मां का अंधविश्वास या भेदभाव – शुभ्रा बैनर्जी 

भेदभाव एक सर्वव्यापी सामाजिक बुराई है,जिसका सूत्रपात परिवार से होता है और सूत्रधार होतीं हैं औरतें।पुरुष का योगदान नगण्य है।रजनी के परिवार में इसका प्रत्यक्ष प्रमाण मिला,ननद के प्रथम प्रसव के समय।रजनी ने चार महीने पहले ही एक स्वस्थ बेटे को जन्म दिया था सामान्य प्रसव द्वारा।अब नव ब्याहता ननद आई थी प्रसव के लिए।रजनी की सास आधुनिक विचारधारा वाली बड़ी सुलझी महिला थीं।रजनी के साथ उनका बर्ताव मां से कम नहीं था,यही उनकी विशेष योग्यता भी थी।अपने नाती को पाकर निहाल हुई दादी अब नानी बनने जा रहीं थीं।

प्रसव पूर्व अत्यधिक पीड़ा से तड़प  रही थी रजनी की ननद। अस्पताल जाते समय अचानक मां जी ने रजनी से कहा कि अपनी आसमानी रंग की सिल्क वाली साड़ी ही पहनाना निशा(ननद)को।बहुत शुभ है वह साड़ी।बिना समझे ही रजनी ने वही साड़ी पहनाकर निशा को भर्ती किया।पांच घंटों के अथक प्रयासों के बाद नार्मल डिलीवरी से स्वस्थ बेटी को जन्म दिया था उसने।गोद में बच्चे को लेते ही नानी खुशी से चहकते हुए नर्स से बोली “बेटा ही है ना,मुझे पता था।”

नर्स ने पानी फेरते हुए कहा “नहीं आंटी गुड़िया हुई है”।




रजनी ने उस एक पल में अपनी सास के चेहरे पर सौ रंग आते-जाते देखें।उनकी निराशा निशा से भी छिप न सकी।सास के इस दोहरे चेहरे को समझने का प्रयास कर ही रही थी रजनी कि उसके कानों में शीशा घोलती हुई सास बोलीं”देखा बहू,इस पर अपनी सास की छांव लगी है।मेरा पहला बेटा,बड़ी बेटी का पहला बेटा और तुम्हारा भी तो बेटा ही हुआ ना।इसकी सास की बेटी है ना पहली इसलिए।रजनी को पक्का विश्वास था कि निशा ने भी अपनी मां की बातें सुनीं हैं।एक महीने मायके में रहकर जाते समय निशा रजनी से लिपटकर खूब रोई और बोली”,भाभी,बेटियां मायके आतीं हैं प्रसव के लिए अपनी मां के बल पर,पर मैं ऐसी अभागन बेटी हूं जिसने आपसे अपनी सेवा करवाई।अपने दुधमुंहे बच्चे को छोड़कर आपने मेरी बेटी की देखभाल की है।आपका यह उपकार मैं कभी नहीं भूलूंगी।”निशा वास्तव में रजनी की ननद कम सहेली ज्यादा थी।उसकी शादी की जिम्मेदारी भी रजनी ने ही उठाई थी।अपनी मां के पैर छूकर निशा बोली”मां ,यदि मुझे पता होता कि आपकी ममता में भेदभाव हो सकता है तो मैं यहां कभी नहीं आती।मेरे ससुराल में सास ने कभी नहीं कहा कि उन्हें नाती ही चाहिए,पर आपका झूठ आपकी मीठी-मीठी बातों के पीछे छिपे नहीं सका।जब तक आप जैसी मांए बेटे और बेटी में भेदभाव करती रहेंगीं,इस समाज में लड़कियों का अधिकार और सम्मान कभी बराबर नहीं होगा।

उस घटना को बीते कई साल हो गए हैं,पर उस घटना ने रजनी को इस सत्य पर विश्वास करने को बाध्य कर दिया था कि परिवारों में भेदभाव का कलुषित बीज बोने का काम औरतें ही करतीं हैं।क्या यह स्वयं के साथ हुए भेदभाव का प्रतिदान है?शायद नहीं। परिवारों से होता हुआ यह विष धीरे-धीरे समाज और फिर देश को खोखला कर देता है। विरोधाभास उस पर यह, कि हम औरतें ही महिला सशक्तीकरण का मोर्चा पुरुषों के खिलाफ निकालतीं हैं।हमें समानता का अधिकार चाहिए,क्या हम इस अधिकार के लायक हैं????

शुभ्रा बैनर्जी

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