वो वृद्धा……………मोनालिसा ‘असीम’

  प्रेमचंद जी ने बहुत सही कहा है बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन होता है,पर बुढ़ापे की  आयु भी किसी -किसी के लिए इतनी लम्बी होती है कि वो बचपन से गुजर कर शैशव अवस्था में पहुंच जाती है।

         मेरे पड़ोस में भी एक ऐसी ही वृद्धा हैं स्वच्छ-सफेद साड़ी में लिपटी हुई सफेद बालों में यही कोई 94 वर्ष की अवस्था में जिन्हें सब बूढ़ी माँ कहकर बुलाते हैं,कहने को तो उनका भरा-पूरा परिवार है पूरे ग्यारह बच्चों की माँ हैं लेकिन अब उनके बच्चे भी वृद्धावस्था की दहलीज पर कदम रख चुके हैं।पोते -पोतियों में से कईयों का विवाह हो चुका है।वो वृद्धा अपने सब से छोटे बेटे और बहू के पास ही सालों से रह रही हैं उसकी पोती के साथ उनका कुछ विशेष लगाव है वो उनका झुर्रियों से भरा हाथ थामकर जहां कहती हैं वहां ले जाती है दिन में दो -तीन बार वो छत पे अवश्य जाती हैं पता नही खुले आसमान से उन्हें कुछ विशेष लगाव है या  शून्य में ताकना उन्हें अच्छा लगता है ?

                                    उनका व्यक्तित्व बहुत ही सशक्त रहा ।कम उम्र में विधवा हो जाने के बाद उन्होंने ने ही जिम्मेदारी पूर्वक अपने बच्चों का पालन -पोषण किया।पढ़ाया – लिखाया ,बेटियों का विवाह किया उनके अधिकांश बेटे सरकारी नोकरी में ही हैं जो अब रिटायमेंट की अवस्था मे पहुंच चुके हैं।वो बहुत नेम -धरम वाली औरत रहीं दूसरे के घर का खाना तो क्या कोई छू भी जाये तो स्नान कर के ही घर मे प्रवेश करती थी। सफाई और ईश्वर भक्ति में ही अपना जीवन गुजारने वाली उनके बच्चे उनका आदर भी खूब करते,पर समय का पहिया ज्यों -ज्यों घूमता गया उनके सब उनसे दूर होने लगे ,सब अपनी दुनिया मे ही रम गए । लेकिन जो हमेशा साथ रही वो है उनकी छोटी बहू सुजाता जिसके लिए वृद्धा ने कड़े नियम बनाये थे और कभी भी बहु को बेटी नही माना आज वही उनका एक शिशु के समान सेवा करती है अपनी खुशियों को ताक पे रख के सुबह से शाम उनकी सेवा में डटी रहती है और वो भी निस्वार्थ भाव से खुद नहाकर उनके लिए सात्विक भोजन बनाती है, नहलाना,धुलाना ,खिलाना -पिलाना उनके डायपर बदलने से लेकर साफ -सफाई का पूरा ख्याल रखती है जैसे कोई माँ अपने शिशु का रखती है।


                              जीभ के स्वाद के अपेक्षा बाकी इंद्रियों ने काम करना बंद कर दिया है।ना ठंड -गर्मी का एहसास ही बाकी है और ना ही चोट लगने पर दर्द ही होता है।जिस ईश्वर भक्ति में उन्होंने दिन गुजारे अब ना वो ईश्वर याद हैं ना ही अपने बच्चों को ही पहचान पाती हैं,बस आवाजें लगाती हैं कभी कभी मुझे भी पास बैठा कर कुछ बड़बड़ाती हैं।समझ नही आता पर उसे आशीर्वाद ही मान लेना शायद सही है। जीवन का अंत इतना कठोर और एकाकी भरा भी हो सकता है  इस सच को देखकर ही सिहरन आ जाती है।जीवन और मृत्यु के बीच का अंतराल भी बहुत कुछ सीख देता है।

                        @  मोनालिसा ‘असीम’

 

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