अस्तित्व – स्मिता सिंह चौहान

सरिता जी अपनी खिड़की पर खड़ी खुले आसमां में चहचहाती चिड़ियो को देखकर आनंदित हो रही थी ।तभी रितिका (दोस्त)ने उसे टोकते हुए कहा “चाय यही पियें या अन्दर ।ऐसे किसे देखकर मन्द मन्द मुस्कुरा रही हो ।”

“यही पी लेते हैं, अरे कुछ नही इन पक्षियों को जब भी देखों, मन खुश हो जाता है ।कितना चहचहा रही है सवछंद।किसी भी रिश्ते का बंधन नहीं, अपने मन के भावों की मालिक ।”सरिता जी ने चाय का कप हाथ में लेते हुए बोला ।

“मालिक तो तुम भी हो, कल ये बता रहे थे कि सुयश (सरिता का पति )ने नई फैक्ट्री  खोली है तुमहारे नाम पर।भई ठाट है तुमहारे, फैक्ट्री  तुम्हारे नाम पर,घर तुमहारे नाम पर,बच्चे बाहर सैटल ।सैटल  है तुमहारी लाईफ  ।वैसे कितने का लिया वो प्लाट जहां फैक्ट्री लगेगी।”रितिका ने उतसुकतावश बोला ।

“मैं नहीं पूछती।क्या फायदा?कुछ कहाँ बताया सुयश ने कभी ।बस अपने घरवालों से डिसकस कर लेते हैं ।मेरे नाम पर अपनी शायद कुछ वजहों से कर रखा है सब कुछ ।वरना इनका बस चलें तो वो भी अपने घरवालों के नाम से करें ।”सरिता ने एक नकारात्मक भाव लेकर अपना पक्ष रखा ।

“क्यो ऐसा क्यो बोल रही हैं ? ठीक है किसी का झुकाव ज्यादा होता है अपने परिवार की ओर लेकिन तुझे पूछना तो चाहिए ना ।बीवी है तू उसकी ।”रितिका ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा ।

“बीवी होने से क्या होता है?हक भी तो होना चाहिए ।अब उम्र के इस पड़ाव में आकर तो मन भी नहीं करता कुछ झिकझिक करने का ।अब देख ना शादी के बाद जब मैं थोड़ा हक जताती भी थी,तो ये कहके चुप करा देते थे कि तुमहे समझ नहीं आयेगा ये सब ।अपनी चाॅइस का कुछ लेना चाहों तो माँ बाबूजी से पूछ लो।खुद के कपडे तक खरीदने का हक मुझे नहीं था

कयोंकि उनकी बहन की चाॅइस मुझसे अच्छी थी ऐसा बोल बोलकर वह मन भी खत्म सा ही कर दिया ।कभी किसी मामले में अपनी राय देने की कोशिश की तो सभी ऐसा जताते थे कि तुम तो पराये घर से आयी हो,तुमहे समझ नहीं है।कई बार मन किया कि बोलू की बेवकूफ को तो घर की बहु बनाकर नहीं लाये होंगे, फिर सोचती थी छोड़ो क्लेश करके क्या फायदा?।

सुयश का रवैया मेरी तरफ ऐसा रहा कि तुम्हारा मौन ही हमारे साथ एक शांत जीवन का पर्याय है ।धीमे धीमे मैने वैसा ही अपना लिया “सरिता ने अपने मन की बात रितिका से बोली।

“ठीक है ना ,गृहस्थी जिस तरह से सुचारु रूप से चले वैसे चलानी चाहिए ।देख आज के दिन देखा जाये तो तेरे पास क्या नही है, एक आलीशान घर,भैया का दिन दुगुना रात चौगुना बढता कारोबार, बच्चे वैल सैटैल ।और हमें देख एक मिडिल क्लास वाली लाइफ से ऊपर ही नही बढ पाते।उसपर मेरा और राज का कुछ ना कुछ किच-किच चलता ही रहता है।अगर एक मौन से इतनी सहूलियत भरी लाईफ चलती हो तो और क्या चाहिए ?”रितिका ने सरिता की बाहरी जिंदगी का मूल्यांकन करते हुए कहा ।

“मेरा अस्तित्व “जो मैं खो चुकी ।देख ना मैंने जिंदगी को एक ऐसे मौन के पाश में जकडा जहां मेरे अस्तित्व ने दम तोड़ दिया।तू जिंदगी जी रही है और मैं काट रही हूँ ।दम घुटता है कई बार लेकिन फिर यही ख्याल आता है कि क्यो मैं अपने अस्तित्व को नहीं बचा पायी ।क्या होता झगड़ा होता या किसी को बुरा लगता

लेकिन मेरे अन्दर एक सवछंद सरिता तो जिन्दा रहती ।अब देखा जाये तो मैं एक ऐसा अस्तित्व विहीन जिंदगी जी रही हूँ जहां सब कुछ होते हुए भी मैं कुछ नहीं ।ऐसा मौन भी किस काम का जो आपका अस्तित्व ही मिटा दे ।”सरिता अपनी पीड़ा को शब्दों में ढाल रही थी।

“सही कह रही है ,मेरे और राज के बीच बहुत वैचारिक मतभेद है लेकिन उनहोंने कभी किसी के सामने मुझे मेरी बात कहने की आजादी दी है चाहे परिवार हो या सामाजिक दायरा।वह हमेशा कहते है हमसफर बनकर रहो गुलाम नहीं ।”रितिका ने सरिता की बात का समर्थन करते हुए कहा ।सरिता ने फिर खामोशी की चादर ओढनी ली और एक लंबी सांस लेते हुए, उन पक्षियों को निहारने लगी जिनकी उनमुकतता उसके अन्तर्मन के घावों पर मरहम लगा रहे थे ।

दोस्तो, सरिता ने शायद अपने लिए स्वयम खडे होने से बेहतर, मौन चुना।जिसकी कीमत उसे अपने अस्तित्व की आहुति देकर चुकानी पडीं ।इसलिए कभी-कभी अपनी बात ना कह पाना,या दूसरे को अपनी मौजूदगी का अहसास ना दिला पाना आपके लिये अभिशाप बन जाता है ।आपकी इस विषय पर क्या राय है?अवश्य दीजियेगा।

आपकी दोस्त

स्मिता सिंह चौहान

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