Moral stories in hindi :
प्रज्ञा ने भी चिढ़ाते हुए कहा”अच्छा ,तुम तो होशियार निकली,मैं तो सीधी-सादी समझ रही थी तुम्हें।”शादी के बाद से ही उनकी यही कोशिश रहती कि मैं और उनका बेटा रोज़ बाहर जाएं,घूमें,मंदिर जाएं,और बच्चों को वे बड़े प्यार से संभाल लेतीं थीं।
देखते-देखते बच्चे भी बड़े हो गए।नातिन दादा की ,नाती दादी का।सोने में भी बंटवारा हो गया था।नाती को अपने पास और नातिन को दादाजी के पास सुलातीं थीं वे।उनके स्कूल जाने की पूरी तैयारी वही करतीं। ड्रेस आयरन करना,जूते-मोजे पालिशकर रेडी रखतीं वे।
धीरे-धीरे नाती-नातिन बड़े हो गए।अपनी मां के पास कभी नहीं सोए वे।उन्हें दादा-दादी के बिना नींद नहीं आती थी,और दादा -दादी को उनके बिना।प्रज्ञा ने कभी अनाधिकृत अधिकार नहीं जताया बच्चों पर।वे जिनकी गोद में पल रहें हैं,प्रज्ञा का भविष्य सृजन हो रहा है।रामायण और महाभारत के प्रसंग सुना-सुनाकर बड़ा किया दोनों बच्चों को।
एक दिन प्रज्ञा से कहा उन्होंने “तुम बस हमारे गुस्सैल बेटे को संभालो।प्रज्ञा ने पूछा “आपके बेटे को आप ही संभालो ना,मैं क्यों संभालूं मुफ्त में।”बात पकड़कर तुरंत उन्होंने निष्कर्ष निकाला”मेरे बेटे को तुम संभालो,बदले
में तुम्हारे दोनों बच्चों को मैं संभालूंगी।”उनकी यह साहूकारी अब तक चल रही है।मेरे बच्चे कब जवान हो गए,संस्कारी हो गए,पूजा -पाठ सीख गए,पता ही नहीं चला।प्रज्ञा ने सोचा, ये तो बड़े मुनाफे का सौदा है।बस थोड़ा सा अपनापन और सम्मान देकर अपना और अपने बच्चों के भविष्य की नींव रख देतें हैं दादा-दादी।
यह अलौकिक बंधन सदा अपने शाश्वत होने का प्रमाण देता आया है।ससुर के दस सालों तक बिस्तर पर पड़े रहने के समय पति को उनका कुछ भी काम नहीं करना पड़ा।सास की बीमारी में मैंने सेवा की।जब गिरीं वो बुरी तरह से ,आठ महीने बिस्तर पर ही रहीं।प्रज्ञा ने अपनी नौकरी छोड़ दी बाईस साल की।वो कहतीं”मेरी वजह से जमी -जमाई नौकरी छोड़नी पड़ी।कितना नुक्सान करवा दिया मैंने।प्रज्ञा को उनकी या ससुर की सेवा करते कभी घिन,पछतावा या गुस्सा नहीं आया।
रो -रोकर जब वो कहतीं”मेरी किस्मत का कलंक देखो,बहू का सिंदूर बिना मांग देखना पड़ रहा है।”प्रज्ञा समझाती”अरे मां! पर्ची बदल गई होगी।क्या कर सकतें हैं।भगवान भी अर्जियों की पर्ची निकालते-निकालते थक जाते होंगें।कभी गलती भी तो हो जाती है। पर्चियां उनके पास पहुंचे ना पहुंचे।”
आस -पड़ोस वालों को भ्रम होता था कि वे मेरी मां हैं।ननदों ने जितनी बार उन्हें अपने साथ ले जाना चाहा, उन्होंने एक रट लगा रखी “यही मेरा घर है,यही मेरा बेटा-बहू है।इसे और अपने नाती -नातिन को छोड़कर कैसे जाऊं मैं?सबका ख्याल तो रखती है वो,पर उसको खाने के लिए ना बोलो तो खाएगी ही नहीं। मुझे तो रोज बोलना पड़ता है।मैं कैसे इसे छोड़कर जाऊं?”
बेटज की मौत के बाद उन्होंने ना केवल खुद को संभाला बल्कि मुझे भी संभाला।उनके ऑपरेशन के कारण नौकरी छोड़नी पड़ी थी मुझे।दिन -रात वो रोती रहीं कि मैं स्कूल नहीं जा पा रही।जब वह खुद से चलने लगी,तुरंत मुझे स्कूल ज्वाइन करवाया।
मैं पिकनिक गई सहकर्मियों के साथ तो,बैग उन्होंने ही पैक किया।देर से घर आने पर ठीक बच्चों को तय समय पर खाना खिलाकर सुलाया। गर्भाशय के ऑपरेशन के दिन सुबह से रात तक मेरे साथ ही थीं।उनकी कोई साड़ी पसंद आ जाए तो अगले दिन ही पहनवाया उन्होंने।ये इतना सहयोग मां ही दे सकती है ना,सास नहीं।सास तो झगड़ालू होती हैं।पर ये कैसी सास हैं, कभी लड़ती ही नहीं।बेटे ने तो पूछ ही लिया था चिढ़कर”तुम मेरी मां हो या ,बहू की मां?”बिना देरी किए कहा था उन्होंने “बहू की मां”।
इस औरत का सम्मान कैसे ना करूं मैं?यदि आज मैं एक सफल मां, पत्नी,बहू और बच्चों की प्रिय शिक्षिका बन पाईं हूं तो,इन्हीं की बदौलत।मेरे हर फैसले में हां में ही गर्दन हिलती इनकी,और बच्चे चिढ़ाते”दादी,मां ने क्या बंगाल का काला जादू किया है तुम पर?”
उनकी देखभाल के लिए मैं कहीं बाहर ज्यादा दिनों के लिए नहीं जा पाई।शादी -पार्टियों में खाना बनाकर खिलाकर ही गई।कई मौकों में पारिवारिक अनुष्ठानों में नहीं पंहुंची।इन सभी बातों का अफसोस नहीं होता , गर्व होता है ख़ुद पर।ईश्वर से रोज़ प्रार्थना करती है प्रज्ञा कि उसकी प्रज्ञा में स्वार्थ और लोभ का वाइरस ना घुसने पाए।हमेशा मां का सम्मान बढ़ा पाए वह।
स्कूल की प्रिंसिपल ने अभी उस दिन ही कहा घर पर आकर”प्रज्ञा ,तुम्हारा चेहरा बिल्कुल इनसे मिल रहा है।इन्हीं की बेटी लगने लगी हो तुम।”यह सुनकर वास्तव में गर्व महसूस हुआ खुद पर,और मेरी मां पर।हम दोनों ने तीस साल साथ रहते एक दूसरे की आदतों को कितना एकसार कर लिया,कि मां-बेटी लगती हैं।मेरा बेटा चौबीस बरस का हो गया,आज भी दादी के साथ सोता है।रात को उठकर कभी वो देखतीं हैं नाती को कि सब ठीकहै या नहीं,कभी नाती देखता है।मुझे तब भी गर्व होता है बेटे पर,जिसे अपनी दादी का इतना ख्याल है।सुबह उठकर नाती की बिस्तर की चादर समेटती दादी को भी खुद पर गर्व होता होगा।जिस दौर में बच्चे बुजुर्ग से दूर भागतें हैं,वह उसी कमरे में,पेशाब की रखी बाल्टी के साथ ही सोता है।
बेटी नौकरी की तनख्वाह पाते ही भाई,मां और दादी के लिए सामान भेजती है,मुझे गर्व होता है दादी की परवरिश पर।नाती नहाकर जब मंत्रोंच्चारण करते हुए पूजा करता है तो दादी की आंखों में गौरव की चमक और संतोष होता है।
प्रज्ञा के स्कूल में भी अधिकतर लोग यही जानतें हैं कि घर में जो बानी जी हैं वह बहू की मां है।इन सबमें किसका गर्व ज्यादा ,किसका कम ,यह बताना मुश्किल है।दूसरों का तो नहीं पता पर प्रज्ञा को स्वयं पर गर्व है कि उसकी सास ,ही मां है।
शुभ्रा बैनर्जी
शुभ्रा बैनर्जी
सुन्दर भी मार्मिक भी!काश,हम इसकी महत्ता समझ पाएं, कठिन भी और सार्थक भी।
सुन्दर रचना, आज के जमाने में जब बहुवें व्याह के आते ही अलग होने की कोशिश करती हो तो ऐसे में ये कहानी रोशनी की किरण ही लगती है।
काश सब लोग ऐसे ही हो जाए……
बहुत बहुत बहुत बहुत और बहुत अच्छी स्टोरी है जी
Heart touching… such relationships are the need of Indian society
काश कहानियों के सुन्दर रिश्ते असली जिदगी में भी मिल जाए♥️
आपकी रचना पढ़कर महसूस हुआ कि अगर रिश्तों में इतनी मिठास हो तो धरती ही स्वर्ग बन जाए