आदत – अनुमित्तल  ‘इंदु’

“आज़  रागिनी का फोन आया था “,रात  को खाना खाने के बाद अरुण  बेड रूम में टी वी देख रहे थे , मैंने उन्हें बताया । “अच्छा ? क्या कह रही थी ? अरुण ने टी वी की वॉल्यूम कम करते हुये पूछा ।

“वो कह रही थी कुछ दिनों के लिये आ जाओ , दो साल हो गये हैँ मिले हुये “, उसके पोते के जन्म दिन पर गई थी ,उसके बाद नहीँ जा पाई बहन के पास ।

मम्मी पापा के देहांत के बाद मायके के नाम पर एक भाई और एक बहन है । जब भी पंजाब जाती हूँ तो दोनों से मिल आती हूँ ।

अरुण ने अगले दिन ही मेरी ट्रेन की टिकट भी बुक करवा दी ।

“मैंने तो यूँ ही ज़िक्र किया था , आपने तो सचमुच टिकट भी बुक करवा दी , बहुत जल्दी है मुझे भेजने की ? ” मैंने चुटकी लेते हुये कहा ।

“अरे , मैंने तो यह सोच कर बुक करवा दी कि तुम्हारी चेंज हो जायेगी । भलाई का तो जमाना ही नहीँ है ,”अरुण ने बनावटी गुस्सा दिखाते हुये कहा ।

इस बार तो पंद्रह दिन की छुट्टी मिल गई । दो तीन दिन भाई के पास रह कर बहन के पास आ गई ।

वो सब बहुत ख़ुश थे मेरे आने पर , रोज़ नये नये पकवान और रात को देर तक बातें । यह साड़ी खरीदी , ये जेवर खरीदे , से लेकर परिवार की सब समस्याओं पर ढेरों बातें ।

रोज़ शॉपिंग के लिये निकल जाते । छोटे शहरों में शॉपिंग का भी अलग मज़ा होता है । आपको यहां सब जानते हैँ ।

मैं तो वहाँ जा कर बिज़ी हो गई मगर हर सुबह शाम अरुण का फोन आ जाता ।


“आज़ नाश्ते में आलू के परांठे बनाये ,लंच में पुलाव बनाया । रात को दोस्तों के यहां पैग लग रहें हैँ । कभी रात को चार दोस्तों की हमारे घर में महफ़िल चल रही है ।

सब को पता था भाभी जी घर पर नहीँ हैँ । ख़ूब मज़े हो रहे थे इनके तो ।

अभी बहन के घर में चार दिन भी नहीँ हुये थे कि अरुण का फोन आ गया , “तुम्हारी शुक्रवार की टिकट बुक करवा दी है तुम आ जाओ “।

लेकिन मेरा तो पंद्रह दिन का प्रोग्राम था , मूड ऑफ हो गया ।

लेकिन टिकट बुक थी वापिस आना पड़ा । नई दिल्ली के स्टेशन पर जैसे ही गाड़ी पहुंची , अरुण मुझे लेने आये हुये थे ।

मुझे देखकर इतने ख़ुश नज़र आ रहे थे जैसे बरसों बाद देखा हो ।

कार ड्राइव करते हुये भी बड़े प्यार से मुझे देख रहे थे जैसे कोई दूल्हा अपनी दुल्हन की डोली ले जाते समय देखता है ।

“अब कभी नहीँ भेजूंगा तुम्हें , तुम्हारे बिना कुछ अच्छा नहीँ लगता घर में , एक दो दिन तो आज़ादी सी लगती है । मगर तीसरे दिन ही घर की हर चीज़ में तुम्हारी कमी खलने लगती है । तुम्हारे बिना जीने की कल्पना से ही काँप उठता हूँ । दोपहर को लंच के लिये तुम्हारे फोन का इंतज़ार करने की ऐसी आदत थी कि बिना तुम्हारी कॉल के घर आने को मन नहीँ करता था। एक दूसरे की इतनी आदत हो जाती है , इतने बरसों साथ रहते रहते कि एक के बिना दूसरा अधूरा सा लगता है । आज़ मैं पालक पनीर बना कर आया हूँ । घर जाकर इकठ्ठे डिनर करेंगे “

अरुण अपनी धुन में बोले जा रहे थे,  और मेरे कानों में मिश्री सी घुल रही थी । इतना बोलते तो कभी नहीँ सुना था उनको। यह एक हफ्ते की दूरी ने  हमें कितना क़रीब कर दिया था ।

अनुमित्तल  ‘इंदु’

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