तमन्ना अधूरी रही – ऋतु गर्ग

लतिका ने शादी के बाद स्वयं को खुश रखने की काफी कोशिश की।

क्योंकि जिस वातावरण में वह पली-बढ़ी थी यहां एकदम उसके विपरीत था।

आज फिर कुछ अतीत के पन्ने पलटने के लिए विवश थी।

उसने तो रोहित को अपना सभी कुछ मान लिया।

रोहित को पति के रूप में पाकर स्वयं को धन्य महसूस करती रोहित भी उसे बहुत प्यार करता उसका बहुत ख्याल रखता।

लतिका जैसे ही गर्भवती हुई रोहित का ध्यान उसकी तरफ से हटने लगा पारिवारिक जिम्मेदारियों ने उसे और अधिक व्यस्त बना दिया।

गीता ने उड़ानों से भी तंग आ चुका था जब कानों में आवाज आती की “जोरू का गुलाम” तो वह आहत होता।

इन सभी बातों से आहत रोहित में अब लतिका की तरफ से मुंह मोड़ लिया था।

गर्भवती होने की वजह से उसका भी इस तरफ कोई ध्यान नहीं गया।

घर में सभी की इच्छा थी कि घर में एक लड़का पैदा हो जाए।

लतिका गर्भवती होते हुए भी घर का सारा काम करती और इस अवस्था में स्वयं का ख्याल भी खुद ही रखती।

अभी भी उसे पूछा नहीं जाता कि उसकी क्या इच्छा है ।

उसे पढ़ने का बहुत शौक था।




रोहित उसे कभी-कभी पढ़ने के लिए पत्रिकाएं लाकर दे देता था।

पत्रिकाओं को पढ़कर मैं अपना ध्यान रखती।

उसने एक पुत्री को जन्म दिया।

सभी के चेहरे उतर से गए जैसे कि कोई सांप सुंग गया हो।

लेकिन किसी तरह सभी ने अपने आप को संभालते हुए स्वीकार किया कि यह पहला बच्चा है।

लेकिन रितिका से अब अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता बात बात पर ताने दिए जाते।

लड़की होने पर वह अंदर ही अंदर घुटन महसूस करने लगी और सोचने लगी वह ससुराल वालों की इच्छा पूरी न कर सकी।

जिसका उसके स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ा।

लेकिन क्या करती?

माता-पिता को याद करके छुप-छुपकर रो-रोकर अपना मन हल्का कर लेती और अपने काम में लग जाती।

अब रितिका ने अपनी ही एक दुनिया बसा ली अपनी बेटी का पूरा ख्याल रखती उसकी सेहत का भी पूरा ध्यान रखती।

समय बीतता गया और पांच वर्षों के बाद में दूसरी बार गर्भवती हुई।




अब तो ससुराल वालों ने अपनी इच्छा जताई कि आप तो एक लड़का ही होना चाहिए।

ओर सास को जो भी कोई बोलता कि यह करो वह करो तब लड़का हो जाएगा।

सास अंधविश्वास के कारण सभी से पूछती रहती कि क्या खिलाने से लड़का होगा?

यह सब देखकर रितिका मन ही मन डरने लगी वह अपने मन की बात रोहित को भी नहीं बता सकती थी।

क्योंकि सास की वजह से रोहित और रितिका में काफी दूरियां चुकी थी ।

जिससे रोहित उसे कटा कटा सा रहता था और जिसका खामियाजा रितिका को भुगतना पड़ा।

रितिका स्वभाव से बहुत ही सीधी और सरल ही लड़ना तो जैसे उसे आता ही नहीं था।

अपना ख्याल वह पूरी तरह से नहीं रख पाती अंतर्द्वंद ने उसे अपाहिज सा बना दिया।

सास यदि उसे कुछ खाती भी देखती तो तुरंत जोर से बोलते हुए कह देती क्या सारा तू अकेली ही खाएगी यह सब सुनकर वह अंदर ही अंदर डर जाती।

कभी असमय भूख लगती तो बिस्किट खा कर पानी पी लेती।

जिसका असर उसके होने वाले बच्चे पर भी पड़ा जिससे वह अनभिज्ञ रही।

अब वह डर के कारण अपने मन की बात किसी से भी नहीं कह पाती थी।

भगवान से प्रार्थना करती कि भगवान मुझे संतान के रूप में अब की बार एक लड़का ही देना।

जिससे सभी ससुराल वालों की इच्छा पूरी हो जाए।

आज रितिका तकिए में मुंह छुपाकर खून के आंसू रोने पर मजबूर थी और रुलाने वालों को धिक्कार रही थी।

वह रोते रोते सोचती रही।

मुझे इस घर का कर्ज चुकाना है।




मैं इस घर में रह रही हूं खाना खा रही हूं। मैं अपनी जिंदगी को बोझ नहीं बनने दूंगी सारा दिन घर का काम करके रोटियों का कर्ज चुकाऊंगी।

वह स्वयं पर किसी तरह का आरोप नहीं चाहती थी।

लेकिन जैसे ही दूसरी बेटी ने जन्म लिया तो वह खुद से नजरें नहीं मिला पा रही थी।

सोच रही थी कि पति और सास की इच्छा को वह पूरा नहीं कर सकी ।

अब उन दोनों की जली कटी सुननी पड़ेगी।

ऐसे ही तिरस्कार की रोटी को वह अपने उदर में जगह नहीं देना चाहती थी ।

अंदर ही अंदर वह घुटती रही और अपनी दूसरी बेटी को स्वीकार करने में उसे खुद को काफी समय लग गया क्योंकि उन रूढ़िवादिता के लोगों ने उसे भी अपाहिज बना दिया था कुछ भी सोचने समझने की शक्ति को छिन्न-भिन्न कर दिया था।

परिणाम स्वरुप वह भी बीमार रहने लगी और अपनी दूसरी बेटी की परवरिश पर उचित ध्यान न दे सकी।

रितिका को आज अनु को बीमार देख कर बहुत दुख हो रहा था।

रितिका की बेटी अनु  जब तब बीमार हो जाती थी।

आज पूरा एक महीना हो गया अनु बिस्तर से नहीं उठ पा रही है।

कभी हॉस्पिटल तो कभी घर की जिम्मेदारियों के बीच रितिका पीसी जा रही थी।

आज तो हद ही हो गई जब उन्होंने पूछा कि मां तूने मुझे क्या खाकर पैदा किया था।




तो रितिका के मुख से अनायास ही निकल गया बिस्किट और मटर के दाने।

और इसके साथ ही रितिका की आंखों से अविरल अश्रु धारा बहने लगी सोचने लगी काश  मैं भी लड़ लेती तो आज अनु को इतनी तकलीफ हो का सामना करना पड़ता।

आज वह खून के आंसूओ को रोकने पर विवश थी।

आखिर अपने मन की बात किससे कहें??

दो बेटियों के पैदा होने पर वह मां होने का फर्ज तो निभा रही थी। मगर शायद बेटा न दे पाने से अच्छी बहू कभी नहीं बन पाई।

खाने आ जाओ उसे हर रोज भुगतना पड़ रहा था मगर मैं आज भी स्वयं से लड़ रही थी अपनी बच्चियों के लिए सोचती कि काश सांस इतनी पक्षपात नहीं करती बेटा और बहू को समान रूप से समझकर सम्मान देती तो आज उसका परिवार भी हंसता खिलखिलाता।

बेटियों के जन्म पर खुशी मनाता।

बेटियां तो दो घरों को संभालती है ।

काश !कोई तो बेटियों को अपनापन दे पाता।

ऋतु गर्ग, सिलिगुड़ी,पश्चिम बंगाल

स्वरचित मौलिक रचना

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!