“रिश्तों की तुरपाई” – शुभ्रा बैनर्जी

मालिनी की बेटी  बचपन मेंअक्सर सिलाई मशीन देखकर उससे पूछती” मां,दादी को इतनी अच्छी सिलाई आती है,पर तुमसे क्यों नहीं बनता कुछ?दादी ने कभी सिखाया नहीं तुमको?”मालिनी हंसकर ज़वाब देती”मैंने पहले ही बता दिया था तेरी दादी को,कि मुझे सिलाई करने का बिल्कुल भी शौक नहीं।” बोलने को तो उसने बोल दिया था पर उसे हमेशा यही लगा कि हर लड़की को नए परिवार में आकर सिलाई -बुनाई तो करनी ही पड़ती है। ईश्वर ने औरतों को यह हुनर देकर ही भेजा है दुनिया में।कभी विश्वास के बटन टांकों,कभी अपनी आशाओं को रफू करो,कभी परिवार के सपनों को बुनो,कभी हौसलों के फ्रेम में अपनी आकांक्षाओं को बेल बूटों के नीचे जतन से छिपाकर उकेरना पड़ता है।मालिनी ने भी तो किया था यह सब।जब-जब आत्मविश्वास के धागे उधड़ने लगते,रिश्तों की महीन तुरपाई करती थी वह।

पति गुस्सैल और ज़िद्दी थे।उस पर इकलौता बेटा मां का।मालिनी ने ख़ुद के गुस्से की तिलांजलि दे दी थी।परिवार में सुख -शांति बचाने के लिए खुद शांत रहना ही उचित लगता था उसे।बेटी उसकी आंखों की विवशता पता नहीं कैसे देख लेती थी।मालिनी अपनी मां और दादी के बीच की वर्चस्व की लड़ाई की गवाह थी। अलग-अलग मानसिकता वाले लोग परिवार में रहकर , भिन्न-भिन्न मतभेदों के बाद भी साथ रहतें हैं।विचारों में विरोधाभास होना भी स्वाभाविक होता है।समय के साथ प्रेम का जन्म अवश्य होता है,यही विश्वास रखती थी मालिनी मन में।अपनी मां की गलतियों से सबक लिया था उसने।वह कभी मायके का मोह छोड़कर परिवार से नहीं जुड़ पाई,और दो पाटों में पिसने की बारी बच्चों की थी।औरों में कमियां निकालने की कोशिश बेकार है।जब औरों को बदलना मुश्किल हो ,तो खुद को बदलना ही सही होता है।

खाली जमीन पर मकान का नक्शा बनाना आसान है,पैसे खर्च कर उस नक्शे के हिसाब से मकान बनवाना भी उतना कठिन नहीं होता जितना उस मकान को परिवार बनाना होता है।मालिनी की ये बातें बेटी की समझ में नहीं आती थी।उसे तो अपनी मां के सुख से लेना -देना था।मां के अपमान को कभी बर्दाश्त नहीं कर पाती थी वह।चिढ़कर उससे कहती”कब तक सभी की जिम्मेदारी अपने सर लेकर ढोती रहोगी तुम?दूसरों की खुशी का तुमने ही ठेका ले रखा है क्या?”मालिनी बिना कुछ कहे बस हंस देती।”पता भी है तुम्हें जिस सास के आगे पीछे तुम मां-मां कहती घूमती रहती है ,वही अपनी बेटियों के पास तुम्हारी बुराई करने से नहीं चूकती।पापा के भी कान भरती रहतीं हैं,नानी और मामा -मौसी के खिलाफ।पर तुम्हें तो ज़वाब देना आता ही नहीं”।उसकी शिकायत जारी रहती।मालिनी बस इतना ही कहती।”सब ठीक हो जाएगा।हर चीज का अंत होता है।”अपनी मां के अभिमान का मौन रुदन उसकी रगों में भर रहा था धीरे-धीरे।मालिनी जान रही थी यह धीमा जहर एक दिन बेटी को परिवार से दूर कर देगा।पति और सास-ससुर की नकारात्मक छवि उसके कोमल मन में नफ़रत पैदा कर देगी,परिवार के प्रति।




बार-बार कहती कि चलो ना हम कहीं और जाकर रहेंगे शांति से।पर मालिनी को पता था परिवार से दूर जाकर टूटे पत्तों से बिखर जाएंगे बच्चे।बाजार में खरीदने से नहीं मिलते परिवार।ना ही ऑफर में बदला जा सकता है परिवार।

मालिनी ने बेटी को दसवीं के बाद बाहर पढ़ने भेजना उचित समझा,क्योंकि उसके मौन का शेष युद्ध बेटी लड़ना नहीं छोड़ेगी और अपनों से दूर होती जाएगी ,पास रहकर भी।बेटा भी एकमत था उसके इस फैसले से। विशाखापत्तनम छोड़कर आई थी ख़ुद ही मालिनी।बेटी ने मना नहीं किया था ,शायद उसे भी आवश्यक्ता थी बदलाव की।हॉस्टल से आते समय जोर देकर कहा था उसने”मां तुम रोना नहीं,नहीं तो मैं एक मिनट भी नहीं रहूंगी यहां।मालिनी ने उसका मनोबल नहीं तोड़ा।स्टेशन में आकर रोई पर बेटी के सामने नहीं।एक मां को हारने नहीं दे सकती वह अपनी बेटी के सामने।नए वातावरण में नए लोगों के साथ रहते-रहते सामंजस्य बनाना सीख गई थी बेटी।मालिनी भी घर में होने वाले सुखद बदलाव की झूठी कहानियां गढ़ कर सुनाती रहती थी बेटी को।परिवार से विमुख ना हो जाए इसके लिए झूठ पाप नहीं कहलाएगा, अधर्म नहीं होगा।मालिनी रिश्तों के उधड़ते धागों की तुरपाई करती रही,बच्चे उसकी ईमानदार कोशिश का सम्मान करते रहे।उम्मीद का दीपक कभी बुझने नहीं दिया मालिनी ने और प्रतिकूल परिस्थितियों के आगे घुटने नहीं टेकी।

अब बेटी ग्रेजुएशन करने वाली थी।दो साल बाद घर आकर उसे भी बदलाव दिखाई दिया।पापा की लाड़ली तो थी साथ ही शासन भी करती थी अब उन पर।दादी का रवैया भी बदल गया था।अपनी मां की ओर सम्मान से देखते हुए कहा उसने एक दिन”तुम्हारे लिए मुश्किल नहीं था कहीं और जाकर स्कूल में पढ़ाना।तुम सब कुछ कर सकती थी।तुमने हमें अपने परिवार से जोड़े रखने के लिए जीवन भर समझौता किया है मां।अब और कोई समझौता नहीं करने दूंगी तुम्हें।मैं नौकरी करके तुम्हारे सारे सपने पूरे करूंगी।तुम खुलकर अपनी मर्जी से जीओगी अब।तुम नंबर वन दर्ज़ी हो,बिखरते परिवार को बड़ी अच्छी तरह सिला‌ है तुमने।तुम शान हो हमारे परिवार की।कभी हमारे सर की छत हटने नहीं दी।”

बेटी के मुंह से यह सुनकर मालिनी सिलाई मशीन की तरफ देखकर बोली”क्या सच में मैं दर्ज़ी बन पाई?”मशीन हंस दी थी शायद।

शुभ्रा बैनर्जी

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