अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 23) – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi

“भरवां करेला, दम आलू, आह हा, मजा आ गया मामी। आपने याद रखा था मामी।” संभव डाइनिंग टेबल पर सजे हुए डोंगे में अपनी पसंद के व्यंजनों को देखते ही खुश हो गया था।

“बच्चों की पसंद कोई भूलता है भला।” बोलती हुई अंजना एक नजर मनीष पर डालती है। अंजना की बातों में एक विशेष प्रेम की भावना थी, जो उसे माँ की भूमिका को पूर्णरूपेण परिलक्षित कर रहा था । जब वह कहती है, “बच्चों की पसंद कोई भूलता है भला” तो इससे स्पष्ट हो रहा था कि उसे अपने परिवार के सदस्यों की प्राथमिकताओं और आदतों का महत्व है। उसकी नजर मनीष पर होने से, यह दिखता है कि उसे अपने बेटे और परिवार के सदस्यों की चाहतों और पसंदों का विशेष ख्याल है और अंजना को विनया ने ही ये महसूस कराया था कि यदि आप अपना प्यार, अपने जज्बात उन तक नहीं पहुॅंचाऍंगी तो आप कितना भी कर लें, वो इसे केवल आपका काम समझेंगे प्यार नहीं। कभी कभी हमें बोल कर, नजरों से भी प्यार, अपनापन दिखाना होता है और आज जब अंजना मनीष की ओर देखती संभव के सवाल का जवाब देती है तो इतने दिनों से दबा प्यार उसकी ऑंखों में उतर आया था, जिसकी ताप मनीष तक भी पहुॅंची थी। 

उस तपिश से मनीष भी अपनी माँ की ओर मुस्कान से देखता है और उसके दिल में माँ के प्रेम के लिए एक गहरा आभास महसूस होता है। उसका चेहरा खिल उठता है और वह बचपन की यादों में खो जाता है, जब माँ की मुस्कान ही उसके लिए सबसे मधुर गीत हुआ करती थी। तब वह इस मुस्कान को ही सच्चा सौंदर्य समझता था और अपने  जीवन में सजाकर रखता था, जिससे उसका जीवन रंगीन हो जाता था और उसके हृदय में हमेशा सकारात्मक भावनाऍं भरी होती थी। उस मुस्कान में छिपा हुआ प्रेम मनीष को एक सुंदर समर्पण का आभास कराता था, जिससे उसका जीवन सहजता से और महकता था। बचपन की यादों में वह आदर्श दिनों को महसूस कर रहा था, जब माँ की मुस्कान ही सबसे मधुर अध्याय हुआ करती थी और उसने इसे अपने जीवन के सबसे प्यारे संगीत के रूप में दिल में अमृत की तरह भरा हुआ था जो उसे हमेशा एक सकारात्मक मार्ग पर लिए चलता था। “कब, कैसे मम्मी की मुस्कान की डोर उससे छूट गई और मम्मी मुस्कान सहित कहीं छिटक गईं।” मनीष के सामने बचपन की कई घटनाऍं सजीव हो उठी और वह उस मुस्कान को अपनी माॅं के चेहरे में खोजने लगा। लेकिन उस मुस्कान को खोजने में वह असमर्थ रहा क्योंकि घर की घंटी घनघना उठी थी।

“लगता है बुआ आ गईं।” कहता हुआ मनीष दरवाजे की ओर भागा और अंजना मनीष की प्यार भरी मुस्कान में खोई जा रही थी। अंजना के चेहरे पर कलियों सी रेखाएं खिल उठीं, जैसे चुपके से आई किसी खुशबू ने उसकी मुस्कान को झरोखे में बदल दिया था। उसे मनीष का वो बचपन याद हो आया था जब आँसुओं में खो जाने से पहले, मनीष की बाॅंहें एक सुकून भरी छाया बन जाती थी, जिसने उसे उसकी माँ की ममता की महक महसूस कराई थी। यह प्रत्येक औरत की आँखों में पलता उत्साह और खुशी का चमकता हुआ सफर होता है, जैसे हर पल कोई नया सवेरा उसके जीवन को छू रहा हो। उसका चेहरा चमक रहा था एक माँ की प्रेम भरी कहानी से, जो बेटे के बचपन की यादों को ताजगी से भर देती थी। 

एक युग से जब भी वो अपने बच्चों की ऑंखों में अपने लिए प्यार, सम्मान खोजती, कुछ ना कुछ खरोंच लग ही जाती थी और वो इस बेरहम खरींच के लिए मरहम ना खोज कर खरोंच को जख्म बनने देती थी और अभी जब उसे मनीष की ऑंखों में बचपन वाला प्यार झाॅंकता महसूस हुआ, घर की घंटी के रूप में फिर से एक खरोंच उसके हृदय को लहूलुहान कर गया और वो गहरी साॅंस लेकर संभव के प्लेट में उसकी पसंद रखने लगी थी। 

“कहाॅं रह गईं थी बुआ, संभव भैया और भाभी कब से आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।” दरवाजे से अंदर आता हुआ मनीष उलाहना देता है।

“मंदिर तक गई थी, सत्संग में ही बैठी रह गई।” बुआ कहती हैं।

“कैसा रहा सत्संग मम्मी।” संभव माॅं और मौसी को देख चरण स्पर्श करता हुआ पूछता है।

“ज्ञान की कुछ बातें हुई कि नहीं मौसी।” संभव फिर से कुर्सी पर बैठता हुआ मसखरी में पूछता है।

“कितने दिन हो गए थे तुझे देखे।” मंझली बुआ संभव के पास वाली कुर्सी पर बैठती हुई कहती है।

“बिगाड़ने के बदले संवारने का सोचें आप, तभी तो किसी और कि तरफ दृष्टि जाएगी ना मौसी।” एक निवाला मुॅंह में डालते हुए संभव कहता है।

“तुम…तुम खाओ, मैं गोलू से मिलती हूॅं।” संभव के कथन पर नजरें चुराती हुई मंझली बुआ उठ खड़ी हुई और संभव मुस्कुराता हुआ एक बार मौसी की ओर और एक बार मनीष की ओर देखता है।

मनीष बुआ को अचानक उठ कर जाते देख कंधे उचका कर मुस्कुराते संभव की ओर देखने लगा। 

“आज सब कुछ अजीब सा ही है।” मनीष बड़बड़ाता है।

“हाॅं, मनीष बाबू, हमलोग जो आ गए हैं। जब तक रहेंगे सब कुछ अजीब ही रहने वाला है।” संभव अपने अंतिम निवाले को खत्म करता हुआ मनीष से रहस्यमयी मुस्कान के साथ कहता है।

“तुमलोग यहाॅं क्यों आई हो। जानती हो ना अंजना बहू की नजर में किसी का कोई महत्व नहीं है। मनीष की बेइज्जती होगी तो तुम्हें भी पसंद नहीं आएगा।” अपने कमरे में कोयल से बातें करती हुई बड़ी बुआ उसे भड़काने का प्रयास करती हैं।

“इतनी खराब हैं मामी जी तो मम्मी आप कैसे इतने दिन यहाँ रह लेती हैं। वो भी तब ही जब दादा जी या दादी जी की तबियत खराब होती है। इस बार तो उनके साथ साथ गोलू की भी तबियत ठीक नहीं थी। ऐसे में आप कैसे”…. कोयल अंजना के कहे में ना आती हुई सवाल करती है।

“क्या करुॅं बहू, भाई भतीजा का मोह खींच लाता है।” बड़ी बुआ दयनीय चेहरा बनाती हुई कहती हैं।

“इसलिए बुआ आपने अभी तक गोलू को याद भी नहीं किया।” संपदा गोलू को लिए कमरे में आ कर गोलू को बुआ की गोद में देती हुई कहती है।

“चलिए कोयल भाभी हम बालिकाऍं भी अल्पाहार लें, मम्मी और भाभी प्रतीक्षारत हैं।” संपदा अपने दुपट्टे को राजकुमारी की तरह अपने बाॅंह पर समेटती हुई कहती है। इस समय उसके रूप और बोलने की शैली से उसके अंदर की गरिमामई रूप उजागर हो रही थी। उसकी आँखों में उम्मीद और प्रत्याशा की फसलें लहलहा रही थी। उसकी आत्मविश्वास से भरी हुई नजरें उसकी विचारशीलता को भी दर्शा रही थी।

“क्या बात है संपदा जी, आप तो राजसी प्रतीत हो रही हैं।” अभी के उसके रूप लावण्य को देख कर कोयल कहती है।

“आजकल संपदा दीदी शकुंतला बनी हुई हैं भाभी। उसका पूरा असर इनके सौंदर्य और इनकी बोली में दिखता रहता है। शकुंतला की छाया इन पर कब तक रहेगी, ईश्वर ही जाने।” संपदा को देर होता देख विनया कमरे में बुलाने आई थी और कोयल की बातों का उत्तर देती हुई एक प्यार भरी दृष्टि संपदा पर डालती है।

“और अब देवी का आदेश हो तो दोपहर के भोजन के लिए प्रस्थान किया जाए।” विनया भी संपदा की सी अदा में कहती है।

“बिल्कुल देवी, आइए।” संपदा हॅंस कर कहती हुई आगे आगे कमरे से निकल गई।

“दीदी, लगता है विनया को इस घर में लाकर तुमने बड़ी भारी गलती कर दी है।” मंझली बुआ दरवाजे की ओर देखती हुई बड़ी बुआ को संबोधित करती हुई कहती है। बुआ की आवाज में चिंता की परतें साफ़ तौर पर दिख रही थी। उनके चेहरे पर सख्ती की झलक से जाहिर हो रहा था कि वह इस विषय पर गंभीर होकर बात कर रही हैं। उनकी बोल चाल में अधिकार छिन जाने का अहसास भरा हुआ था, जो वातावरण को गंभीरता से भर रहा था। बुआ की आवाज सावधानी भरी सोच की सजीवता लिए हुए थी । उनकी ऑंखों में एक गहरी चिंता और उत्सुकता की छाया छा गई थी, जो विनया के इस घर में आने से शनै: शनै: चीजों में होते परिवर्तन को देख उत्तेजना और चुनौती की चरम स्थिति को दर्शा रही थी।

“तू इसे संभाल, जानती ही है मुझसे ये बच्चे वच्चे नहीं संभाले जाते।” बड़ी बुआ अपनी गोद से गोलू को उतार मंझली बुआ के गोद में देती हुई कहती हैं।

“दीदी, अब इस उम्र में मुझसे भी बच्चे कहाॅं संभल सकेंगे।” अभी तक जो मंझली बुआ विनया को लेकर बड़ी बुआ के सत्ता परिवर्तन की समीक्षा कर रही थी, खिसिया कर कहती है।

“मुझसे तो छोटी ही हो तुम, मेरी तो उम्र हो गई है, तुम्हारी कौन सी उमर हो गई, जो बच्चे नहीं संभाल सकती। अभी तो सिया धीया की भी शादी नहीं हुई है।” मंझली बुआ के खिसियाए स्वर को सुनकर उनकी बेटियों का हवाला देती हुई बड़ी बुआ उन्हें डपटती हैं और हमेशा बड़ी बुआ की हर बात में हामी भरने वाली और नक्शेकदम पर चलने वाली मंझली बुआ आज चाह कर भी बरस नहीं सकी। अंदर ही अंदर गरज कर कुनमुना कर रह गईं, बड़ी बहन के गलत सही बातों में साथ देने के कारण आज पहली बार अपने विचारों को बाधित महसूस करने लगी।

“एक तो इतनी तेज भूख लगी है। खुद से सब मजे से पकवान उड़ा रही हैं और हम यहाॅं”…. 

“तो किसने कहा था कहने कि हमलोग सत्संग से खा कर आईं हैं। तुम्हारे साथ साथ मेरा भी हाल खराब हुआ पड़ा है।” बड़ी बुआ अपना पेट पकड़े कह ही रही थी कि उनकी बात के मध्य मंझली बुआ तमतमा कर बोल उठी।

बड़ी बुआ चौंक कर अपनी बहन की ओर देखने लगी क्योंकि उन्हें अपनी छोटी बहन की बातों में विद्रोह की ज्वाला धधकती सी लगी थी। उसका स्वर तीखापन और चिड़चिड़ाहट भरा हुआ था। उन्होंने अपने आसपास हमेशा एक ऐसी दुनिया बना रखी थी, जिसमें उनकी मंझली बहन उनकी हर बात में स्वीकृति भरती उनके द्वारा पोषित होती थी। अभी अचानक उसके सामने बड़ी बुआ को अपने शब्द, अपने विचार दबे दबे से लग रहे थे और बड़ी बुआ अपने अंतर्मन को घायल महसूस करती विचलित हो उठी। उन्होंने गौर से अपनी बहन की ओर देखा, जो गोलू संग खेलती हुई बड़ी बहन को पूरी तरह नजरअंदाज कर रही थी। अचानक ही वो खुद को पराजित महसूस करने लगी थी।

“ला इधर दे गोलू को और जाओ तुम उन लोगों के साथ खाना खा लो।” बड़ी बुआ गोलू को लगभग छीनती हुई बहन से कहती है।

बड़ी बहन द्वारा उसके मन की बात समझ लेने पर मंझली बुआ ने शर्मिंदा होकर बड़ी बहन से कहा, “लेकिन दीदी, तुम”। उसकी आँखों में गहरी चिंता उभर आई थी, जो उसके भावनात्मक स्थिति को दिखा रही थी।

बड़ी बुआ ने बहन के मन की बात समझ लेते हुए उसे शर्मिंदा होती हुई देखा और बड़ी सावधानी से पूछा, “तुम कुछ कहना चाहती हो?” शर्मिंदा हुई मंझली बुआ ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया, “हाँ, लेकिन यह कहना मुश्किल है।”

बड़ी बहन ने अपने भावनात्मक संबंध को दिखाते हुए कहा, “हमारे बीच कोई बात छुपी नहीं रहनी चाहिए। तुम जो भी महसूस कर रही हो, मेरे साथ साझा करो। मैं तुम्हारे विचार को जानने के लिए आतुर हूॅं और तुम किसी भी बात को बेझिझक कह सकती हो।”

“नहीं दीदी, ऐसी कोई विशेष बात नहीं है।” छोटी बहन द्वारा बड़ी बहन को इस तरह परेशान अस्थिर देखना रास नहीं आया और इस एक क्षण में उनकी बातचीत में एक संवेदनशीलता और संबंध की गहराई दिखने लगी और कड़वाहट उन दोनों को आश्चर्य से दिखती विलीन हो गई।

बड़ी बुआ के चेहरे पर इत्मीनान की मुस्कुराहट आ गई थी, जैसे कि उसने अपने विचारों में परिवर्तन का सामना कर लिया हो। उसकी आँखों में जो चमक थी, वह बता रही थी कि उसने एक नई सोच और उपयोगी दृष्टिकोण की प्राप्ति की है। उसके चेहरे पर छाई काली बदरी ने छोटी बुआ को अपने विचार बदलने पर मजबूर कर दिया। दिल में क्षण भर पहले जो शोले धधके थे, उसे तबस्सुम बन उड़ते क्षण भर का भी समय नहीं लगा।

आरती झा आद्या

दिल्ली

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8 thoughts on “अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 23) – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi”

  1. Antarman ki laxmi ..utkrist kahaniyon ka sangra..par dukh ki baat hai ki mai bhag 10 ke bad mujhe age ka bhag nahi mil raha hai

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