सिनेमाघर – कंचन शुक्ला

मात्र सोलह की चकोर को उन्नीस के रचित ने उतना भी बोल्ड नही समझा था, जितना वो आज यहाँ, सिनेमाघर में पेश आने का प्रयत्न कर रही है। अंटशंट अवस्थाओं के प्रारूप जैसे ही सीमा से बाहर हुए। उसे आँखे तरेरता हुआ, वह वहाँ से चला गया।

चकोर ने पहले तो रचित के कंधे पर ज़बरदस्ती सर रखा। फिर हाथ पकड़ लिया। थोड़ी ही देर में बढ़ बढ़ कर अंतरंग होन का प्रयास करने लगी। ना मौका ना दस्तूर। ऐसी जगह पर कौन ऐसा करता है?? रचित इन सभी आभासों से परे दुनियाजहान की बातें और उनके बारे में सोचने लगा। आश्चर्यचकित होने के साथ साथ विस्मृत सा हो गया।

रचित को मालूम  तो था कि यह सब चकोर की इच्छा के विरूद्ध नही। फिर भी उसकी इच्छा नही थी इन सब में लिप्त होने की। उसके मातापिता सदैव यही समझाते आये थे:-

“धन की हानि हुई तो कुछ नही गया। स्वास्थ्य की हानि से कुछ तो गया। परंतु चरित्र की हानि हुई तो सब ख़त्म है समझो।”

इसी वैचारिक कल्पनाओं में गोते लगाता हुआ कब चकोर की हरक़तों से उकता वह सिनेमाघर से चकोर को झिड़ककर, बाहर निकल गया उसे पता ही नही चला।

कई दिनों से चकोर के हावभाव यही इशारा कर रहे थे। अचानक से कभी भी कंधे पर सर टिका कर कहना कि,” आज सर दुख रहा है, दबा दो।” पहली बार तो झटके से एक तरफ हो गया था। फिर ट्यूशन में पिछले एक महीने से उसका बदला स्वरूप?? अजीब से कपड़े पहनती। किसी न किसी बहाने छूनेछुआने का प्रयत्न करती। दोस्त कहने लगे कि,” तुझ पर फिदा है वो। बच के रहना।”

अब समझा वह यहाँ क्यूँ आना चाह रही थी?? ऐसा माहौल या तो घर पे या होटल में ही मिलता। घर पर वह यह सब कर नही सकती। होटल जाने के लिए शायद उसे लगा हो मैं तैयार ना हूँ?? इसलिए सिनेमाहॉल ही उसे उचित विकल्प लगा होगा।


दोस्तों ने रचित को आगाह किया था। चकोर की छवि बहुत अच्छी नही थी। पर रचित को उससे बात करना अच्छा लगता था। वह अक्लमंद तो थी ही पढ़ाई में भी होशियार थो। बहुत कुछ समझते बूझते भी वह फ़िल्म देखने के लिए राजी हो गया। क्योंकि उसने कभी नही सोच था कि समय, समाज और सोच सभी इस प्रकार गतिमान हो गए हैं।

अचानक से सिनेमाघर से निकल जाने पर, अगले दिन ट्यूशन में सभी दोस्त कारण पूछ रहे थे। कुछ कहते नही बन रहा था। सच कहता तो चकोर के बारे में पता नही और क्या भला बुरा सोचते?? इसलिए अनसुना कर वहाँ से निकल गया।

ज़रा आगे बढ़ा ही था, इतने में चकोर अपने अन्य साथियों के साथ, मेरे पास से गुजरी। उसने देखा भी नही, मुझे उपेक्षित कर दिया। चुपके से आगे बढ़ कर थोड़ी देर बाद उसके पास जाने का सोचा। उससे बात करना, समझाना चाहता था।

चकोर, आहत थी। शायद, पहली बार उसको किसी ने ना कहा हो। उस पर जैसे सनक सवार हो। बहुत गुस्से में थी। अपने मित्रों से कह रही थी कि पैसे नुकसान हो गए। खामख्वाह ही मैंने lounger वाली सीट ली सिनेमाघर में।

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