आज संध्या को मां की बात रह -रह कर याद आ रही थी।कैसे वह भी अनुज के आगे-पीछे दौड़ती रहती है,उसके काम पर जाने से पहले और काम से आने के बाद।बचपन में मां का पापा के आगे-पीछे घूमना उसे बिल्कुल पसंद नहीं था।कभी चैन से बैठे नहीं देखा उन्हें।टोकने पर हंसकर हमेशा यही कहती”संधू,पति घर का मुखिया होता है।
कमाता है अपने परिवार के लिए।हमारी जरूरतें पूरी करने में रात-दिन मेहनत करता है वह।उसकी सेवा में ही पत्नी को पुण्य मिलता है।”
संध्या भी गुस्से में तमतमाकर कहती”यदि आप भी कमाती ,तो क्या पापा भी आपकी ऐसी ही सेवा करते?”
“धत्!पगली।तू जब पत्नी बनेगी ना ,तब ख़ुद ही समझ जाएगी।”मां उसे प्यार से समझाती।
संध्या के मन में हमेशा यही उथल-पुथल मची रहती कि रिश्ते स्वार्थ से क्यों बंधे रहते हैं?क्यों मां को पूरे घर की जिम्मेदारी उठानी पड़ती है?उनकी अपनी पसंद -नापसंद मायने क्यों नहीं रखती?क्या शादी इसलिए कराई जाती है कि पत्नी बनकर एक औरत उम्र भर पति और उसके परिवार की देखभाल कर सके?
कई बार दादी से भी पूछा उसने,पर दादी का भी यही जवाब होता था”गुड्डो हमने भी यही किया है।तुम्हारी मां भी यही कर रही,और तुम भी यही करोगी।संध्या मन में सोचती कि मैं नहीं करूंगी शादी भले,पर पति के पैसे कमाने के एवज में सेवा तो नहीं करूंगी।
राखी और कई ऐसे प्रमुख त्योहार मां के ससुराल में ही गुजरते देखें थे संध्या ने।ननदें आएंगी तो वो कैसे जा सकतीं हैं अपने भाईयों को राखी बांधने।नानी की तबीयत खराब होने पर केवल दो दिनों की छुट्टी मिल पाई थीं उन्हें देखने की।इधर दादी की देखभाल कौन करेगा?
गर्मी की छुट्टियों में ननदें आकर चली जाएं ,तब ही जा सकती थीं वह।शादी -ब्याह में पापा के साथ जाना और अगले दिन आ जाना।अपनी मां की सेवा ना कर पाने की पीड़ा संध्या ही देख पाती थी उनकी आंखों में।पापा की असमय मृत्यु पर भी कुछ दिनों के लिए ही जाना है सका था उनका।
मां हमेशा कहती उससे”तेरी नानी से मन भर कर बात नहीं कर पाई कबसे।यहां भी नहीं ला सकती उन्हें और ना ही जाकर कुछ दिन रही सकती हूं”।
तब संध्या दुखी होकर कहती “मुझे मत ब्याहना तुम।तुम्हारे पास आने की मजबूरी में नहीं सह पाऊंगी।तुम्हारा जब मन करेगा मुझसे मिलने का,मैं तुरंत तुम तक पहुंच सकूं,यही मेरा संकल्प है।”
संध्या की नानी भी परलोक सिधार गईं थीं।मां के मायके का दूसरा खूंटा भी उखड़ गया।किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा।मामा-मौसी सभी रो रहे थे।पर मम्मी नहीं रोई।संध्या ने कहा उनसे “मां,रो रो तुम।अपने मन में दुख दबाकर मत रखो।नानी चली गईं।
“मां ने गंभीर होकर कहा”अच्छा ही हुआ संधू,जितना दिन तेरी नानी जीतीं,उनसे दूर रहकर उतना ही दुख मुझे होता।कुछ भी तो नहीं कर पाई मैं उनके लिए।मेरे हांथ से बनाकर कुछ खिला भी नहीं पाई।बेटी का होना ना होना एक बराबर होता है”।
आज संध्या भी उसी मोड़ पर खड़ी है।शादी के बाद से मायके जाने में मनाही तो नहीं करी कभी अनुज ने,पर सेवा का सिलसिला तो चल ही रहा था।
जिम्मेदारी नए-नए रूप लेकर आ जाती थीं।समय की कमी और परिवार की व्यस्तता के कारण एक या दो दिन के लिए ही जा पाती थी मम्मी से मिलने।बेटी बाहर रहकर पढ़ाई कर रही थी।
बेटा भी बड़ा हो चुका था।मम्मी भी पापा के जाने के बाद बिल्कुल अकेली पड़ गईं थीं।साथ में रहना ही नहीं हो पाता था ज्यादा दिनों के लिए।
इस बार छुट्टियों में पता नहीं बेटी कितने दिनों के लिए आएगी।उसे यहां छोड़कर मायके जाना भी तो अच्छा नहीं लगता।शाम को तभी बेटी का फोन आया।
“हैलो! मम्मी,मैंने आपका और नानी का चार धाम यात्रा वाला टिकट बुक कर दिया है।वृंदावन में रिसोर्ट भी बुक कर दिया है।दो महीने का ट्रिप है।आप तैयारी कर लेना।नानी को अभी कुछ मत बताना।मैं आते समय उनके घर जाकर, उन्हें लेती आऊंगी।”
संध्या आवाक होकर सुन रही थी।उसकी बेटी ने उसके जीवन का सबसे बड़ा सपना सच कर दिया।रुंआंसी होकर इतना ही बोल पाई”तेरे पास इतने पैसे कहां से आए?”
बेटी हंसकर बोली”अरे मम्मी,पापा जो पैसे भेजते थे उसी से बचाई थी कुछ,और मेरी स्कालरशिप का पैसा भी इकट्ठा मिला।तभी मैंने यह योजना बनाई।
आपके जन्मदिन पर मेरी तरफ से आपको ,और आपको जन्म देने वाली मां को छोटी सी भेंट।हां सुनो!रोने मत लगना पिन्नी मम्मी।तैयारी शुरू कर दो।मैंने पापा को बता दिया है।तुम इस बार अपना जन्मदिन अपनी मनपसंद जगह पर और अपनी मां के साथ मनाओगी।बनारस से तुम्हारी यात्रा शुरू होगी।”
संध्या आज फिर से पुनर्जीवित हो उठी। स्वार्थ से नहीं बंधा उससे उसकी बेटी का रिश्ता।
#मासिक_अप्रैल
शुभ्रा बैनर्जी
(V)