी ज़िंदगी एक बैड रूम तक ही सीमित हो गई थी।

तीज त्यौहार पर भी सब कुछ लता देवी के अनुसार होता। कहीं बाहर जाने से पहले उनसे आज्ञा लेनी पड़ती। अपनी इच्छा से नये पकवान बनाने पर वो अक़्सर आनाकानी करतीं। मम्मी, पापा से मिलने के लियें जाने से पहले बताना पड़ता क्योंकि उन्हें शक रहता था कि कहीं रोली को उसकी माँ कुछ सिखा न दे।

इस तरह घर में लता देवी का एकछत्र राज था। उन्हें कुछ समझने और समझाने की ज़रूरत महसूस ही  नहीं होती थी। रोली के मन में एक अजीब सी उदासी छाई रहती है। कई बार नौकरी करने की इच्छा जाहिर की जिसे नितिन ने नहीं माना। उसके लियें नितिन के अलग विचार थे नौकरी करने वाली महिलाओं की पिसती ज़िंदगी उसे पसंद नहीं। उसे लगता है कि महिलाओं को तब तक नौकरी नहीं करनी चाहिए जब तक परिवार पर आर्थिक संकट न हो।

शादी से पहले रोली ने जी जान लगा कर एम.बी.ए. की पढ़ाई की थी परंतु विवेक के कारण नौकरी नहीं कर पा रही। रोली ने समय बिताने का तरीका ढूंढा और चुपचाप “ऑनलाइन वर्क फ्रॉम होम” करने लगी। सोंचा कुछ दिन बाद नितिन को समझा लेगी। दस दिन ही हुए काम करते कि लता देवी ने फिर बबाल खड़ा कर दिया।



“सारा सारा दिन लैपटॉप पर क्या करती रहती है कमरे से बाहर ही नहीं निकलती। हमें तो इस की कोई बात समझ ही नहीं आती।” लता देवी बेटे नितिन को बताने लगी।

रोली ने बताया कि सारा दिन खाली बैठे मन नहीं लगता इसलिए घर से ही किसी ऑफिस में काम करने लगी।

“घर के सारे काम मैं करूँ और ये महारानी ऑफिस चलाए।” लता देवी हाय तौबा मचाने लगीं।

बेटा नितिन बहुत परेशान हो गया माँ को कुछ भी बोल नहीं पाया। रोली ने कुछ गलत नहीं किया इसलिए उसे भी कुछ नहीं कहा। चक्की के दो पाटों के बीच उसकी ज़िंदगी पीस रही थी। पिता जी घर में बैठे रहते माँ को कभी नहीं समझा पाते, समझाते भी कैसे उनमें इतनी हिम्मत ही नहीं थी।

माँ ऊँचे घराने से आई थी पिता की आर्थिक स्तिथि तब माँ के पीहर से कम थी दादा जी के दवाब में दोनों की शादी हुई थी। उन्होंने पिता जी को कभी कुछ बोलने ही नहीं दिया। साधारण सी दिखने वाली महिला इतनी तेजतर्रार होगी पिता जी ने सोचा नहीं था अब उनके पास मूक बने रहने के सिवा कोई चारा नहीं था।

दिन रात की कीच कीच से बचने का उपाय सोचता रहता। आखिर शांति से जीने के लियें उसने अलग फ़्लैट किराए पर ले लिया और माता पिता को बताया कि वो अलग रहेगा। फिर से घर मे बबाल मचा।

“आख़िर इस लड़की ने मेरा बेटा मुझ से अलग करा ही दिया। ऐसी गैर संस्कारी लड़की हमें ही मिलनी थी।” लता माथा पीटने लगी।

पिता जी सब समझ तो रहे थे कि बेटा रोज़ रोज़ की बातों को नहीं सह पा रहा लता के व्यवहार से परेशान हो गया है। पता नहीं क्या सोच कर वह बोले, “तुम जाना चाहते हो तो जाओ पर मुझ से पैसे की उम्मीद मत करना। हम अकेले रह लेंगें। जाओ अपनी गृहस्थी बसाओ।” पिता जी की आवाज़ में लाचारगी व झुंझलाहट थी।

रोली हैरान हो सोचने लगी कैसे दोहरे विचार हैं इन लोगों के पिता जी माँ का साथ दें तो संस्कार और अगर नितिन अलग रहना चाहते हैं तो मुझे कोसा जा रहा है।

गीतांजलि गुप्ता

(स्वरचित)

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