आज दीपशिखा बंगले में चारों तरफ रोशनाई हो रही थी। दीपावली का त्यौहार था,पिछले बरस पूरा बंगला अंधकार में डूबा था,घर का चिराग दीपेश धनतेरस के दिन, आतिशबाजी से हुए एक हादसे में,इस संसार को छोड़कर चला गया था।पूरा परिवार शोक संतप्त था,और शिखा के जीवन से तो जैसे सारे रंग ही रूठ गए थे।समय हर जख्म पर मरहम लगाता है, संयुक्त परिवार था, परिवार के लोग तो धीरे-धीरे सहज होते जा रहै थे,मगर शिखा के नासूर जख्म रिसते रहते,जब वह अकेली होती।
पूरा परिवार शिखा से प्रेम करता था, उसका ध्यान रखता था।जीवन में आना जाना चलता रहता है। पिछली दीपावली घर का चिराग बुझा और इस दीपावली शिखा की देवरानी को लड़का हुआ।पिछले साल जाने वाले के दु:ख में बंगला अंधकार में डूबा था, और आज आने वाले की खुशी में रोशनी से जगमगा रहा था। सब खुशियां मना रहै थे, यह जीवन का क्रम है। शिखा घर की गैलरी में एकांत में खड़ी सब देख रही थी।
उसकी नजर उस दिए पर थी,जो एक कौने में टिमटिमा रहा था और उसकी रोशनी से, उसके पास में लगे एक पौधे के फूल भी चमक रहै थे।वह नहीं चाहती थी, कि उसकी उदासी से किसी के आनन्द में कमी आए।वह कुछ पल दीपेश की यादों के साथ बिताना चाहती थी।उसे याद आया कि वह किस तरह अपने पति के साथ बन संवर कर पूरे, घर -आंगन, मंदिर और आस -पड़ोस में दीए रखने जाती थी।
दीपेश अक्सर कहता -‘तुम मेरी दीप शिखा हो, हमेशा खुश रहना और खुशी बिखेरती रहना।’ उसने ही अपने बंगले का नाम, दीपशिखा रखा था।शिखा कहती -‘मेरा अस्तित्व तुमसे है, तुम्हारी बाहों का सुदृढ़ घेरा और हमारा प्रेम ही है,जिससे दीपशिखा रोशन है, वरना, मैं तो सिर्फ रूई की बाती हूँ।’
‘तुम क्या हो? तुम नहीं जानती, तुम मेरे जीवन की रोशनी हो, परिवार की खुशी और इस बंगले की रौनक हो, हमेशा खुश रहना।’
शिखा की नजर नीचे पटाखे छोड़ रहै बच्चों पर पड़ी, एक बच्चे का पैर उस दिए पर लगा और दिया टूट गया,तेल ढुल गया और पतली सी रूई की बाती निचे गिर गई,उसे दीपेश की बात याद आई, नीचे उतरकर उसने उस बाती को उठाया, एक दिए में तेल भरकर उसे रोशन किया उसकी आँखों में यादों के हजारों दिए झिलमिलाने लगे ।
दीपेश की खुशी के लिए वह भी परिवार की खुशी में शामिल हो गई, बच्चों के साथ पटाखे छोड़े, उसे खुश देख पूरा परिवार खुश था। देवरानी ने बच्चे को उसकी गोद में रखा,शिखा के होटों पर मुस्कान फैल गई और दीपशिखा बंगला पूरी तरह जगमगा उठा।
प्रेषक
पुष्पा जोशी
स्वरचित, मौलिक