अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 24) – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi

“क्या बात है मनीष, तुम्हारे और विनया के बीच कोई दिक्कत है क्या?” संभव बालकनी में मनीष के साथ बैठा हुआ पूछता है।

“नहीं भैया, कोई दिक्कत नहीं है।” मनीष संभव की ओर देखे बिना ही कहता है।

“तुम दोनों को देखकर ऐसा क्यों लगता है, जैसे एक दूसरे से खींचें खींचें से रहते हो।” संभव कंसर्न दिखाते हुए पूछता है।

“नहीं भैया।” मनीष अनमना सा हो उठा।

“ये तो अच्छी बात है। विनया ने घर तो बहुत अच्छे से संभाल लिया है। सबसे अच्छी बात है कि अब मामी के चेहरे पर भी छोटी सी ही सही मुस्कान लौट आई है और संपदा तो पहले वाली चहकती गुड़िया बन गई है।” मनीष के भाव को दरकिनार करते हुए संभव विनया की तारीफ करते हुए कहता है। संभव के मुख से निकली ये बातें संवेदनशील और आनंदित पलों को उजागर कर रही थी, जिसे देखने में मनीष असमर्थ था। इसलिए संभव उन परिवर्तन को मनीष के सामने प्रतिबिम्बित करने का प्रयास कर रहा था।

संभव की बात पर बिना कोई जवाब दिए मनीष बालकनी में बैठा घर के अंदर देखने लगा मानो घर संसार की प्रगाढ़ता को खोजने की कोशिश कर रहा हो, जैसे कि वह घर के आंतरिक संबंध और वातावरण की सार्थकता को समझने का प्रयास कर रहा हो।

“संभव पंद्रह दिन हो गए, कब तक यूॅं हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे। मनीष भैया और विनया के संबंध वैसे नहीं हैं, जैसे एक पति पत्नी के होते हैं। आपकी माॅं ने मनीष भैया के दिमाग में विनया के प्रति कई दुर्भावना डाली हुई है। वो मामी की तरह ही घर नहीं संभाल सकती। कभी इसी सब वजह से हम अलग होने वाले थे संभव। आप तो अपनी मम्मी को जानते ही हैं।” कोयल की आवाज में व्यग्रता थी।

“तुमसे ये सब क्या विनया ने कहा।” संभव पूछता है।

“नहीं, वो तो किसी के खिलाफ एक शब्द नहीं बोलती। अपनी लड़ाई आप ही लड़ने का माद्दा रखती है। लेकिन हमें तो उसके साथ खड़े होना चाहिए। मौसी जी का हाल देख ही रहे हैं। दोनों बेटियों और मौसा जी का क्या हाल है। वो एक पैर से लाचार हैं, फिर भी मौसी के कदम अपने घर में नहीं टिकते हैं। हमारे ही बाबू जी को देख लो, जब तब अस्थमा उखड़ जाता है, लेकिन मम्मी जी को कोई चिंता ही नहीं है। कब तक ऐसे अपनी जिम्मेदारियों से भाग कर यहाॅं आती रहेंगी।” कोयल गोलू को कंधे पर लगाए सुलाती हुई कहती है।

उनकी बातों को सुनकर मौसी का कलेजा धक्क से रह गया। सच ही वो तो दीदी के एक बुलावे पर यहाॅं दौड़ी चली आती हैं। शायद बड़ी बहन के व्यक्तित्व के नीचे वो इस कदर दब गई थी कि अपना घर परिवार भूला कर उनके कहे अनुसार ही चलती रही। संभव और कोयल को इस बात का इल्म नहीं था कि मौसी वाश रूम से लौटती हुई उन लोगों को देख कर रुक गई थी और उन लोगों की बातें कान लगा कर सुन रही थी और कमरे में लैपटॉप पर दफ्तर का काम निपटाता मनीष भी उनकी बात सुनकर खिड़की तक चला आया था। अनजाने में ही संभव और कोयल ने एक तीर से दो शिकार किए थे।

मनीष बातों का तारतम्य नहीं बिठा सकने पर सोचने पर मजबूर हो गया था और मंझली बुआ को शिद्दत से अपने घर की याद सताने लगी थी।

“दीदी, मैं सोच रही थी कि अब घर चलते।” कमरे में आकर इधर उधर करती मंझली बुआ रुक रुक कर बड़ी बहन से कहती हैं।

कंबल खींच कर खुद को और अच्छे ढंकती हुई बड़ी बुआ कहती हैं, “अभी से कैसे, अभी तो पूरी ठंड पड़ी है। वैसे भी कोयल यहाॅं है तो वहाॅं का काम कौन करेगा। ना बाबा ना मुझसे तो इस ठंड में काम–वाम नहीं होंगे और तुम्हें ये अचानक जाने की क्या सूझी।” 

“वो दीदी, घर बार छोड़कर, सबको दिक्कत हो रही होगी।” झिझकती हुई मंझली बुआ कहती हैं।

“फोन वोन आया क्या, किसे दिक्कत हो रही है। नहीं नहीं तुम्हें जाने की जरूरत नहीं है। मुझे दिक्कत हो जाएगी, गोलू को संभालना, मेरा कहीं आना जाना, सब तुम्हारे भरोसे ही तो होता है।” बड़ी बुआ अपना फरमान सुना करवट बदल कर ऑंखें बंद कर जता देती हैं कि इसके आगे कोई सवाल जवाब नहीं।

मंझली बुआ बहन को करवट बदल कर ऑंखें बंद करते देख अवाक रह गईं। उनके दिल में यह सवाल उठा कि क्या मेरी बहन ने सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए मुझे डगरा का बैंगन बनाया है। ऐसा महसूस हुआ कि वह मेरे बारे में सोचती है या सिर्फ अपनी चाहतों की परवाह कर रही है। इस दुविधा ने उनके दिल को छू लिया और वो सोच लगी कि क्या वह इसे सही समझ रही हैं। फोन, फोन कौन करेगा, यहाॅं आने के बाद तो गलती से भी ना बेटी ही ना उनके पापा फोन करते हैं। यहाॅं से जाने के बाद भी सब कई दिन तक नाराज रहते हैं और जैसे ही सब कुछ सामान्य होने लगता है, दीदी का फिर से प्रोग्राम बन जाता है और मैं उनके साथ दौड़ी दौड़ी चली आती हूॅं। उनके पुनरागमन और उनकी मेहनत ने उनकी आंखों में आंसू ला दिए, क्योंकि वह हर चुनौती का सामना करने के बावजूद अपनी बड़ी बहन के सबसे अच्छा बनने का प्रयास कर रही थी और वही बिना पूरी बात सुने पीठ फेर कर सो गई थी।

उधर मनीष बिस्तर मोबाइल चलाती विनया को देख गहरे उधेड़ बुन में फॅंस चुका था। कैसे कोयल भाभी बुआ के लिए ऐसा कह सकती हैं और विनया ने ऐसा क्या कर दिया, जो उसकी तारीफों के पुल बांध रही थी। वह अपने दिल में उठे सवालों को समझने का प्रयास करने लगा। कोयल द्वारा प्रशंसा किए जाने पर मनीष विनया के बारे में एक नए परिप्रेक्ष्य में सोचने पर मजबूर हो गया था।

मनीष विनया की ओर एकटक देख कर अपने सोचों में गुम हो गया था। उसने सिर्फ अपनी बुआ की पसंद पर मोहर लगाने के लिए चाह नहीं होते हुए विवाह के लिए स्वीकृति दे दी थी और आज से पहले उसने विनया को नजर भर देखा भी नहीं था। नजर भर देख भी लेता लेकिन उससे पहले ही बुआ ने विनया को अपनी प्रतिद्वंदी के रूप में देखते हुए दोनों के बीच कड़वाहट के बीज बो दिए थे।

विनया के छठी इंद्रिय ने उसे नजरों के ताप का अहसास करा कर खुद की निगाह उठाने का इशारा कर दिया और इस इशारे पर विनया ने जैसे ही अपनी नजरें मोबाइल पर से उठाई, उसकी ऑंखें मनीष की ऑंखों से मिल गई और विनया हड़बड़ा कर उठ बैठी। विनया की हड़बड़ी देख मनीष अपनी नजर नीची कर झटके से लैप टॉप उठा कर काम करने लगा।

“कुछ चाहिए था क्या?” विनया हिम्मत करके मनीष से पूछती है।

“नहीं…हाॅं वो संभव भैया को मतलब गोलू को रात में गर्म दूध पीने की आदत है।” अपना सिर खुजलाते हुए मनीष कुछ से कुछ बोले जा रहा था।

“जी, हल्दी वाली दूध लेते हैं संभव भैया रोजाना रात में।” विनया मनीष के बोलने के ढंग पर होंठों को दबा कर मुस्कुराती हुई कहती है।

बहुत दिनों बाद विनया के मन में शरारत आई थी, वो जानती थी कि दूध के नाम से मनीष नाक भौं सिकोड़ लेता है, लेकिन फिर भी उसने मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डाल दिया, “आप भी दूध हल्दी लेंगे क्या?”

“इतने दिन हो गए तुम्हें इस घर में रहते हुए, तुम्हें पता नहीं है कि मुझे दूध पसंद नहीं है। लापरवाही की भी हद्द होती है।” बेलगाम घोड़े की तरह मनीष बिदक गया था और गुस्से में हिनहिना उठा था।

“वो आप जिस तरह देख रहे थे और पूछने पर दूध की चर्चा कर बैठे, तो मुझे लगा”… विनया बात अधूरी हल्के से मुस्कुरा कर फिर से मोबाइल उठा लेती है।

विनया की ऑंखों में अक्स तो मोबाइल का था लेकिन उसका मन दौड़ कर बचपन की सीढ़ियाॅं चढ़ने लगा था।

“अपनी बेटी को समझा लीजिए पापा, इसने फिर से मेरी नकल की है।” भैया के स्टाइल की नकल करते ही वो पापा से शिकायत लगाने लगते ।

“अरे तो ऐसा फैशन करते ही क्यों हैं भैया, पीली शर्ट, नीली पैंट।” विनया पेट पकड़ कर हॅंसती चली जाती थी।

“हाॅं तो ये मेरी पसंद है, तू जो ये बालों का खोता बना बंदरिया लगती है, उसका क्या।” विनया को चिढ़ाने में 

सौरभ भी कहाॅं पीछे रहता था। अचानक विनया खिलखिला कर हॅंस पड़ी और फिर मनीष की नजर उठते देख तुरंत चुप हो गई।

सब कुछ संभालने में मैं खुद ही हॅंसना भूल गई। बुआ के अलावा मनीष की तीखी नजर भी तो हमेशा पीछा करती रहती है। जाने कौन सी कमी खोजते रहते हैं मुझमें। कभी कभी तो लगता है पिंजरे में कैद बुलबुल भी ऐसे ही छटपटाती होगी। क्यों कैद कर रख लेते हैं लोग नन्हीं चिड़िया को, पूरी तरह पंख भी नहीं फड़फड़ा पाती है। कितना ही अंतर है स्त्रियों और पिंजरे में कैद बुलबुल में, एक दिन सब ठीक हो जाएगा की प्रतीक्षा में श्मशान पहुॅंच जाती हैं लेकिन उनके मन लायक ठीक तो कुछ भी नहीं होता है। नहीं, नहीं हमारे साथ ऐसा नहीं होगा, बुदबुदाती विनया ठिठुरती ठंड में भी कपाल पर आ गया स्वेद कणों को पोछ्ती उठ कर बैठ गई, उसकी ऑंखों में भय की गहरी रेखा स्पष्ट दिख रही थी मानो कोई बुरा सपना आकर गया हो।

“क्या हो गया, ठीक हो तुम”, उसकी बुदबुदाहट सुन और परेशान हालत देख मनीष काम करते करते पूछता है।

“हूं” विनया परेशान सी कंबल ओढ़ कर लेट गई। 

भविष्य का भयावह चित्रण से उसकी नींद गायब हो चुकी थी। समय का क्या भरोसा, अब शीघ्र ही नतीजे पर पहुॅंचना होगा। कल ही संपदा संग विचार करती हूॅं। लेकिन सबों के मध्य तो ये बात नहीं की जा सकती है। घर की बात और लोगों तक भी पहुॅंचने नहीं देना है। माॅं भी इस काम में हमारा साथ देंगी या नहीं, ये भी तो देखना होगा।” विनया का मस्तिष्क अभी कई दिशाओं में एक साथ दौड़ रहा था और अब उसे इतने दिनों की मेहनत का फल प्राप्त करने के लिए उकसा रहा था।

समय की अनिश्चितता और आने वाले नतीजों का भय उसके मन को बेचैन कर रहा था। उसे अपने कल के निर्णय को लेकर वह परेशानी का अनुभव कर रही थी और इससे उसे खुद की नींद को खो देने का आभास हो रहा था। विनया की चिंताएं उसकी मानसिक स्थिति को प्रभावित कर रही थी और उसका मस्तिष्क कई विभिन्न विचारों के साथ भर गया था,

उसका कंठ सूखने लगा था। लेकिन वो पानी से गला तर करने के बजाय अब  उन सभी विचारों को झटक कर नींद की दुनिया में खो जाना चाहती थी। वो कमरे में प्रकाशित हो रहे ट्यूबलाइट पर अपना ध्यान केंद्रित कर विचारों को उसके ताप में भस्मीभूत कर देना चाहती थी। ट्यूबलाइट पर ध्यान केंद्रित करती विनया पर निशा संग इधर उधर घूमती निंद्रा देवी को दया आ गई और तत्क्षण ही विनया गहरी गहरी साॅंसें लेती स्वप्न संसार के आगोश में चली गई।

“हेहेहेहे भाभी, भैया तो फुहकारने लगे होंगे।” सुबह सबके लिए नाश्ता का इंतजाम करती विनया रात की घटना से अपनी ननद संपदा को अवगत करा रही थी और संपदा हॅंस–हॅंस कर बेहाल हुई जा रही थी।

“तुम क्या समझती हो, तुम मेरे खिलाफ मेरी बहन को भड़काओगी और मुझे पता भी नहीं चलेगा।” ननद भाभी की गुफ्तगू लगातार चल ही रही थी कि बड़ी बुआ रसोई में आकर रंग में भंग करती हुई कहती हैं।

“जी बुआ जी,पर मैं ऐसा क्यों”… 

“चुप रहो बहू, ये घर मेरा है, तुम जो अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहती हो ना , ये सपना देखना बंद तुम।” बड़ी बुआ विनया के कथन पर कान ना देती हुई कहती हैं।

“पर बुआ जी, यदि इंसान सपना ना देखे तो उसकी तो जिंदगी ही बदरंग हो जाएगी और अभी तो मेरी उम्र सपने देखने की ही है, है ना मनीष।” बुआ जी से कहते हुए विनया रसोई के सामने से गुजरते अपनी पति को आवाज दे देती है।

“क्या” मनीष विनया के इस तरह आवाज दे देने पर असमंजस में खड़ा हो जाता है।

“हाॅं, हाॅं बहू तुम सही कह रही हो।” मनीष को देखते ही बुआ जी विनया को हामी भरते हुए मनीष को लिए रसोई से बाहर आ गईं।

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