चुपचाप जिम्मेदारी निभाता हुआ पुरुष  – शुभ्रा बैनर्जी

चुपचाप जिम्मेदारी निभाता हुआ पुरुष

अपने भाई के श्राद्ध में जैसे ही दोनों विवाहित बहनों ने सुधा के हांथों कुछ रुपए रखे,सुधा को लगा मानो उसके पति के मुंह पर थप्पड़ मार दिया है उन्होंने।बच्चों ने भी पहले ही बोल कर रखा था कि किसी से पैसों की मदद नहीं लेना मां।सुधा आस पास के लोगों के सामने ननदों को रुपए वापस कर उनका अपमान नहीं करना चाहती थी।खून का घूंट पीकर वह चुप रही।हां उनसे इतना जरूर कहा था “तुम्हारे भाई के जैसे जिम्मेदार इंसान ने अपने मरणोपरांत होने वाले खर्चों का बंदोबस्त पहले ही कर रखा था।”

आज से अट्ठाइस साल पहले वरुण की पत्नी बनकर आई थी सुधा। ससुराल में कदम रखते ही उसे अपने पति की जिम्मेदारियों का आभास हो चुका था।घर में कदम रखते ही नए -नए दूल्हे के हांथों बाजार की थैली देते हुए सास को तनिक भी संकोच नहीं हुआ था।एक बहन की शादी पांच साल पहले ही हो चुकी थी।एक अविवाहित शादी लायक बहन थी घर पर।सुधा ने वरुण से पूछा भी था कि शादी लायक बहन घर में रहते हुए, उन्होंने शादी करने का गैर जिम्मेदाराना निर्णय क्यों लिया?मां को शौक था बहू को घर लाकर फिर बेटी को विदा करने का।वरुण को देखकर सुधा यह मानने को विवश हो गई थी कि औरतें अपनी जिम्मेदारी का बखान जितनी आसानी से कर के महान होने का दर्जा प्राप्त कर लेतीं हैं,पुरुषों के लिए यह उतना सरल नहीं होता। “मर्द को दर्द नहीं होता”।”बेटा तो होता ही परिवार की जिम्मेदारी उठाने के लिए”।”हमारे बुढ़ापे का सहारा है बेटा,श्रवण कुमार है।”आदि- आदि जुमले पता नहीं किसी पुरुष ने बनाए थे या स्त्री ने?पुरुष को हंसकर अपनी जिम्मेदारी निभाने को प्रेरित करते थे।एक बेटा जो अभी तक भाई ही था,अचानक से पति बनते ही घर वालों के संदेह के घेरे में आ गया था।अपने स्वाभाविक व्यवहार करने पर भी माता-पिता और बहनों की तरफ से “शादी के बाद कितना बदल गया”ताना ही मिलता था।

सुधा को चुगली की आदत नहीं थी,पर परिवार में जिम्मेदारी के नाम पर वरुण के ऊपर पढ़ने वाले अतिरिक्त दवाब से अनभिज्ञ भी नहीं थी।अविवाहित बहन की शादी की जिम्मेदारी पिता ने बेटे -बहू पर डाली थी।मां ने गर्व से  समझाया था”मैं जानती हूं तुम दोनों छोटी बहन से बहुत प्यार करते हो।अब हमारी उम्र है गई।यह जिम्मेदारी तुम दोनों ही उठाओ।वरुण के मना करने के बावजूद भी ,सुधा इस नई जिम्मेदारी को पाकर अभिभूत थी।जब ख़र्च की बात निकली तो ससुर ने बैंक में ज्यादा पैसे ना होने की बात साफ कर दी। सुधा के बड़ी ननद से मदद लेने का सुझाव‌ देते ही मानो घर पर विस्फोट हुआ।ससुर गरजते हुए बरसे”क्या मतलब है तुम्हारा बहू?तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई यह कहने की?हमारे खानदान में बेटी से कुछ भी मदद लेना पाप समझा जाता है।”

“क्यों पाप समझा जाता है पापा? अपने माता-पिता के प्रेम,पोषण और सुख पर जब बेटी का समान अधिकार है तब मुसीबत के समय जिम्मेदारी में हिस्सा लेने का दायित्व बेटियों पर क्यों नहीं हो सकता?सुधा अपने व्यक्तिगत विचार उजागर कर उन दोनों के कोप का भाजन बन गई।वरुण को भी उसकी दखल अंदाजी पसंद नहीं आई। यद्यपि बड़ी ननद ने मदद करने का सब्जबाग दिखाया था , पर विवाह के समय अपनी असमर्थता जाहिर कर दी थी ननद और उनके पति ने।वरुण ने बाजार से कर्ज लेकर अपना दायित्व निर्वाह किया था,जिसमें सुधा की भी सहभागिता रही। कर्ज के बोझ तले दबे वरुण को दिन प्रतिदिन टूटते देखा था सुधा ने।एक खर्च को पूरा करने के लिए हर बार एक नया कर्ज,वरुण को कम उम्र में ही चिंताग्रस्त बना रहा था।




ननद की शादी वाले महीने में ही सुधा के मां बनने की पुष्टि भी हुई थी।

अब एक जिम्मेदार बेटा,भाई,,और पति बेबस पिता बन रहा था।बेटे के दुनिया में आने की खबर सुनकर भी एक उदार पिता जिम्मेदारी के बोझ तले,अपनी खुशी बांट नहीं पा रहा था।जिस बहन के बेटे के जन्म के समय मामा ने पूरे कॉलोनी में मिठाई बांटी हो,वह अब मजबूर था।एक शौकीन लड़का जो बिना परफ्यूम और बिना प्रेस किए कपड़े पहने घर से बाहर नहीं निकलता था,आज वक्त से पहले ही नीरस हो चुका था।अपने दुख को औरतों की तरह ना कह पाने का दंश पुरुष को किस तरह अंदर ही अंदर खोखला कर देता है,यह वरुण को देखकर समझ सकती थी सुधा।

कभी – कभी सुधा भी निराश होकर बच्चों के भविष्य,अपने बुढ़ापे की सोच की खातिर वरुण पर झल्ला उठती थी।क्या इकलौता बेटा होना अपराध होता है, परिवार में?

समय से पहले अतिरिक्त कर्ज के बोझ ने वरुण को शुगर का मरीज बना दिया था।सुधा भी अपनी तरफ से पति की जिम्मेदारी में सहभागिता कर रही थी,स्कूल में नौकरी कर के।ससुर की लंबी बीमारी और उनकी मृत्यु ने फ़िर एक नया कर्ज वरुण के ऊपर डाल दिया था।सुधा के मायके में भी समय-समय पर सुधा मदद करती थी,बेटी होने के नाते।बच्चे बड़े हो रहे थे।ना घर,ना जमीन,ना बैंक बैलेंस।बच्चों के भविष्य की चिंता करने पर एक दिन वरुण ने दृढ़ संकल्प लूटकर कहा था उससे”सुधा तुम्हारे पिता की असामयिक मौत के बाद प्राइवेट नौकरी होने के कारण तुम्हारी मां को अपनी ननदों के सामने हांथ फैलाना पड़ा था,जिस अहसान को तुम हमेशा अपने सर पर लादे रही।मैं तुम्हें यह दिन कभी नहीं देखने दूंगा।तुम्हें ना तो अपनी ननदों के पास और ना ही अपने भाइयों के पास हांथ नहीं फैलाना पड़ेगा।मेरे ना रहने पर भी तुम्हारे और बच्चों के प्रति मैं अपनी जिम्मेदारी निभाऊंगा।

आज उनकी तेरहवीं के दिन कंपनी से मिले पैसों से ही सारे खर्च पूरे हो रहे थे।उनके प्रोविडेंट फंड और ग्रैच्युटी के पैसों से उनकी लाड़ली बेटी की शादी भी हो जाएगी।अभी नौकर बची थी शेष सो बेटे को उनकी नौकरी मिल जाएगी।उनकी पत्नी को हर महीने पेंशन मिलेगी।दुनिया से जाकर भी उस पुरुष ने अपनी सारी जिम्मेदारियां निभा दी थीं। रिटायरमेंट के बाद सुकूनभरी ज़िंदगी जीने का उनका सपना शुगर के कारण किडनी फेल होने की वजह से पूरा नहीं हो पाया। जाते-जाते भी अपने परिवार को आर्थिक संरक्षण दे गया एक पुरुष।

अगले दिन ननदों की विदाई करते हुए उनके दिए हुए रुपए उन्हीं के बच्चों को सांस के हांथों दिलवाकर,सुधा ने वरुण की आत्मा को निश्चित ही शांति पहुंचाई थी। एक जिम्मेदार पुरुष के स्वाभिमान पर चोट कैसे लगने दें सकती थी सुधा????

#जिम्मेदारी 

शुभ्रा बैनर्जी 

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