रिश्तों में बंधा स्वार्थ या स्वार्थ में बंधा रिश्ता – शुभ्रा बैनर्जी

आज संध्या को मां की बात रह -रह कर याद आ रही थी।कैसे वह भी अनुज के आगे-पीछे दौड़ती रहती है,उसके काम पर जाने से पहले और काम से आने के बाद।बचपन में मां का पापा के आगे-पीछे घूमना उसे बिल्कुल पसंद नहीं था।कभी चैन से बैठे नहीं देखा उन्हें।टोकने पर हंसकर हमेशा यही कहती”संधू,पति … Read more

भंडारे का आधुनिकीकरण – शुभ्रा बैनर्जी

आज मोहल्ले की महिलाएं सुबह से ही किसी गंभीर विषय पर यंत्रणा में लगी हुईं थीं।थोड़ा पास जाने पर पता चला कि,कल शनिवार को हनुमानजी के मंदिर में हमारे ही मोहल्ले के मनीष जी ने भंडारे का आयोजन किया है।महिलाओं में उत्साह अस्वाभाविक नहीं था।एक दिन दोपहर के खाना बनाने से मुक्ति जो मिलेगी।शीतल जी … Read more

चुपचाप जिम्मेदारी निभाता हुआ पुरुष  – शुभ्रा बैनर्जी

चुपचाप जिम्मेदारी निभाता हुआ पुरुष अपने भाई के श्राद्ध में जैसे ही दोनों विवाहित बहनों ने सुधा के हांथों कुछ रुपए रखे,सुधा को लगा मानो उसके पति के मुंह पर थप्पड़ मार दिया है उन्होंने।बच्चों ने भी पहले ही बोल कर रखा था कि किसी से पैसों की मदद नहीं लेना मां।सुधा आस पास के … Read more

बहू का प्रमाण पत्र – शुभ्रा बैनर्जी

सौम्या की बेटी की शादी की बातचीत चल रही थी।बेटी पढ़ी-लिखी और समझदार थी ।मां से उसका भावनात्मक लगाव कुछ ज्यादा ही था।बचपन से उसने सौम्या को संघर्ष करते ही देखा था।बड़ी होने पर अक्सर बोलती “मैं शादी नहीं करूंगी कभी।तुम्हारे जैसी अच्छी बहू ना मैं बनना चाहती हूं और ना ही बन पाऊंगी।सारा जीवन … Read more

बच्चों ने दी संस्कारों की सीख – शुभ्रा बैनर्जी

आज संगीता जी के यहां किटी पार्टी का आयोजन था।वह ख़ुद बहुत अच्छा खाना पका लेतीं थीं। मेहमानों को खुश करने के चक्कर में,आज उन्हें अपने हांथ के खाने के स्वाद में त्रुटि दिखने लगी।सामने मेज पर विभिन्न पकवान सलीके से सजाकर रखे हुए थे। स्टार्टर,मेन कोर्स और डेज़र्ट्स पंक्ति बद्ध रखें गए थे,जो मेजबान … Read more

मां का अंधविश्वास या भेदभाव – शुभ्रा बैनर्जी 

भेदभाव एक सर्वव्यापी सामाजिक बुराई है,जिसका सूत्रपात परिवार से होता है और सूत्रधार होतीं हैं औरतें।पुरुष का योगदान नगण्य है।रजनी के परिवार में इसका प्रत्यक्ष प्रमाण मिला,ननद के प्रथम प्रसव के समय।रजनी ने चार महीने पहले ही एक स्वस्थ बेटे को जन्म दिया था सामान्य प्रसव द्वारा।अब नव ब्याहता ननद आई थी प्रसव के लिए।रजनी … Read more

सर्वगुण संपन्न – शुभ्रा बैनर्जी 

शरीर पर लगे चोट के निशान दिख भी जातें हैं और मरहम-पट्टी करने पर ठीक भी हो सकते हैं,पर जब मन घायल होता है, तब उसके ना तो निशान दिखाई देतें हैं और ना ही कोई मरहम लग पाता है। दर्द की टीस मौन रोती रहती है,आजन्म रिसती रहती है। सर्वगुण संपन्न थी सुदेशना।दिखने में … Read more

“रिश्तों की तुरपाई” – शुभ्रा बैनर्जी

मालिनी की बेटी  बचपन मेंअक्सर सिलाई मशीन देखकर उससे पूछती” मां,दादी को इतनी अच्छी सिलाई आती है,पर तुमसे क्यों नहीं बनता कुछ?दादी ने कभी सिखाया नहीं तुमको?”मालिनी हंसकर ज़वाब देती”मैंने पहले ही बता दिया था तेरी दादी को,कि मुझे सिलाई करने का बिल्कुल भी शौक नहीं।” बोलने को तो उसने बोल दिया था पर उसे … Read more

अपेक्षा नहीं तो कैसी उपेक्षा – शुभ्रा बैनर्जी

जीवन के बारे में बड़े-बूढ़ों का तजुर्बा कभी ग़लत नहीं होता। उम्र के आखिरी पड़ाव में चेहरे पर झुर्रियां,भूत वर्तमान और भविष्य की लहरों की तरह समय के परिवर्तन शील होने का प्रमाण देतीं हैं।आंखों की रोशनी कम तो हो जाती है,पर अनुभव का उजाला टिमटिमाते रहता है,बूढ़ी आंखों में।”बचपन”परीकथा की तरह सुखद होता है। … Read more

मां की इज्जत – शुभ्रा बैनर्जी

निर्मला आज पूरे कॉलोनी में लड्डू लेकर अपने कैंटीन के उद्घाटन का न्योता दे रही थी।समय के साथ जैसे हर दिन एक नई निर्मला अवतरित होती जा रही थी।वही जोश,वही उमंग,वही हंसी।बहुत कुछ बदला था उसकी ज़िंदगी में,पर नहीं बदली तो उसकी हिम्मत।पिछले बीस सालों से जानती थी मैं उसे। हमारी सोसायटी के बाहर एक … Read more

error: Content is Copyright protected !!