अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 38) – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi

“भैया, टिकट तो आप आज देख रहे थे। फिर ये दोनों”…संपदा मिन्नी, विन्नी के अंजना के पास जाने के बाद मनीष से धीरे से पूछती है।

“ये तो परसों ही करा दिया था मेरी बहन, मिन्नी, विन्नी इसी शर्त पर आई हैं कि दो दिन से ज्यादा नहीं ठहरेंगी तो लौटने की टिकट देख रहा था।” मनीष झुक कर संपदा के कान में कहता है।

मिन्नी, विन्नी अंजना से मिल कर विनया के गले से लगी हुई थी और गिले शिकवे कर रही थी, “भैया को हमारी याद आ गई, नहीं तो आप तो भूल ही गई थी हमें।”

इस दरम्यान, विनया ने गले से लगी हुई मिन्नी और विन्नी उतनी ही गर्मजोशी से कहा, “तुम लोग हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण हो और हमें खुशी है कि तुम यहाँ हो।”

मिन्नी, विन्नी के आने से यहाॅं एक प्यार और खुशी से भरा माहौल बन गया था है।

“अभी हम यहाॅं दो दिन हैं, जितनी खातिरदारी करनी हो कर लीजिए।” मिन्नी कमर पर हाथ रखती हुई थोड़ा तन कर थोड़ी हॅंसी के साथ विनया की ओर देखकर कहती है।

“कैसी बात कर रही है तू, भाभी से खातिरदारी करवाएगी। ये नहीं कि कहे भाभी हम आ गए हैं, आपके साथ मिलकर सब कुछ करेंगी। संपदा से कुछ सीख, कितनी इज्जत करती है बहू की।” मंझली बुआ अपनी बेटी के वचन सुनकर उसे अंदर कमरे में आकर उसे झिड़कती हुई कहती हैं। उनके कथन पर कमरे में मौजूद सभी लोग और बाहर बैठी बड़ी बुआ भी चौंक पड़ी थी। अभी तक तो मंझली बुआ ने अपनी भाभी के कामों में सिर्फ नुक्स ही निकालती आई थी और कटाक्ष करती रुलाती आई थी, जो व्यक्ति सिर्फ आलोचना और ताने देने के लिए जाना जाता था। उनका हृदय परिवर्तन देख सहसा किसी को विश्वास नहीं हुआ था। मंझली बुआ के अचानक बदले रुख को देखकर कमरे में मौजूद सभी व्यक्तियों की चेहरे पर अजीबोगरीब भ्रम की छाया बनी हुई थी। खासकर अंजना तो उन्हें ऐसे देख रही थी मानो कुछ अजूबा सुन लिया हो या देख लिया हो। इस नए दृष्टिकोण के माध्यम से बुआ ने दिखाया कि विकल्पों की सीमा नहीं होती और जब हम अपनी आत्म-समीक्षा करते हैं और सकारात्मक परिवर्तन की दिशा में कदम उठाते हैं, तो हम स्वयं को और दूसरों को भी संबल प्रदान कर सकते हैं।

“लेकिन मम्मी आप तो बड़ी मौसी के साथ मिलकर दो दो घंटे बैठ कर मामी”,… अपनी मम्मी की बात पर विन्नी बोलने ही जा रही थी कि बगल में खड़ी विनया ने उसका हाथ पकड़ कर जोड़ से दबा दिया और विन्नी विनया की इस हरकत पर चुप होकर विनया की ओर देखने लगी। विन्नी की आँखों में हैरानी दिखाई दे रही थी और विनया की ओर उसने इस तरीके से देखना शुरू किया जैसे कि विनया के द्वारा कुछ बड़ा कर दिया गया  हो। विनया नहीं चाहती थी कि इस बदलते समय कोई एक सदस्य भी छोटी सी बात पर आहत हो और फिर से कटुता पाल ले।

“सब यही बैठे बैठे दिन गुजार लेंगी कि ये दो दिन मजा मस्ती भी करेंगी।” कोयल के बगल में खड़ी दीपिका माहौल को समझती हुई हल्के से ताली बजाती हुई कहती है।

मिन्नी, विन्नी दीपिका की ओर अपरिचय की नजर से देखने लगी। उनकी नजर उस पर गई तो थी लेकिन परिचय का अवसर नहीं मिला था।

“ये मेरी भाभी की भाभी हैं, इसलिए हमारी भी भाभी।” दोनों बहनों की नजर में अपरिचय की भावना देख संपदा दीपिका के दोनों कंधे पर हाथ रख अपना चिबुक टिकाती हुई कहती है।

“हो गई अब हमारी जान–पहचान। अभी तो मैं निकलूंगी, अब मैं कल आऊंगी, जान–पहचान आगे बढ़ाने।” दोनों बहनों की ओर प्यार से देखकर अंजना की ओर आज्ञा लेने वाली निगाह से दीपिका देखती है।

“कल समधन जी को भी लेती आना।” अंजना दीपिका से कहती है।

“दोनों के साथ तुम भी जा रही हो क्या?” दिन भर की धमा चौकड़ी के बाद खाने की टेबल चर्चा सुनने के बाद कमरे में बड़ी बुआ अपनी बहन से रुखाई से पूछती है।

“हाॅं, दीदी, मैं तो भूल ही गई थी कि मेरा भी घर परिवार है। किसी के जीवन में विष घोलने के चक्कर में अपने घर में वो विष धीरे धीरे पग पसार रहा है, इस पर तो कभी ध्यान ही नहीं गया मेरा। दोनों को देखा ना एक बार भी मेरे पास आकर बैठने की जहमत नहीं उठाई दोनों ने। कैसे मेरे करीब जाते ही दोनों बारी बारी से उठ कर चली गई। घर पर भी आपस में ही खुसुर फुसुर करती रहती हैं। अब एक नए सिरे से मुझे भी अपने घर के रिश्तों को संभालना होगा।” मंझली बुआ अपने जज्बात निकालने के लिए मानो भरी बैठी थी और दिन भर के घटना क्रम ने जहाॅं सभी को नई ऊर्जा दी, वही मंझली बुआ अपने कर्मों को याद कर आहत होती रही।

“फिर मैं कैसे रहूंगी यहाॅं, इस विनया से कुछ होता तो है नहीं।” बड़ी बुआ बहन के जज्बातों को, उसकी भावनाओं को एक बगल करती तमक उठी थी।

“दीदी मैंने सुबह भी आपसे कहा था, विनया भली लड़की है। हमने ही गलत चश्मा लगा रखा है तो सब कुछ गलत दिशा में ही दिखता है। रात में भी विनया ने”…

“उसने कंबल क्या ओढ़ा दिया, तेरे तो विचार ही इधर से उधर हो गए।” बड़ी बुआ अपनी बहन का मजाक बनाती हुई कहती है।

“जो भी हो दीदी, मैं तो अपने घर जा रही हूं और आपसे भी कहूंगी अपने बेटे बहू को मान दीजिए, उसका साथ दीजिए। कब तक अपने घर की जिम्मेदारियों से भागती रहेंगी”….

“हो गया तुम्हारा भाषण तो चुप हो जाओ, मुझे मत सिखाओ क्या करना चाहिए क्या नहीं, अपनी बेटियां तो संभल नहीं रही, दूसरे को ज्ञान देने चली है।” बड़ी बुआ जिन्हें कभी किसी की बात विशेषकर उचित बात सुनने की आदत नहीं थी, वो बिना सोचे समझे बोलती जा रही थी। बड़ी बुआ ने आरोपों से भरी बातें कहीं, जो आधारहीन और समझदारी से दूर थी और मंझली बुआ उनके आरोप प्रत्यारोप को ऑंखें फैलाए सुन रही थी। उन्होंने तो बड़ी बहन समझ कर अपनी बेटियों की चर्चा उनसे की थी और वो तो आरोप पर आरोप लगाए जा रही थी। बड़ी बुआ ने बिना सोचे समझे अपना दृष्टिकोण व्यक्त किया, जो सीधे तौर पर मंझली बुआ के परिवार और बेटियों को नकारात्मक रूप में शामिल कर रहा था। मंझली बुआ उनके आरोप प्रत्यारोप को सुन रही थी, और उनकी ऑंखों में विचारशीलता और समझदारी की भावना थी। बड़ी बुआ की तरफ से बिना सोचे समझे भड़काऊ आरोपों के बावजूद, मंझली बुआ ने एक संवेदनशील और विचारशील उत्तर देने का प्रयास किया।

“दीदी, आप बेहद क्रोधित अवस्था में हैं, इसलिए अभी कुछ समझ नहीं सकेंगी। फिर भी आप अपनी आगे की स्थिति पर विचार जरूर कीजिएगा।” मंझली बुआ बड़ी बहन को भविष्य के लिए दर्पण दिखाने की कोशिश करती करवट बदल कर सोने की कोशिश करती हैं। मंझली बुआ ने बड़ी बहन को आगे की स्थिति को सही दृष्टिकोण से देखने के लिए प्रेरित किया। बड़ी बुआ जो क्रोधित और थकी हुई थीं, उन्हें धीरे-धीरे अपने भविष्य की दिशा में सोचने का समय दिया । मंझली बुआ ने उन्हें यह बताने का प्रयास किया कि इस कठिन समय में भी विचार और सोचने का समय होना चाहिए।

भले ही उन्हें बड़ी बहन के विचारों ने हृदय को ठेस पहुंचाई थी और उनकी ऑंखों से इस वक्त नींद कोसों दूर थी लेकिन फिर भी वो ऑंखें बंद किए अपने मन की मथनी में अपने विचारों को मथ रही थी। वह अपने मन की गहराईयों में चुपचाप बैठकर अपने विचारों को समझने का प्रयास कर रही थी। वह सोच रही थी कि कैसे वह अपने जीवन को सकारात्मक दिशा में मोड़ सकती है और आने वाली मुश्किलों का सामना कर सकती है। इस चुनौतीपूर्ण समय में उनका मन धीरे-धीरे समाधान और समर्पण की दिशा में बदल रहा था। नींद की बूंदों से दूर, उन्होंने आत्मसमीक्षा करते हुए अपने आत्मविश्वास और सामर्थ्य को बढ़ाना चाह रही थी।

उधर विनया जो दिन भर इस ऊहापोह में थी कि जब दीपिका को मनीष ने फूलों का गुलदस्ता दिया तो क्या अंजना उस समय मौजूद नहीं थी, वह यह जानने के लिए इतनी उत्सुक थी कि सबके अपने अपने कमरे में जाते ही सारे काम छोड़ झट से अंजना के कमरे में घुस गई थी और बिस्तर पर उससे चिपक कर बैठी पूछ रही थी, “माॅं क्या आपको इस गुलदस्ता के बारे में मालूम नहीं था, जबकि ये गुलदस्ता तो भाभी हो लाई थी।”

ये पूछते हुए विनया के चेहरे का आवरण हया की लाली बन गया था और उसे छेड़ते हुए अंजना कहती है, “अच्छा, मुझे तो लगा मनीष का लिखा पत्र था, तो वो दीपिका ने लिखा था।”

नहीं माॅं, वो तो, ओह हो, आप ये बताइए कि गुलदस्ता जब भाभी के हाथ में आया तो आप वहाॅं थी कि नहीं”….

“नहीं, ना ही मम्मी और ना ही पापा मौजूद थे, मैं और दीपिका भाभी मौजूद थे। अब पूछिए, क्या पूछना चाहती हैं।” संपदा कमरे में आती हुई कहती है।

“नहीं मैं तो बस ऐसे ही” विनया झेंप सी गई थी। 

“ऐसे ही क्या भाभी, पूछिए ना, पूछिए ना”…संपदा ठुनकती हुई कहती है।

“नहीं कुछ नहीं, मैं रसोई समेट लेती हूं।” विनया अपनी मुस्कान बमुश्किल दबाए बिस्तर से उतरती हुई कहती है।

“वो सब तो मैंने कर लिया भाभी, अब आप सोने जाइए। क्या पता कमरे में और कुछ सरप्राइज़ प्रतीक्षा में हो। क्योंकि अब भैया अपने पुराने स्वरूप में वापस आ गए हैं। अब भैया का मौन भी अर्थपूर्ण होगा। देखते हैं मेरी इंटेलिजेंट भाभी समझ पाती हैं कि नहीं।” संपदा बिस्तर से उतरती हुई विनया को लगातार छेड़े जा रही थी और विनया का चेहरा बीरबहूटी सा हो गया था। इस समय विनया की होंठों की लाली और चेहरा दोनों ही गड्डमड से हो गए थे, लग रहा था जैसे उसके अधर की लाली चुरा कर चेहरे ने मल लिया हो। और वो रुक कर अंजना से लिपट कर उसकी गोद में अपना चेहरा रखती हुई कहती है, “माॅं”। 

“क्यों तंग कर रही है मेरी बच्ची को।” अंजना संपदा को झिड़कती हुई कहती है। 

“नींद आ रही है मुझे, सोने जाने कहो अपनी बच्ची को।” संपदा विनया के ऊपर से चादर खींचती हुई कहती है।

“हाॅं, हाॅं जाओ अब सोने। पता नहीं सुबह मनीष का क्या प्रोग्राम बने।” अंजना भी अपनी बेटी की ओर देख सहमति जताती हुई कहती है।

“पर माॅं”, विनया की ऑंखों में ढ़ेर सारा संकोच भरा हुआ था। 

“अब खुशियां दस्तक दे रही हैं तो नहीं कुछ नहीं। चलो चलो जाओ सोने, मुझे भी नींद आ रही है।” अंजना उबासी लेती हुई कहती है।

विनया झिझक भरे कदमों से अपने कमरे की ओर बढ़ रही थी। जब मनीष उसे ताने देता झिड़कता रहता था तो उसे कभी इस कमरे में आने में संकोच नहीं हुआ था, बेखौफ इस कमरे में ऑंखों में चिंगारी भरे प्रवेश करती थी और अपनी तूफानी जुबान से मनीष की बोलती बंद कर निकल जाया करती थी। लेकिन आज की रात बिल्कुल अलग सी ही थी, पुष्पों की जुबानी मनीष के दिल की कहानी पढ़कर उसके पैरों की रवानी रुक गई थी। अपने जीवन के इस नए मोड़ पर आने वाले संबंध के बारे में उसने सोचा नहीं था। मनीष को वो पसंद करती थी, लेकिन मनीष उसे कभी पसंद करेगा, ये तो उसने विचारा ही नहीं था। इस नए रात के साथ उसका हृदय नई भावनाएं और अपेक्षाएं भर कर ले आया था। साथ ही उसके कानों में संपदा की बातें भी गूंज रही थी कि भैया अब अपने स्वरूप में लौट आए हैं। कुछ देर दरवाजे के बाहर खड़ी रहने के बाद विनया बिना आवाज दरवाजा खोल अंदर की ओर झांकती है और घुप्प अंधेरा देख चैन की साॅंस लेती मोबाइल से प्रकाश कर शॉल के अंदर रखती अपने बिस्तर की ओर बढ़ती है। तभी अंधेरे में ही अचानक उसे बहुत ठंड का अहसास होता है और अपने सिर पर कुछ नर्म नर्म सा गिरता हुआ महसूस हो होता है, उस अंधेरे में वो ऊपर देखने की कोशिश करती है लेकिन कुछ भी देख पाने में अक्षम होती है और मनीष के जगने के डर से शॉल के अंदर से मोबाइल भी नहीं निकालती और डर से उसके पैर वही जम से गए था। 

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आरती झा आद्या

दिल्ली

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